लेख
18-Sep-2025
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नेपाल में भले ही ओली की अप्रत्याशित विदाई के साथ ही पूर्व जस्टिस सुशीला कार्की के नेतृत्व में अंतरिम सरकार ने सत्ता संभाल ली है, लेकिन यहां हालात सामान्य होने में अभी कुछ वक्त और लगेगा। वजह साफ है कि जिस जेन-ज़ी की वजह से तख्तापलट हुआ उसे खुश कर पाना फिलहाल किसी के वश की बात नहीं है। ऐसा कहना इसलिए सही लगता है क्योंकि इससे पहले बांग्लादेश में युवाओं ने जिस तरह से शेख हसीना की सत्ता को उखाड़ फेंका था और उसके बाद प्रमुख सलाहकार यूनुस वाली अंतरिम सरकार ने सब कुछ अपने हिसाब से करने की कोशिश की, लेकिन उससे आंदोलनकारी छात्र खुश नहीं हो सके। अब गाहे-बगाहे बांग्लादेश की अंतरिम सरकार के खिलाफ भी आवाजें उठती सुनाई और दिखाई दे जाती हैं। वैसे भी यह वह समय है जिसमें दक्षिण एशिया ही नहीं बल्कि दुनियां के अधिकांश देश राजनीतिक उथल-पुथल के दौर से गुजर रहे हैं। दुनियां की तमाम शक्तियां जंग के झमेले में उलझी नजर आ रही हैं। यहां भारत के पड़ोसी देशों की ही बात कर लें तो श्रीलंका, बांग्लादेश और अब नेपाल में जनता के खासतौर पर युवाओं के असंतोष ने सरकारों को परिणाममूलक घेराव किया है। तीनों देशों में आंदोलन की शैली, युवाओं पर आधारित जनसहभागिता और सत्तात्मक प्रतिक्रिया को देखते हुए इसे एक जनविद्रोह मॉडल की संज्ञा दी जाने लगी है। इस मॉडल में सोशल मीडिया की भूमिका, युवा शक्ति की भागीदारी और आर्थिक-सामाजिक असंतोष की गहरी जड़ें साफ झलकती हैं। यहां विचार करने वाली बात यह भी है कि यह विद्रोह दो-चार दिन में पैदा नहीं हुआ, बल्कि लगातार सुनवाई नहीं होने और संकट के विकराल रुप लेने से उपजा था। युवाओं को उचित शिक्षा के साथ ही समय पर रोजगार न मिलना और सरकार द्वारा उनका लगातार तिरस्कार करना भी एक प्रमुख कारण रहा है। तिरस्कार इस बावत कि नेता और अधिकारियों के अधिकांश बच्चे तो विदेशों में पढ़ते और अपना बेहतर भविष्य बनाते नजर आए, लेकिन देश में रहने वाले युवाओं की ओर किसी का ध्यान ही नहीं गया। इससे कुंठित युवा वर्ग एकजुट होता चला गया और धीरे-धीरे उनका विरोध जनविद्रोह मॉडल तक पहुंच गया। यहां सर्वप्रथम श्रीलंका के जनआंदोलन की बात कर लेते हैं, जो कि आर्थिक तबाही से सत्ता पलट तक चला। दरअसल श्रीलंका में हुआ साल 2022 का जनआंदोलन एक ऐतिहासिक मोड़ साबित हुआ था। तब राजपक्षे सरकार की आर्थिक नीतियां फेल होती हुई दिखीं थीं, जिस कारण देश में कर्ज़ संकट सामने आया। इसके चलते विदेशी मुद्रा भंडार का खात्मा होता हुआ दिखाई दिया और लोगों पर सीमा से परे भार पड़ता दिखाई दिया। परेशान लोग सरकार के खिलाफ सड़कों पर आ गए। कहते हैं जब जनता किसी सत्ता के खिलाफ सड़क पर आ जाती है तो उसका सामना करने की ताकत किसी मानवीय शक्ति में तो नहीं ही होती है। यही वजह थी कि श्रीलंका के हालात इस कदर बिगड़े कि प्रदर्शनकारियों ने राष्ट्रपति भवन तक पर कब्जा जमा लिया। इस आंदोलन के बाद राष्ट्रपति राजपक्षे को देश छोड़कर विदेश भागना पड़ गया था। राष्ट्रपति के पलायन के साथ ही सत्ता परिवर्तन का दृष्य सामने आया। इस आंदोलन की खासियत की बात करें तो यह स्वस्फूर्त, नेतृत्वविहीन और सोशल मीडिया पर आधारित था, जो कि जंगल में लगी आग की तरह तेजी से फैला। श्रीलंका के जनआंदोलन से थोड़ा हटकर बांग्लादेश का छात्र आंदोलन रहा है। दरअसल यह आंदोलन आरक्षण व्यवस्था से शुरू हुआ और देखते ही देखते सरकार के खिलाफ हिंसक बगावत में तब्दील हो गया। यहां बताते चलें कि साल 2024 में बांग्लादेश में शुरू हुआ छात्र आंदोलन सरकारी नौकरियों में आरक्षण (कोटा) के