लेख
22-Oct-2025
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दुनियां आज उस दौर से गुजर रही है, जहां चारों ओर बारुद के ढेर पर खड़े होकर आग का तमाशा दिखाने और देखने वालों का मजमा लगा हुआ है। ऐसे में शांतिप्रिय देशों और उनके लीडरों को आगे आना चाहिए, ताकि तृतीय विश्वयुद्ध की आशंकाओं से दुनियां को बाहर निकाला जा सके। यह अलग बात है कि जो देश और लीडर शांति स्थापित करने में अहम भूमिका अदा कर सकते हैं वो भी किसी न किसी रुप में युद्ध में उलझे नजर आते हैं। चिंता की बात तो यह भी है, कि जो शक्तिसंपन्न राष्ट्र हैं वो भी बात तो शांति की करते हैं, लेकिन युद्ध को जारी रखने और ज्यादा भयावह बनाने के लिए जरुरत से ज्यादा जंग का साजो-सामान मुहैया कराने से गुरेज भी नहीं कर रहे हैं। नतीजा यह, कि विकासशील और अविकसित छोटे-छोटे देश भी कर्ज लेकर खुद को सामरिक तौर पर मजबूत बनाने में लगे हुए हैं। इस स्थिति में शांति के साथ दुनियां को बेहतर भविष्य देने वालों का हाल क्या होगा, आसानी से समझा जा सकता है। यहां यह नहीं भूलना चाहिए कि बारुद के ढेर को उड़ाने के लिए माचिस की एक तिली ही काफी होती है, लेकिन उस आग को काबू पाने में तमाम कोशिशें नाकाम साबित हो जाती हैं। इसलिए बारुद का ढेर बनाने और उस पर नाचने वालों को रोकना होगा। इसके लिए सबसे पहले जरुरी हो जाता है कि पड़ोसी मुल्क जंग में उतरने की बजाय मानवता के नाम पर शांति और सहअस्तित्व को अपनाते हुए शांतिपथ पर अग्रसर हों। फिर चाहे वह रुस और यूक्रेन की जंग हो या फिर गाजा में इजराइल और हमास के बीच शांति समझौते के बाद हो रहे हमले हों, इन्हें रुकना ही चाहिए। जहां तक पाकिस्तान और अफगानिस्तान के बीच जारी संघर्ष की बात है तो इसे भी समय रहते रोका जाना चाहिए, क्योंकि इसकी आंच पड़ोसी देशों तक पहुंचने में देर नहीं करेगी। राहत की बात यह है, कि हाल ही में हुए खूनी संघर्ष के बाद दोनों देशों ने एक अस्थायी युद्धविराम (सीजफायर) पर सहमति तो बना ली है, लेकिन यह समझौता उतना ही कमजोर और अस्थिर है जितनी कि किसी नाजुक डोर पर तेज हवा में अठखेलियां करती पतंग। पाकिस्तान ने खुद स्वीकार किया है कि यह सीजफायर बहुत नाजुक लाइन पर टिका हुआ है। वहीं अफगानिस्तान ने साफ शब्दों में कहा है, कि पाकिस्तान अपने ही राजनीतिक विरोधियों को आतंकवादी कहकर बदनाम करता है और अपने अंदर झांकने को तैयार नहीं है। दरअसल, इस्लामाबाद और काबुल के बीच का समझौता तुर्की और कतर की मध्यस्थता में हुआ, जिसमें यह तय हुआ कि दोनों देश एक-दूसरे की सीमाओं का उल्लंघन नहीं करेंगे और किसी भी प्रकार की घुसपैठ को रोकेंगे। इस समझौते के बाद पाकिस्तान के रक्षा मंत्री ख्वाजा आसिफ ने कहा, कि यह सीजफायर तभी कायम रहेगा जब अफगान की तालिबान सरकार पाकिस्तान पर हमला करने वाले समूहों पर सख्ती से लगाम लगाएगी। उन्होंने चेतावनी भरे लहजे में कहा, अफगानिस्तान से आने वाली कोई भी