*दो दशक बाद बिहार में सत्ता समीकरणों की नई पटकथा“छोटे दलों के सामने बड़े खिलाड़ी नतमस्तक,नीतीश की पकड़ ढीली,बीजेपी की चालें गहरी”* बिहार का यह पहला चुनाव होगा,जब लगातार बीस वर्षों तक सत्ता में रहने के बाद भी बीजेपी और जेडीयू - दोनों ही अपने अब तक के सबसे कम सीटों पर चुनाव लड़ने जा रही हैं। आप को बता दे कि सन 2003 में जदयू की स्थापना के बाद पार्टी ने 2005 में 138 सीटों पर,2010 में 141 सीटों पर,2015 में 101सीटों पर(राजद के साथ गठबंधन में),और 2020 में 115 सीटों पर बीजेपी के साथ चुनाव लड़ा था,लेकिन 2025 में यह संख्या घटकर करीब 84 सीटों तक सीमित रह गई है।यानी 20 वर्षों के शासन के बाद भी नीतीश कुमार की जदयू का सीट शेयरिंग अनुपात करीब 27% घट गया है।दूसरी ओर, बीजेपी जैसी राष्ट्रीय पार्टी को भी अपने सहयोगी दलों के दबाव में सीटों का त्याग करना पड़ा है।2005 में वह 101 सीटों, 2010 में 102, 2015 में जब नीतीश उनके साथ नहीं थे तो 157 सीटों पर उतरी,2020 में 110 सीटों पर और अब 2025 में फिर घटकर 101 सीटों पर आ गई है। येआंकडा दिखाता है कि सत्ता में साझेदारी का अनुपात कम होने के बावजूद,बिहार की राजनीति में जाति और क्षेत्रीय समीकरण आज भी निर्णायक हैं।बिहार की राजनीति का यह दिलचस्प पहलू है कि यहाँ राष्ट्रीय पार्टियाँ जातीय समीकरणों के आगे झुकती रही हैं।बीजेपी और जेडीयू को इस बार भी चिराग पासवान (एलजेपीरामविलास),जीतन राम मांझी(हम),उपेंद्र कुशवाहा(आरएलएम)और मुकेश सहनी (वीआईपी)जैसे छोटे लेकिन जाति- आधारित दलों से समझौता करना पड़ा है।इन सभी दलों ने अपनी-अपनी जातियों को राजनीतिक रूप से संगठित कर,एक ऐसा वोट बैंक बना लिया है जिसमें राष्ट्रीय पार्टियाँ सेंध नहीं लगा पाईं।यही कारण है कि बीजेपी और जेडीयू जैसी बड़ी पार्टियाँ इन्हें साथ रखे बिना सत्ता तक पहुँचने की कल्पना भी नहीं कर सकतीं।1990 के दशक में लालू प्रसाद यादव ने “जाति ही पहचान है” का जो नारा दिया था,उसने बिहार की राजनीति की दिशा ही बदल दी थी।आज भी बिहार में वही जातीय गणित सत्ता की चाबी तय करता है।बस चेहरे बदल गए हैं, लेकिन जाति का समीकरण जस का तस कायम है।1995 के बाद से बिहार की राजनीति में जो स्थायी पैटर्न उभरकर आया है,यहाँ मुकाबला दो दलों के बीच नहीं बल्कि दो गठबंधनों के बीच होता है।2020 के विधानसभा चुनाव के नतीजे इसका प्रमाण हैं - राजद को मिले 23.1% वोट,भाजपा को 19.5%,जदयू को 15.4%, कांग्रेस को 9.5% वोट,जबकि छोटे दलों ने मिलकर 23.9% वोट बटोरे।यह आँकड़ा बताता है कि छोटे दल भले अकेले सत्ता में न आएँ,लेकिन बड़े दलों का खेल जरूर बिगाड़ देते हैं।वे बिखरे हुए वोटों को जोड़कर किसी गठबंधन को बढ़त दिला सकते हैं।यही वजह है कि बिहार की राजनीति में छोटे क्षेत्रीय दल “किंगमेकर” बन चुके हैं।