विरोध में खड़ा किया गया था। शेख हसीना सरकार को शुरु में लगा था कि छात्रों को समझा-बुझाकर या दबाव बनाकर रास्ते में ले आएंगे, लेकिन पुलिस ने जब कठोर कार्रवाई शुरु की तो यही आंदोलन जनविद्रोह का रूप धारण कर लिया। देखते ही देखते लाखों युवा सड़कों पर उतर आए और शेख हसीना सरकार को जड़ से उखाड़ दिया। प्रारंभ में यह आंदोलन विश्वविद्यालय परिसरों से शुरु हुआ जो पूरे देश में फैल गया। शांतिपूर्ण आंदोलन कब हिंसक रुप अख्तियार कर लिया समझ से परे रहा और इसमें सैकड़ों मौतें हुईं और इस कारण सरकार गिरती दिखी। तत्कालीन प्रधानमंत्री शेख हसीना को भारत में शरण लेना पड़ी। जेल में कैद राजनीतिज्ञों की रिहाई के साथ ही अंतरिम सरकर बनी जिसके प्रमुख सलाहकार यूनुस को बना दिया गया। कुछ ऐसी ही तस्वीर हाल ही में नेपाल में भी बनती देखी गई, जबकि प्रधानमंत्री केपी शर्मा ओली की सरकार के खिलाफ जेन-ज़ी (26 वर्ष से कम उम्र के युवा) सोशल मीडिया प्रतिबंध और भ्रष्टाचार के विरोध में सड़कों पर उतर आए। इन आंदोलनकारी युवाओं ने संसद को घेरने और सरकारी भवनों पर कब्जे करने से लेकर हागजनी की घटनाओं को भी खूब अंजाम दिया। आंदोलनकारी युवाओं और पुलिस के बीच हुई झड़पों में हुई मौतों ने आग में घी डालने का काम किया। गुस्साए आंदोलनकारियों ने न सिर्फ नेताओं के बंगलों और सरकारी संस्थाओं में आगजनी कि बल्कि सुप्रीम कोर्ट तक को आग के हवाले कर दिया। इस उग्र आंदोलन को देख कर किसी ने सोचा भी नहीं होगा कि सोशल मीडिया प्रतिबंध, भ्रष्टाचार और बेरोजगारी का मामला इतना खतरनाक मोड़ पर आ जाएगा कि तख्तापलट करके रख देगा। सोशल मीडिया प्रतिबंध के बावजूद युवा लामबंद हुए और संसद और राजधानी काठमांडू को घेरने में कोई कोताही नहीं की। परिणाम स्वरुप ओली पर इस्तीफे का दबाव बना और देश में राजनीतिक अस्थिरता सामने आ गई। इन तीनों देशों के तख्तापलट आंदोलन पर विश्लेषणात्मक दृष्टि डालते हैं तो मालूम चलता है कि इनके जरिए राष्ट्रीय ही नहीं अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर युवा शक्ति का उदय हुआ। इन तीनों ही आंदोलनों में युवाओं, खासकर छात्रों और जेन-ज़ी पीढ़ी नेतृत्व करती नजर आई। इन आंदोलनों में सोशल मीडिया ने अहम भूमिका निभाई। आधुनिक सूचना तंत्र के तौर पर सोशल मीडिया भीड़ जुटाने में सबसे बड़ा हथियार साबित हुआ है। इन तीनों ही देशों में राजनीतिक असंतोष का विस्फोट किसी एक मुद्दे को लेकर शुरु हुआ और क्रमश: आर्थिक संकट, कोटा और सोशल मीडिया प्रतिबंध ने एक तरह से सूखी घांस में चिंगारी गिराने का काम किया। इस आग में घी डालने का काम भीतर ही भीतर लंबे समय से युवाओं के मन में दबा गुस्से ने किया। तत्कालीन सरकारें युवाओं को आंदोलन के रास्ते जाने से रोक भी सकती थीं, लेकिन उसके लिए संवाद बहुत जरुरी होता है। यहां बातचीत के रास्ते बहुत हद तक बंद कर दिए गए थे। सरकार और सुरक्षा-तंत्र से कठोर प्रतिक्रियाएं मिलती देख आंदोलन भड़का। पुलिस गोलीबारी, इंटरनेट प्रतिबंध, कर्फ्यू और गिरफ्तारियों जैसी कार्रवाइयों ने आंदोलनों को भड़काने में मदद की। इन कारणों ने सरकार की उपलब्धता और वैधता पर सवाल खड़े कर दिए। परिणाम तख्ता पलट के तौर पर सामने आए, जिससे अन्य राष्ट्रों को सबक लेने की आवश्यकता है। शासन-प्रशासन को चाहिए कि युवाओं के लिए जहां शिक्षा और रोजगार के बेहतर अवसर तलाशे वहीं देश के समस्त नागरिकों के लिए स्वास्थ्य सेवाओं के साथ ही साथ रोटी-कपड़ा और मकान का माकूल इंतजाम करे। इससे देश में अराजकता फैलने से बचेगी और जो युवा आक्रोश पनप रहा है उससे भी देश व सरकार को राहत मिलेगी। ईएमएस/18/09/2025