राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) ने अपने 100 वर्ष पूरे कर लिए हैं। यह केवल किसी संगठन का शताब्दी पर्व नहीं, बल्कि उस विचारधारा की यात्रा है, जिसने भारत की राजनीति, समाज और संस्कृति को गहरे स्तर पर प्रभावित किया है। 1925 में डॉ. केशव बलिराम हेडगेवार द्वारा नागपुर से शुरू हुआ यह संगठन आज देश के कोने-कोने में फैला हुआ है। इसके लाखों स्वयंसेवक शिक्षा, सेवा, संस्कार और संगठन के क्षेत्र में सक्रिय हैं। भाजपा जैसी सबसे बड़ी राजनीतिक पार्टी को विचार और कार्यकर्ता देने में आरएसएस की भूमिका निर्विवाद है। जितनी मजबूती से यह संगठन आज खड़ा दिखता है, उतने ही विवाद भी इसके साथ जुड़ते रहे हैं। आरएसएस पर शुरू से ही सांप्रदायिक होने और धार्मिक आधार पर समाज को बांटने के आरोप लगते रहे हैं। राष्ट्रपतिा महात्मा गांधी जी की हत्या के बाद आरएसएस पर प्रतिबंध लगाया गया था। गांधी जी की हत्या के बाद देश में बड़ी तीव्र प्रतिक्रिया हुई थी। बाद में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की पहल करने पर प्रतिबंध हट गया था। फिर भी यह सवाल हमेशा उठता रहा कि क्या आरएसएस का काम “सांस्कृतिक राष्ट्रवाद” तक सीमित है, या संघ राजनीति को परोक्ष रूप से नियंत्रित करता है? बीते दस दशकों में आरएसएस ने शिक्षा, ग्रामीण विकास, स्वास्थ्य और सेवा कार्यों के माध्यम से समाज में अपनी स्वीकार्यता बढ़ाई है। प्राकृतिक आपदाओं के समय स्वयंसेवकों का काम भी सराहा गया है। लेकिन अल्पसंख्यकों के बीच संघ को लेकर अविश्वास की खाई गहरी हुई है। संघ परिवार से जुड़े कुछ संगठनों की गतिविधियाँ और बयानों ने संघ की छवि को विवादास्पद एवं एक कट्टरवादी संगठन के रूप में बना दिया है। यही कारण है, कि सौ साल की यात्रा पूरी करने के बावजूद आरएसएस विवादों का केंद्र बना हुआ है। जिस तरह से भारत में पिछले एक दशक में धार्मिक उन्माद बढ़ाया गया और लगातार बढ़ाया जा रहा है, बार-बार हिंदू राष्ट्र की कल्पना को लेकर तरह-तरह के बयान संघ द्वारा पोषित अनुवांशिक संगठनों द्वारा दिए जाते हैं। एक तरह से मणिपुर में ईसाइयों का विरोध तथा संपूर्ण भारत में मुसलमान विरोधी संगठन के रूप में संघ की छवि बनी है। इससे भी इनकार नहीं किया जा सकता है, संघ और उसके अनुवांशिक संगठन आज एक भय के प्रतीक बनकर अपनी पहचान बना रहे हैं। जिसको लेकर समय-समय पर राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की 100 साल की यात्रा में उनके अच्छे और खराब सभी कामों का बढ़-चढ़कर बखान किया जा रहा है। सवाल यही है, शताब्दी वर्ष में आरएसएस किस दिशा में आगे बढ़ना चाहता है। संघ प्रमुख मोहन भागवत ने विजयादशमी के दिन अपने उद्बोधन में नेपाल की घटनाओं का उल्लेख करते हुए लोकतांत्रिक प्रक्रिया को एक बार फिर नया विश्वास देने की कोशिश की है। उसको लेकर एक बार फिर भ्रम की स्थिति निर्मित हो रही है। क्या यह संगठन सचमुच भारत को एक समरस, समावेशी और आधुनिक राष्ट्र बनाने में योगदान देगा। या फिर केवल बहुसंख्यकवादी राजनीति का आधार बना रहेगा? स्वतंत्रता आंदोलन में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की भूमिका का उल्लेख प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने जिस तरह से किया है उसको लेकर भी एक नया विवाद शुरू हो गया है। कांग्रेस ने राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की भूमिका को लेकर एक नया मोर्चा खोल दिया है। ऐसी स्थिति में आरएसएस को अपनी ऐतिहासिक भूमिका को और प्रासंगिक बनाने के लिए पारदर्शिता और संवाद की ज़रूरत है। भारत की लोकतांत्रिक प्रक्रिया में सभी धर्म के लोगों के साथ समन्वय बनाने की भूमिका को लेकर संघ को अपनी सोच को पारदर्शिता के साथ सामने लाना होगा वही अपने अनुवांशिक संगठनों को भी नियंत्रित करना होगा। 100 साल की यात्रा का संदेश यही होना चाहिए, भारत की विविधता ही उसकी असली शक्ति है। अगर आरएसएस इस शक्ति को सम्मान और समानता के साथ स्वीकार करता है। केंद्र एवं राज्यों की सरकार जो संघ की विचारधारा का प्रतिनिधित्व करती हैं, वह ऐसी स्थिति का निर्माण करें जिसमें विविधता के साथ सभी पक्षों के साथ न्याय हो। तभी शताब्दी पर्व सकारात्मक पड़ाव साबित होगा वर्ना यह अवसर भी केवल उपलब्धियों और विवादों के बीच भारत को नुकसान ही पहुंचाएगा। संघ और भाजपा संगठन को जब वह सत्ता के शीर्ष पर बैठे हुए हैं, ऐसे समय पर उनका सारा ध्यान विवादों से बचते हुए सभी वर्गों के बीच में अपनी लोकप्रियता बढ़ाने, कानून व्यवस्था की स्थिति बेहतर करने तथा आर्थिक एवं सामाजिक विकास की ओर लगाया जाएगा तभी जाकर संघ और भाजपा की स्वीकारता लंबे समय तक आम जनमानस के बीच में बनी रहेगी 80-20 का फार्मूला कुछ समय तक के लिए सत्ता में मजबूती प्रदान करता है लेकिन 80 फ़ीसदी आबादी जिसे हम हिंदू कह रहे हैं यह अलग-अलग विचारधारा, संस्कृति और धर्म में बंटी हुई है। जो कुछ समय तक तो एकजुट की जा सकती है लेकिन जब इसमें किसी एक विचारधारा को डालने की कोशिश होती है तो यही 80 फ़ीसदी आबादी कई भागों में बंट जाती है। भारतीय राजनीति में 75 वर्ष तक संघ, जनसंघ और भारतीय जनता पार्टी के सफर में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ने इसे जाना है। इस अनुभव के आधार पर जब सभी के लिए समान अवसर और समान विचारधारा तथा लोकतांत्रिक आस्थाओं को बढ़ाने से ही संघ के 100 वर्ष सार्थक होंगे। हिंदू राष्ट्र या रामराज की नारेबाजी से कुछ होने वाला नहीं है। इसे राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और भाजपा दोनों को ही समझना होगा। एसजे/ 3 अक्टूबर/2025