परिवारों के सम्मान से ही मिटेगी गरीबी की लकीर (अंतर्राष्ट्रीय गरीबी उन्मूलन दिवस (17 अक्तूबर) पर विशेष) गरीबी केवल आर्थिक संसाधनों की कमी नहीं है बल्कि एक बहुआयामी संकट है, जिसमें गरिमा, अवसर और सामाजिक सुरक्षा का अभाव गहराई से जुड़ा है। हर साल 17 अक्तूबर को ‘अंतर्राष्ट्रीय गरीबी उन्मूलन दिवस’ के रूप में मनाया जाता है, जिसका उद्देश्य गरीबी में जी रहे लोगों और व्यापक समाज के दुखों के बारे में समझ को बढ़ावा देना है। यह दिवस समरण कराता है कि मानवता के सामने सबसे बड़ी चुनौती आज भी गरीबी और उससे उपजने वाला सामाजिक अन्याय ही है। अंतर्राष्ट्रीय गरीबी उन्मूलन दिवस का इस वर्ष का विषय ‘परिवारों के लिए सम्मान और प्रभावी समर्थन सुनिश्चित करके सामाजिक और संस्थागत दुर्व्यवहार को समाप्त करना’ हमें यह सोचने के लिए प्रेरित करता है कि गरीबी के विरुद्ध संघर्ष केवल आर्थिक सहायता तक सीमित नहीं रह सकता बल्कि यह एक सामाजिक और नैतिक उत्तरदायित्व है, जिसमें संस्थागत ढ़ांचे और सामाजिक व्यवहार दोनों का पुनर्निर्माण आवश्यक है। संयुक्त राष्ट्र के अनुसार, गरीबी का सीधा संबंध उन व्यवस्थाओं और सोच से है, जो गरीबों को सहयोग के बजाय नियंत्रण, निगरानी और दोषारोपण के दायरे में बांध देती हैं। गरीबी में जी रहे लोगों को अक्सर सहायता की आवश्यकता वाले मानव के रूप में नहीं बल्कि अक्षम या जिम्मेदारीहीन के रूप में देखा जाता है। यही दृष्टिकोण सामाजिक और संस्थागत दुर्व्यवहार की जड़ है। परिवारों को गरिमा से जीने का अवसर तभी मिलेगा, जब समाज उन्हें बराबरी और सम्मान की दृष्टि से देखे और संस्थाएं उन्हें सहयोगी के रूप में स्वीकार करें। इस वर्ष का विषय उस बदलाव की ओर संकेत करता है, जिसमें नीतियां और सेवाएं निगरानी से देखभाल, नियंत्रण से समर्थन और ऊपर से थोपी जाने वाली नीतियों से भागीदारीपूर्ण निर्णय की दिशा में अग्रसर हों। दुनिया में आज भी लगभग 690 मिलियन लोग प्रतिदिन 2.15 डॉलर से कम आय पर जीवन यापन कर रहे हैं। विश्व स्तर पर लगभग 1.1 अरब लोग बहुआयामी गरीबी में फंसे हुए हैं, जिनमें स्वास्थ्य, शिक्षा और बुनियादी सुविधाओं तक पहुंच का अभाव है। कोविड-19 महामारी के बाद भी विश्व की बड़ी आबादी सामाजिक सुरक्षा के कवच से बाहर है। संयुक्त राष्ट्र की रिपोर्टों के अनुसार, 4 अरब से अधिक लोग किसी न किसी रूप में असुरक्षित हैं। यह स्थिति केवल आर्थिक असमानता नहीं दर्शाती बल्कि इस बात का प्रमाण है कि वैश्विक संस्थागत ढ़ांचा अभी भी मानव गरिमा की सुरक्षा में असफल है। सामाजिक और संस्थागत दुर्व्यवहार की जड़ें बहुत गहरी हैं। यह केवल सरकारी तंत्र या नीतियों की समस्या नहीं बल्कि एक सामाजिक सोच का प्रतिबिंब है, जो गरीबी को व्यक्तिगत विफलता मानती है। गरीब परिवारों को सहायता की जगह संदेह की निगाह से देखा जाता है। कई देशों में सामाजिक सुरक्षा या कल्याण योजनाओं के लिए पात्रता की प्रक्रियाएं इतनी जटिल हैं कि सबसे वंचित लोग ही उनसे वंचित रह जाते हैं। पहचान पत्र, दस्तावेजी प्रमाण, आय का विवरण या निवास का प्रमाण, इन औपचारिकताओं के बीच गरिमा का स्थान कहीं खो जाता है। परिणामस्वरूप गरीबी के साथ-साथ अपमान, असहायता और असमानता भी बढ़ती जाती है। भारत जैसे विकासशील देशों में भी यह स्थिति किसी हद तक झलकती है। यहां भी लाखों परिवार सरकारी योजनाओं के लाभ से वंचित रहते हैं क्योंकि प्रक्रिया कठिन, तंत्र असंवेदनशील और व्यवस्था अविश्वसनीय है। सार्वजनिक वितरण प्रणाली, स्वास्थ्य बीमा, पेंशन, छात्रवृत्ति या रोजगार गारंटी जैसी योजनाएं कई बार उन्हीं तक सीमित रह जाती है, जो पहले से अपेक्षाकृत बेहतर स्थिति में हैं। ग्रामीण और शहरी गरीबों, प्रवासी मजदूरों, महिलाओं, वृद्धजनों और एकल माता-पिता वाले परिवारों को वास्तविक सहायता तक पहुंचाने में प्रशासनिक दूरी और सामाजिक उदासीनता बड़ी बाधा बनती है। यही कारण है कि गरीबी केवल आय का नहीं बल्कि सम्मान और अवसर का प्रश्न बन गई