धरती की सांसें और हमारी दीवाली (दीवाली पर विशेष) दीवाली, उजालों का त्योहार, खुशियों का स्वागत! लेकिन जब यही जश्न हमारी सांसों को घुटन से भर दे और हमारे वातावरण को जहर बना दे, तब सवाल उठना लाजिमी है कि क्या हम सच में रोशनी फैला रहे हैं या अंधकार को और गहरा कर रहे हैं। भारत में सदियों से दीयों की झिलमिलाती रोशनी और हल्की आतिशबाजी के साथ दीपोत्सव मनाने की परंपरा रही है। यह पर्व अच्छाई की विजय, प्रकाश की महिमा और सकारात्मक ऊर्जा का प्रतीक है परंतु पिछले कुछ दशकों में इसका स्वरूप इस कदर बदल गया है कि अब यह ‘आतिशबाजी का युद्ध’ प्रतीत होता है। वह उत्सव, जो कभी शांति और प्रकाश की अनुभूति देता था, आज शोर, धुएं और प्रदूषण का प्रतीक बन चुका है। बारूद से लबालब पटाखों की चमक पलभर में न केवल जान-माल का खतरा पैदा करती है बल्कि वायु, ध्वनि और मिट्टी तीनों को गहराई से प्रदूषित करती है। इन पटाखों में बेरियम, सीसा, गंधक और कॉपर जैसे रासायनिक तत्व होते हैं, जो फूटने के बाद घंटों तक वातावरण में तैरते रहते हैं। बेरियम रेडियोधर्मी और विषैला होता है, कॉपर कैंसर का खतरा बढ़ाता है और गंधक श्वसन तंत्र को नष्ट करता है। सल्फर डाइऑक्साइड, नाइट्रोजन ऑक्साइड और कार्बन मोनोऑक्साइड जैसी जहरीली गैसें न केवल फेफड़ों और दिल पर असर डालती हैं बल्कि बच्चों और बुजुर्गों के लिए जानलेवा साबित होती हैं। ध्वनि प्रदूषण भी किसी हथियार से कम नहीं। कई जगहों पर पटाखों की आवाज 130 से 150 डेसीबल तक पहुंच जाती है, जो कानों की सीमा से कहीं ऊपर है। इसका सीधा असर नींद, तनाव, हृदय की गति और मानसिक स्वास्थ्य पर पड़ता है। यह केवल मनुष्यों को नहीं बल्कि पशु-पक्षियों और पालतू जानवरों को भी भयभीत कर देता है। कई शोध बताते हैं कि पटाखों की तीव्र ध्वनि पशुओं की सुनने की क्षमता को स्थायी नुकसान पहुंचाती है। प्रदूषण के इस असर ने पुरुषों के प्रजनन स्वास्थ्य को भी प्रभावित किया है। विशेषज्ञों के अनुसार, वायु प्रदूषण के कारण शुक्राणुओं की संख्या में 40 प्रतिशत तक गिरावट दर्ज की गई है। जब हर दसवां भारतीय अस्थमा से जूझ रहा हो और हवा गर्भस्थ शिशु तक के लिए विष बन चुकी हो, तब एक रात की यह आतिशबाजी केवल असंवेदनशीलता का प्रतीक बन जाती है। सुप्रीम कोर्ट ने इस गंभीर स्थिति पर हाल ही में एक ऐतिहासिक फैसला सुनाया है। अदालत ने स्पष्ट कहा कि प्रदूषण नियंत्रण केवल दिल्ली या एनसीआर की समस्या नहीं बल्कि पूरे देश का दायित्व है। इस वर्ष केवल एनईईआरआई द्वारा प्रमाणित ‘हरित पटाखों’ की अनुमति दी गई है, जिनमें बेरियम, सीसा या आर्सेनिक जैसे जहरीले रसायन नहीं होंगे। प्रत्येक पैकेट पर क्यूआर कोड अनिवार्य होगा ताकि नकली या विषैले पटाखों की बिक्री पर अंकुश लगाया जा सके। साथ ही, अदालत ने दीवाली पर पटाखे चलाने के लिए एक निश्चित समय तय किया है। ऑनलाइन बिक्री को पूरी तरह प्रतिबंधित किया गया है और आदेश उल्लंघन पर लाइसेंस रद्द करने व स्टॉक जब्त करने की चेतावनी दी गई है। परंतु अदालत के आदेश तभी सार्थक होंगे, जब नागरिक अपने हिस्से की जिम्मेदारी निभाएं। पर्यावरण संरक्षण केवल कानून का नहीं, चेतना का विषय है। जब तक लोग स्वयं संवेदनशील नहीं होंगे, कोई भी नीति या न्यायालय पृथ्वी को नहीं बचा सकते। दीवाली की असली सुंदरता पटाखों के धमाकों में नहीं, दीयों की रोशनी में है, वह रोशनी, जो हमारे घर, मन और समाज को प्रकाशित करती है। आज यह पर्व, जो कभी स्वच्छता और सादगी का प्रतीक था, अब कचरे और धुएं में डूबता जा रहा है। यह कैसी दीवाली है, जो हमारी सांसें छीन लेती है? अब समय है कि हम अपनी परंपराओं को आधुनिक विवेक से जोड़ें। यदि आतिशबाजी करनी ही है तो केवल हरित पटाखों का सीमित प्रयोग करें। अपने घरों और गलियों को दीयों की रोशनी से सजाएं, एक-एक पौधा लगाएं और बच्चों को सिखाएं कि असली उजाला वही है, जो जीवन को बचाए, न कि उसे धुएं में डुबो दे। दुनिया के कई देशों में त्योहारों के साथ पर्यावरणीय जिम्मेदारी जुड़ी होती है। ऑस्ट्रेलिया में दिसंबर में एक उत्सव पर हर परिवार आतिशबाजी के साथ एक पौधा भी लगाता है, यह छोटी-सी परंपरा गहरे संदेश देती है। भारत भी ऐसा कर सकता है, जहां उत्सव और पर्यावरण का संतुलन साथ चले। आज जब दिल्ली सहित देश के कई अन्य शहरों की हवा पहले से ही जहरीली हो चुकी है, हमें यह स्वीकार करना होगा कि एक रात का आनंद आने वाली पीढ़ियों के भविष्य से बड़ा नहीं हो सकता। हमें अपने बच्चों को ऐसी दीवाली देनी है, जो सिर्फ आंखों को नहीं, दिलों को भी उजाला दे। दीवाली दीयों की हो, धमाकों की नहीं क्योंकि असली रोशनी वही है, जो प्रकाश के साथ करुणा और जिम्मेदारी का संदेश फैलाती है। (लेखक साढ़े तीन दशक से पत्रकारिता में निरंतर सक्रिय वरिष्ठ पत्रकार हैं) ईएएमएस/1910/2025