लेख
22-Oct-2025
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(विश्व हिम तेंदुआ दिवस 23 अक्टूबर 2025) वन्य जीवों के प्रति हमारी संवेदनाएं मृत होती जा रहीं हैं, टाइगर, तेंदुआ, शेर जैसे जानवरों के लिए हमने जंगलों को छोड़ा नहीं है, यही कारण है कि आज विशाल जनावर कभी - कभी मानव बस्तियों में घुस पड़ते हैं, हमें समझना चाहिए कि जानवर शहरों, गांवों में घूमने नहीं आते बल्कि भूख से भटकते घुस पड़ते हैं, अब चूंकि उनके जंगल हमने ख़त्म कर दिए हैं l यही कारण है कि विश्व मैरीटाइम दिवस, जिसे अंतर्राष्ट्रीय हिम तेंदुआ दिवस के रूप में भी जाना जाता है, दुनिया की सबसे मायावी और लुप्तप्राय हिम तेंदुआ और उनके प्राकृतिक आवास के संरक्षण के बारे में जागरूकता बढ़ाने के लिए 23 अक्टूबर को दुनिया भर में मनाया जाता है। आज जंगलों में 3,500 से 7,000 हिम तेंदुए रह गए हैं; इनकी सही संख्या अज्ञात है, क्योंकि वे अत्यंत दुर्लभ हैं तथा उनका सर्वेक्षण करना कठिन है। ये जानवर दक्षिणी साइबेरिया से तिब्बती पठार तक, भारत सहित 12 देशों में गुप्त और विरल रूप से वितरित हैं। हिम तेंदुए अपनी खाल और हड्डियों के लिए अवैध शिकारियों के शिकार होते हैं, जो काले बाजार में बहुत महंगे होते हैं। चीन के बाजारों में भेजे जाने वाले वन्यजीव अंगों के अवैध शिपमेंट में अक्सर हिम तेंदुओं की खालें और हड्डियाँ पकड़ी जाती हैं। 2005 में एक ही घटना में, मंगोलिया-चीन सीमा पार से 13 हिम तेंदुओं की खालें पकड़ी गईं। 2003-2008 के बीच चीनी बाजारों में 60 से ज्यादा हिम तेंदुओं की खालें पकड़ी गईं। चीन, हिम तेंदुओं के रहने वाले 11 अन्य देशों में से 10 के साथ सीमा साझा करता है। हिम तेंदुए के इलाके में, लोग अभी भी पशुओं को चराकर अपना जीवन यापन करते हैं। जब हिम तेंदुए उनके पशुओं पर हमला करते हैं, तो लोग गुस्से में आकर उन्हें मार देते हैं। इससे हिम तेंदुओं की संख्या कम हो रही है। जंगली पहाड़ी भेड़ों और बकरियों का शिकार करने से हिम तेंदुओं के खाने के लिए कम भोजन बचा है, जिससे वे पालतू पशुओं पर हमला करने लगते हैं। 2009 में हुए एक सर्वेक्षण के अनुसार, मंगोलिया में केवल 9,100 अर्गाली बचे हैं, जो 2001 में 13,000 और 1985 में 60,000 से कम है। इसका मतलब है कि हिम तेंदुओं के लिए भोजन की कमी हो रही है। अफ़ग़ानिस्तान, पाकिस्तान और भारत में चल रहे युद्धों का हिम तेंदुओं पर बहुत बुरा असर पड़ रहा है। हिम तेंदुओं की खालें अक्सर काबुल, पेशावर और अन्य शहरों के बाजारों में बिकती हैं, जिससे विद्रोहियों को पैसे मिलते हैं। इससे हिम तेंदुओं की संख्या कम हो रही है। ये तो समस्याएं हुईं परंतु सभी जागरूक लोग लोगों को जागरूक करें एवं साझा प्रयास