है। सामाजिक और संस्थागत दुर्व्यवहार के परिणाम गहरे और दीर्घकालिक होते हैं। जब परिवारों को अपमान, उपेक्षा और असमान व्यवहार झेलना पड़ता है तो इसका असर उनके बच्चों के विकास, शिक्षा और मानसिक स्वास्थ्य पर भी पड़ता है। पीढ़ियों तक गरीबी का चक्र चलता रहता है क्योंकि गरीबी केवल संसाधनों की कमी नहीं बल्कि आत्मविश्वास और सामाजिक स्वीकृति की भी कमी बन जाती है। जो परिवार सहायता के बजाय आरोप का सामना करते हैं, वे शासन और समाज दोनों से दूर हो जाते हैं। इससे सरकारी कार्यक्रमों की विश्वसनीयता घटती है और असमानता की खाई और गहरी होती जाती है। गरीबी उन्मूलन के लिए आवश्यक है कि परिवारों को सम्मान और सुरक्षा मिले। समाज को नियंत्रण के बजाय सहयोग की संस्कृति अपनानी होगी। संस्थानों को ऐसी नीतियां बनानी होंगी, जिनमें गरीबों की आवाज शामिल हो। नीतियों और योजनाओं का निर्माण उन्हीं लोगों की भागीदारी से होना चाहिए, जिन पर उनका प्रभाव पड़ता है। जब नीति निर्माण में गरीब परिवारों की राय और अनुभव शामिल किए जाते हैं तो योजनाएं अधिक यथार्थवादी और प्रभावी बनती हैं। इसके लिए जरूरी है कि सामाजिक सुरक्षा योजनाओं को सरल और सुलभ बनाया जाए। पात्रता मानदंड पारदर्शी हों, आवेदन प्रक्रियाएं डिजिटल विभाजन से मुक्त हों और लाभार्थियों को उनकी भाषा और संस्कृति के अनुसार जानकारी दी जाए। परिवार-केंद्रित दृष्टिकोण को प्राथमिकता दी जाए, ऐसी सेवाएं, जो बच्चों, महिलाओं और बुज़ुर्गों की आवश्यकताओं को ध्यान में रखें। शिक्षा, स्वास्थ्य और रोजगार के अवसरों को समान रूप से सुनिश्चित करना गरीबी उन्मूलन का सबसे स्थायी मार्ग है। संस्थागत स्तर पर सबसे अहम बदलाव दृष्टिकोण का है। कल्याण योजनाओं को दया या अनुग्रह पर नहीं बल्कि अधिकार-आधारित बनाना होगा। सार्वजनिक सेवा प्रदाताओं, जैसे सामाजिक कार्यकर्ता, स्वास्थ्य कर्मी, शिक्षक या प्रशासनिक अधिकारी, को संवेदनशीलता और मानवाधिकार दृष्टिकोण से प्रशिक्षित करना आवश्यक है ताकि गरीबों के साथ किसी प्रकार का अपमानजनक या भेदभावपूर्ण व्यवहार न हो। शिकायत निवारण और जवाबदेही तंत्र भी मजबूत किए जाने चाहिए ताकि किसी परिवार के साथ अन्याय होने पर उसे न्याय का अवसर मिल सके। दूसरा महत्वपूर्ण पहलू संसाधनों की उपलब्धता है। गरीबी उन्मूलन केवल योजनाएं घोषित करने से संभव नहीं होगा, इसके लिए पर्याप्त वित्तीय निवेश और निरंतर निगरानी की आवश्यकता है। सरकारों को बजट का बड़ा हिस्सा शिक्षा, स्वास्थ्य और सामाजिक सुरक्षा में लगाना होगा, साथ ही यह सुनिश्चित करना होगा कि नीति का केंद्र केवल आर्थिक वृद्धि नहीं बल्कि सामाजिक न्याय और मानवीय गरिमा भी हो। स्थानीय स्तर पर काम करने वाले संगठन परिवारों के अनुभवों को सामने लाकर नीतियों में सुधार की दिशा दिखा सकते हैं। तकनीकी नवाचारों के माध्यम से डेटा आधारित निर्णय, पारदर्शिता और समावेशिता को बढ़ाया जा सकता है। संयुक्त राष्ट्र के सतत विकास लक्ष्यों में पहला लक्ष्य ‘गरीबी का अंत’ है, लेकिन यह लक्ष्य केवल आर्थिक सूचकांकों से नहीं बल्कि मानवीय गरिमा की बहाली से मापा जाएगा। जब समाज गरीब परिवारों को संदेह की दृष्टि से नहीं बल्कि समानता और सम्मान की दृष्टि से देखने लगेगा, तभी गरीबी उन्मूलन की दिशा में वास्तविक प्रगति होगी। गरिमा, सम्मान और अवसर, ये केवल शब्द नहीं बल्कि मानव जीवन की आधारशिलाएं हैं। किसी भी सभ्य समाज की पहचान उसके सबसे कमजोर वर्ग के प्रति उसके व्यवहार से होती है। यदि हम गरीबी मिटाना चाहते हैं तो हमें उसके पीछे छिपे अपमान और असमानता के ढ़ांचों को तोड़ना होगा। परिवारों को सहयोग, विश्वास और अवसर देना ही गरीबी के विरुद्ध सबसे सशक्त हथियार है। सामाजिक और संस्थागत दुर्व्यवहार का अंत ही वास्तविक विकास की शुरुआत है क्योंकि जब हर परिवार सम्मानपूर्वक जी सकेगा, तभी मानवता वास्तव में समृद्ध कहलाएगी। (लेखक न्यूयॉर्क की कंपनी में सॉफ्टवेयर डवलपमेंट इंजीनियर हैं) ईएमएस / 16 अक्टूबर 25