चीज इस समझौते का उल्लंघन होगी। सब कुछ इसी एक लाइन पर टिका है। कुल मिलाकर ख्वाजा आसिफ का यह बयान बताता है कि पाकिस्तान को तालिबान पर भरोसा नहीं है। एक वजह यह हो सकती है कि पाकिस्तान डरा हुआ है, कि अफगानिस्तान की जमीन का इस्तेमाल उसके खिलाफ करने की साजिशें फिर से शुरू हो सकती हैं। खासकर पाकिस्तान तहरीक-ए-तालिबान (टीटीपी) जैसे संगठन, जो वर्षों से इस्लामाबाद के लिए सिरदर्द बने हुए हैं, उनकी गतिविधियों पर पाकिस्तान की चिंता लाजमी है। दूसरी ओर, अफगानिस्तान ने भी पाकिस्तान को करारा जवाब दिया है। अफगानिस्तान के रक्षा मंत्री मोहम्मद याकूब मुजाहिद ने चेताते हुए कहा, सभी पक्षों को समझौते के हर प्रावधान का पालन करना चाहिए। उन्होंने स्पष्ट कहा, काबुल इन शर्तों के प्रति पूरी तरह प्रतिबद्ध है, लेकिन अगर पाकिस्तान अपने दायित्वों को पूरा नहीं करता है, तो इससे समस्याएं पैदा होंगी। यह अलग बात है कि याकूब ने मध्यस्थ देशों तुर्की और कतर से इस समझौते के प्रभावी क्रियान्वयन में मदद करने की भी अपील कर दी है। इसका मतलब साफ है कि अफगानिस्तान नहीं चाहता कि संघर्ष हो और खून-खराबे की नौबत आए। वैसे भी अफगानिस्तान दशकों से युद्ध की विभीषिका को झेलता आया है, ऐसे में अब वह शांति के साथ आगे बढ़ना और बेहतर जिंदगी को तलाशना चाहता है। इसलिए अफगान मंत्री ने पाकिस्तान के उस आरोप को भी सिरे से खारिज किया, कि भारत, अफगानिस्तान की जमीन का इस्तेमाल पाकिस्तान के खिलाफ करता है। उन्होंने कहा कि ये सभी दावे बेबुनियाद और निराधार हैं। इस संबंध में याकूब मुजाहिद का कहना था, कि हमारी नीति कभी भी अपने क्षेत्र का उपयोग किसी अन्य देश के खिलाफ करने की नहीं रही है। हम भारत सहित सभी देशों के साथ स्वतंत्र राष्ट्र के रूप में संबंध बनाए रखना चाहते हैं। हमारा उद्देश्य संबंधों का विस्तार करना है, तनाव पैदा करना नहीं। बहरहाल पाकिस्तान जहां लगातार अफगानिस्तान पर आतंकियों को शरण देने का आरोप लगाता आया है, वहीं अफगानिस्तान का मानना है कि पाकिस्तान खुद अपनी घरेलू असफलताओं का दोष दूसरों पर मढ़ता है। दरअसल, तालिबान के सत्ता में आने के बाद से अफगानिस्तान ने खुद को एक स्वतंत्र और संप्रभु राष्ट्र के रूप में स्थापित करने की कोशिश की है। वहीं पाकिस्तान, जो लंबे समय तक अफगान मामलों में मददगार की भूमिका निभाता आया है, अब खुद को धीरे-धीरे हाशिए पर महसूस करने लगा है। यही कारण है कि दोनों देशों के बीच रिश्ते बेहद संवेदनशील और अविश्वास के धरातल पर टिके हुए हैं। सीजफायर का यह समझौता फिलहाल क्षेत्र में शांति की एक क्षणिक उम्मीद बनकर जरूर उभरा है, लेकिन इसके स्थायी बने रहने के लिए जरूरी है कि दोनों देश अपने राजनीतिक और सामरिक एजेंडे से ऊपर उठकर वास्तविक सहयोग की भावना दिखाएं। अन्यथा, यह नाजुक डोर कभी भी टूट सकती है, और तब दक्षिण एशिया में अस्थिरता की नई लहर उठ खड़ी होगी। .../ 22‎ अक्टूबर/2025