लेख
19-Oct-2025
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-  सोने के दाम 3 गुना बढ़े, सरकार पसीना-पसीना मोदी सरकार ने सोवरेन गोल्ड बांड के नाम से एक महत्वाकांक्षी योजना 2015 में शुरू की थी। सोवरेन गोल्ड बॉन्ड स्कीम (एसजीबी) का उद्देश्य था, जनता को प्रत्यक्ष सोने की खरीद से रोकना और उन्हें “पेपर गोल्ड” यानी सोने के स्थान पर सोने के सरकारी बॉन्ड में निवेश के लिए प्रोत्साहित किया जाए। सरकार का तर्क था, इससे न केवल देश की विदेशी मुद्रा का भंडार बचेगा, बल्कि सोने के आयात पर भारत की निर्भरता भी कम होगी। आज, वही स्कीम सरकार के गले का फंदा बन चुकी है। सरकार ने सोचा भी नहीं था, उसे गोल्ड बॉन्ड के रूप में इस तरह के दिन देखने पड़ेंगे। सरकार ने निवेशकों को सोवरेन गोल्ड बॉन्ड का भरोसा दिलाते हुए कहा था, गोल्ड बॉन्ड लेने पर सालाना 2.5 प्रतिशत ब्याज के साथ बांड की अवधि पूरे होने पर सोने की बाजार   कीमत का लाभ  जोड़कर भुगतान किया जाएगा। जब योजना शुरू हुई थी, उस वक्त 2015 में सोना लगभग 35,000 रूपये प्रति 10 ग्राम था।  2025 में सोने की कीमत 1.3 लाख रुपये प्रति 10 ग्राम के ऊपर पहुंच चुकी है। 2015 से 2024 तक सरकार हर साल बांड निकालती रही। बड़े पैमाने पर निवेशक गोल्ड बांड मे निवेश करते चले जा रहे थे। बाँड को खरीदते समय सोने की जो कीमत थी सरकार को निवेशक को उतनी ही मूल्य के सोने की राशि को वापस  करना है। सरकार ने पिछले 9 वर्ष में हर साल बांड बेचे। उसके एवज में सरकार ने सोना सरकारी खजाने के लिए नहीं खरीदा। अब भुगतान के लिए सोने की वर्तमान कीमत पर सरकार को भुगतान करना पड़ रहा है। सरकार के खजाने से हर साल एक बहुत बड़ी राशि गोल्ड बांड के निवेशकों को भुगतान करना पड़ रही है। सरकार जिसको बेहतर स्कीम एवं “सस्ता सौदा” मान रही थी, वही बांड अब सरकार के खजाने की कमर तोड़ रहा है। रिजर्व बैंक ऑफ़ इंडिया  के आंकड़े बताते हैं, अभी तक जारी गोल्ड बॉन्ड्स में सोने की कुल मात्रा 126 टन सोने के बराबर है। जिसकी मौजूदा बाजार में कीमत लगभग 1.5 लाख करोड़ रुपये से अधिक पहुंच चुकी है। इस सोने की राशि के साथ सरकार को हर साल करीब 3,700 करोड़ रुपये ब्याज के रूप में गोल्ड बॉन्ड के निवेशकों को चुकाने पड़ रहे हैं। यह पूरी राशि केंद्र सरकार के ऊपर बजट की लायबिलिटी बन गई है। सरकार ने इसे बजट में शामिल नहीं किया था, जिसके कारण सरकार की मुसीबत और भी बढ़ गई है। सरकार को अब टैक्स के रूप में वसूल की गई राशि में से गोल्ड बाँन्ड का भुगतान करना पड़ेगा। जिस तरह से सरकार के ऊपर आर्थिक संकट गहराता जा रहा है। ऐसे समय पर सरकारी खजाने के ऊपर इतना बड़ा बोझ सरकार की मुश्किलों को बढ़ा रहा है। केंद्र सरकार की समस्या ब्याज से नहीं है, बल्कि अंतरराष्ट्रीय स्तर पर सोने  की अप्रत्याशित मूल्य वृद्धि से हुई है। सरकार ने यह अनुमान नहीं लगाया था। सोने की कीमत में दस वर्षों में