छोटे दल,बड़ी भूमिका-जाति के गणित से सत्ता की रचना चिराग पासवान की एलजेपी (रामविलास)दलितों और विशेषकर पासवान समुदाय की राजनीतिक आवाज़ है।जीतन राम मांझी की ‘हम’(हिंदुस्तानी अवाम मोर्चा)मुसहर और अनुसूचित जातियों के बीच प्रभाव रखती है।उपेंद्र कुशवाहा की ‘आरएलएम ’(राष्ट्रीय लोक जनशक्तिमोर्चा) कोइरी- कुशवाहा वर्ग की आवाज़ है,तो मुकेश सहनी की ‘वीआईपी’ निषाद समाज का प्रतिनिधित्व करती है।इन चारों नेताओं ने अपनी जातियों को राजनीतिक चेतना दी,और यही चेतना अब गठबंधन की अनिवार्यता बन गई है।बीजेपी और जेडीयू के रणनीतिकारों को यह पता है कि बिना इन जातीय दलों के,वोटों का अंकगणित जीत में तब्दील नहीं हो सकता।बीजेपी ने इस बार बहुत खामोशी और चालाकी से बिहार में अपनी राजनीतिक बिसात बिछाई है।उसने नीतीश कुमार को छह इंच छोटा कर दिया -यानी जदयू की सीटें घटाईं,और अपने सहयोगियों को ऐसी स्थिति में ला दिया कि वे दो- तीन सीटों से ज़्यादा न जीत पाएं, ताकि बाद में उनके साथ समझौता आसान हो।बीजेपी ने संजय झा जैसे नेताओं के ज़रिए जदयू में सेंध भी लगा दी है।अब स्थिति यह है कि उम्मीदवार चयन में भी बीजेपी का अंतिम फैसला होगा।यानी चुनाव के बाद अगर जेडीयू सत्ता में रहती भी है,तो उसका नियंत्रण नीतीश कुमार के नहीं,बल्कि बीजेपी के हाथों में होगा।नीतीश के पास तब दल बदलने की भी हैसियत नहीं बचेगी, क्योंकि उनके अधिकांश सांसद पहले से ही बीजेपी के संपर्क में बताए जाते हैं।यहाँ तक कि केंद्र सरकार पर भी नीतीश का कोई दबाव नहीं रह जाएगा।मोदी के हनुमान या नीतीश के शत्रु बीजेपी ने इस चुनाव में चिराग पासवान को 29 सीटें दी हैं राजनीतिक सूत्रों के अनुसार इनमें से 8 से 10 उम्मीदवार बीजेपी के अपने होंगे,जो एलजेपी के चुनाव- चिह्न पर लड़ेंगे।यानी चिराग के कंधे पर बैठकर बीजेपी अपनी चाल चल रही है।चुनाव के बाद वही एलजेपी के टिकट वाले विधायक बीजेपी के पाले में जा सकते हैं,जिससे नीतीश कुमार की स्थिति कमजोर और बीजेपी की मुख्यमंत्री पद की दावेदारी मजबूत हो जाएगी।यह ठीक वैसा ही परिदृश्य होगा जैसा महाराष्ट्र में शिंदे-बालासाहेब गुट के उभार के समय हुआ था।राजनीतिक विश्लेषक मानते हैं कि अगर बीजेपी को स्पष्ट बहुमत नहीं मिला तो वह एलजेपी और हम जैसी पार्टियों के सहारे सत्ता का चेहरा बदल सकती है,और नीतीश कुमार को ‘शिंदे’ जैसा हाशिये पर पहुँचा सकती है । नीतीश की राजनीतिक आत्मघात या मजबूरी का गठबंधन -नीतीश कुमार के राजनीतिक यात्रा में यू-टर्न लेना नई बात नहीं,लेकिन 2025 का चुनाव उनके करियर का शायद सबसे जोखिम भरा मोड़ है।उन्होंने सत्ता में बने रहने के लिए बार-बार गठबंधन बदले,लेकिन इस बार गठबंधन ने उन्हें बदल दिया है।बीजेपी के साथ रहते हुए अब वे मुख्यमंत्री पद के प्रतीक मात्र बनते जा रहे हैं।