करें तो इस दुर्लभ प्रजाति को बचाया जा सकता है l जब हिम तेंदुए और इंसान एक ही इलाके में रहते हैं, तो अक्सर झगड़े होते हैं। लेकिन अगर हम इस समस्या का समाधान ढूंढें, तो दोनों ही शांति से रह सकते हैं। मजबूत राष्ट्रीय संरक्षण नीतियां, अधिक जागरूकता, तथा जनता, संगठनों और सरकार का सहयोग, ऐसे समुदाय के निर्माण में मदद कर सकता है जो इन सुंदर प्राणियों की रक्षा कर सके । बेहतर पशुपालन की योजना बनाकर, शिकारियों से सुरक्षित बाड़ों का निर्माण करके, जंगली शिकार के भंडार को बहाल करके तथा तेंदुए के हमलों के कारण होने वाले आर्थिक नुकसान की भरपाई करके पशुधन पर हमले से बचा जा सकता है। आय बढ़ाने और हिम तेंदुओं के प्रति स्थानीय प्रशंसा बढ़ाने के लिए इकोटूरिज्म और होम-स्टे को प्रोत्साहित करना। यह भारत के लद्दाख में विशेष रूप से सफल रहा है और इसमें हिम तेंदुओं के बड़े क्षेत्र के लिए महत्वपूर्ण संभावनाएँ हैं। लद्दाख में पहले हिम तेंदुआ गांवों में आकर भेड़ बकरियों को खा जाते थे, आर्थिक नुकसान करते थे, लेकिन अब हिम तेंदुआ को लोग बचाते हैं और उन्हें गांव की पहचान व शान समझते हैं। यह बदलाव स्कूली बच्चों से लेकर युवा, वयस्क, चरवाहे, महिला और बौद्ध धर्मगुरु इत्यादि सबकी भागीदारी से संभव हुआ है। हिम तेंदुआ को बचाने की शुरूआत दो दशक पहले हुई थी। सबसे पहले हिम तेंदुआ व वन्य जीवों के संरक्षण के लिए एक ट्रस्ट बनाया गया था। इसका नाम स्नो लेपर्ड कंजरवेंसी इंडिया ट्रस्ट (एसएलसी-आईटी) है, जो वर्ष 2003 में बना था। इसके सहसंस्थापक रिनचेन वांगचुक थे, जो एक लद्दाखी प्रकृतिवादी और पर्वतारोही थे। यह ट्रस्ट प्रकृति व हिम तेंदुआ के संरक्षण में जुटा हुआ है। यह ट्रस्ट स्थानीय लोगों के साथ मिलकर लुप्त होती प्रजाति हिम तेंदुआ को बचाने में लगा है। कुल मिलाकर इससे हिम तेंदुआ. वन्य जीव व प्रकृति के संरक्षण के साथ समुदायों की आजीविका की भी रक्षा हो रही है। बड़े पैमाने पर हिम तेंदुआ को मारने की समस्या पर रोक लगी है और मनुष्य व जानवर में संघर्ष में भी कमी आई है। हिम तेंदुआ के प्रति व्यवहार में परिवर्तन आया है, अब वह विनाशकारी जानवर से पर्यटन के लिए आकर्षण का केन्द्र बन गया है। वन्य जीवों की सुरक्षा व संरक्षण स्थानीय समुदायों की भागीदारी से की जा सकती है, जो लद्दाख की इस पहल ने कर दिखाया है। विशेषकर, पहाड़ी इलाकों के संदर्भ में यह पहल और भी महत्वपूर्ण व जरूरी हो जाती है, क्योंकि पहाड़ों में सीधे निगरानी करना संभव नहीं होता, यहां तो स्थानीय समुदाय ही निगरानी व संरक्षण कर सकते हैं। लद्दाख से पूरी दुनिया को सबक लेना चाहिए अगर दृष्टि बदल ली जाए तो सृष्टि बदल सकती है (लेखक पत्रकार हैं) ईएमएस/ 22 अक्टूबर 25