तीन गुना से ज्यादा की वृद्धि हो जाएगी। जैसे-जैसे बॉन्ड्स की मियाद पूरी हो रही है, सरकार को भारी-भरकम भुगतान निवेशकों को करना पड़ रहा है। आने वाले वर्षों में जिस तरह से सोने की कीमतें बढ़ेंगी निवेशकों को उसी अनुपात में भुगतान करना पड़ेगा। जिसके कारण आने वाले सालों में भी सरकार की परेशानी कम होने के स्थान पर बढ़ने वाली है। हालांकि केंद्र सरकार ने 2024 में इस योजना को खामोशी के साथ बंद कर दिया है। गोल्ड बॉन्ड योजना में जितना निवेश हुआ था, उसी में सरकार को भारी नुकसान उठाना पड़ रहा है। यह एक ऐसी योजना थी, जो सोने के आयात को घटाने और जनता को सोने का वैकल्पिक निवेश देने की योजना बनाई गई थी। जो पूरी तरह से विफल साबित हुई है। ऐसा लगता है कि सरकार ने इस बारे में भविष्य को ध्यान में रखते हुए सोच-विचार नहीं किया था। वित्त मंत्रालय के लिए गोल्ड बॉन्ड योजना अब भारी  सिरदर्द बन चुकी है। सच्चाई यह है,  “पेपर गोल्ड” का यह सपना निवेशकों के लिए काफी बेहतर साबित हुआ है। सरकार को इसकी बड़ी कीमत चुकानी पड़ रही है। सरकार को क्या कहें, यह जनता से टैक्स के रूप में वसूल की गई राशि से भुगतान किया जा रहा है। जिसके कारण भविष्य में और भी टैक्स बढ़ाने की संभावना से इनकार नहीं किया जा सकता है। आर्थिक विशेषज्ञों का मानना है, यह योजना सरकार की दूरदर्शिता मे कमी और गलत वित्तीय आकलन का नतीजा है। जिस योजना से देश को लाभ होना था, वही अब जनता के लिए टैक्स पर बोझ बन गई है। उस समय यदि सोना आयात किया जाता। निवेशक स्वयं की पूंजी से सोना आयात करते, भारत में सोने का एक बड़ा भंडार आम जनता के पास होता। इस योजना से सरकार को दोहरा नुकसान हुआ है। गोल्ड बॉन्ड स्कीम से सरकार को सबक लेना चाहिए। अर्थ से जुड़े निर्णय विशेषज्ञों की सहायता से ही लिए जाने चाहिए। सोच विचार कर यदि योजनाएं बनाई जाती हैं तो उसका परिणाम सार्थक होता है। यह अकेले गोल्ड बॉन्ड की विफलता का मामला नहीं है, सरकार ने जिस तरह से नोटबंदी की थी उसके दुष्परिणाम आज तक देखने को मिल रहे हैं। जीएसटी भी जिस जल्दबाजी मे लागू किया गया था उसके दुष्परिणाम भी भारतीय अर्थव्यवस्था में देखने को मिल रहे हैं। जीएसटी को लागू हुई अभी 3000 दिन हुए हैं। मात्र इतने दिनों में 1500 से ज्यादा जीएसटी कानून में संशोधन हो चुके हैं। जिसके कारण पिछले 10 वर्षों में भारत की अर्थव्यवस्था तमाम उपलब्धियां के बाद भी निचले स्तर पर जाती हुई दिख रही है। किसी भी आर्थिक नीति को पढ़े-लिखे, अनुभवी और दूरदर्शी नेतृत्व द्वारा बहुत सोच-समझकर बनाने और लागू करने की  आवश्यकता होती है। भारत में जिस ताबड़तोड़ तरीके से आर्थिक नीतियां लागू की गई हैं उसके दुष्परिणाम एक-एक करके अब सामने आने लगे हैं। वर्तमान सरकार को आर्थिक मामलों में गंभीरता से विचार करना होगा, अन्यथा कभी भी देश की अर्थव्यवस्था आर्थिक मंदी का शिकार हो सकती है। ईएमएस / 19 अक्टूबर 25