पार्टी की सीटें घट गईं, संगठन में मतभेद बढ़े और उनके करीबी नेता तक बीजेपी के संपर्क में बताए जा रहे हैं।नीतीश अब उस स्थिति में हैं कि अगर वे असंतुष्ट भी हों,तो सुशासन बाबु के हाथ में कुछ नही लगेगें।वे ना तोगठबंधन तोड़ सकते हैं,ना ही अपना दबाव बना सकते हैं।देश की राजनीति अब पूरी तरह मोदी के नाम और चेहरे पर केंद्रित हो चुकी है,लेकिन बिहार अब भी जातीय पहचान की राजनीति से मुक्त नहीं हुआ है।बीजेपी काराष्ट्रवाद और“एक रंग”वालीराजनीति,बिहार के बहुरंगी जातिगत समीकरणों से बार-बार टकराती है।मोदी-शाह की रणनीति यह है कि बिहार को धीरे- धीरे जाति की जकड़ से निकालकर राष्ट्रीय एजेंडे में लाया जाए,लेकिन राजनीतिक व्यवहार में यह अभी संभव नहीं दिखता।क्योंकि बिहार का वोटर विकास के साथ-साथ जाति और मान-सम्मान के सवाल को भी मतदान का आधार बनाता है।एकता में दरारें और नेतृत्व का संकट-अगर हम विपक्षी खेमे की बात करें तो महागठबंधन में भी एकता का संकट कम नहीं।राजद, कांग्रेस,वामदल और अन्य छोटे दलों के बीच सीट बंटवारे और नेतृत्व पर मतभेद गहराते जा रहे हैं।तेजस्वी यादव के नेतृत्व को लेकर कांग्रेस और वामपंथी दलों में हिचक है, जबकि कांग्रेस खुद संगठनात्मक रूप से कमजोर है।हालाँकि महा गठबंधन का वोटबैंक अब भी लगभग 45 प्रतिशत के आसपास माना जाता है,लेकिन अगर सीटों पर तालमेल बिगड़ा तो इसका सीधा लाभ एनडीए को मिलेगा।जाति जितनी मजबूत,सत्ता में उतनी धमक मजबूत-बिहार की राजनीति का यह निष्कर्ष बार-बार दोहराया जा सकता है कि“जाति जितनी मजबूत, सत्ता में उतनी धमक मजबूत।”आज के बिहार में कोई भी पार्टी जातिगत समीकरणों की उपेक्षा कर चुनाव नहीं जीत सकती।बीजेपी के पास मोदी का चेहरा है,राजद के पास लालू-तेजस्वी की सामाजिक समीकरण की पूँजी,और जदयू के पास अब भी ‘सुशासन बाबू’ का चेहरा,लेकिन निर्णायक शक्ति उन्हीं छोटे दलों के पास है जो जातियों को संगठित वोट बैंक में बदल चुके हैं।संक्षेष में बिहार का नया राजनीतिक युग2025 का बिहार विधानसभा चुनाव केवल सत्ता का नहीं,बल्कि सत्ता की साझेदारी और नियंत्रण का चुनाव है।यह चुनाव तय करेगा कि क्या नीतीश कुमार अपनी राजनीतिक प्रासंगिकता बचा पाएंगे, या फिर बीजेपी अपनी चालों से बिहार की सत्ता पर पूर्ण नियंत्रण हासिल कर लेगी।बिहार का यह चुनाव यह भी दिखाएगा कि क्या मोदी का राष्ट्रवाद जातीय राजनीति को मात दे पाएगा,या फिर बिहार एक बार फिर यह साबित करेगा कि यहाँ सत्ता की चाबी जाति के पास ही रहती है।बिहार की राजनीति का यह संदेश साफ़ है कि यहाँ के छोटे दल भले आकार में छोटे हों,पर प्रभाव में बड़े हैं।और इस बार,बिहार का मतदाता तय करेगा कि सत्ता की डोर दिल्ली की मंशा से चलेगी या पटना की मिट्टी से ये अभी अतीत के गर्भ में है,जिसकी असली चाबी मतदाताओं के पास है। (लेखक स्वतंत्र पत्रकार व स्तम्भकार है) ईएमएस/17/10/2025