नई दिल्ली,(ईएमएस)। सुप्रीम कोर्ट के चीफ जस्टिस बी आर गवई और अगले होने वाले मुख्य न्यायाधीश न्यायमूर्ति सूर्यकांत ने गुरुवार को संवैधानिक न्यायालय के न्यायाधीशों के चयन के लिए कॉलेजियम प्रणाली का बचाव किया और कहा कि इसने न्यायपालिका को न्याय प्रशासन में अपनी स्वायत्तता और स्वतंत्रता बनाए रखने में मदद की है। गवई भूटान में एक कार्यक्रम में बोल रहे थे, जबकि न्यायमूर्ति कांत कोलंबो में श्रीलंकाई सुप्रीम कोर्ट को संबोधित कर रहे थे। सीजेआई ने राष्ट्रीय न्यायिक नियुक्ति आयोग को रद्द करने वाले सुप्रीम कोर्ट के 2015 के फैसले का हवाला दिया और कहा कि न्यायिक नियुक्तियों पर प्राथमिक नियंत्रण कार्यपालिका को देने से न्यायपालिका की स्वतंत्रता और स्वायत्तता खतरे में पड़ जाएगी। न्यायमूर्ति सूर्यकांत ने कहा कि उच्च न्यायालयों और सुप्रीम कोर्ट में न्यायाधीशों की नियुक्ति में न्यायपालिका की प्रमुख भूमिका शक्तियों के पृथक्करण के सिद्धांत का एक प्रभावशाली उदाहरण है। न्यायपालिका की स्वतंत्रता और स्वायत्तता उसे विवादों के साधारण समाधान या संवैधानिक सीमाओं की रक्षा से आगे बढ़ने में मदद करती है। उन्होंने कहा कि इसने संवैधानिक न्यायालयों को सक्रिय रूप से समाज की लोकतांत्रिक कल्पना को आकार देने और लोकतांत्रिक जीवन के वास्तुकारों के रूप में कार्य करने की अनुमति दी है। न्यायमूर्ति सूर्यकांत ने कहा कि यदि शक्तियों का पृथक्करण भारत के संवैधानिक लोकतंत्र का ढांचा है, तो न्यायिक समीक्षा-अनुच्छेद 32 मौलिक अधिकारों के उल्लंघन पर कोई व्यक्ति सीधे सर्वोच्च न्यायालय जा सकता है और अनुच्छेद 226 कोई व्यक्ति उच्च न्यायालय में रिट याचिका दायर कर सकता है लोकतंत्र की स्थायी शक्ति है। न्यायिक समीक्षा का दायरा चुनाव आयोग, लोकसभा अध्यक्ष और राज्यपालों जैसे संवैधानिक पदाधिकारियों के साथ-साथ विधान सभाओं तक फैला है। उन्होंने जोर देते हुए कहा कि शासन का कोई भी कार्य न्यायिक निगरानी के दायरे से बाहर नहीं है। न्यायमूर्ति सूर्यकांत ने कहा कि समीक्षा की यह व्यापक शक्ति भारत के संवैधानिक लोकतंत्र की आधारशिला और हमारे मूल ढांचे का एक हिस्सा है, जो इस बात की पुष्टि करती है कि वैधानिकता और संवैधानिकता सार्वजनिक शक्ति के प्रयोग की मूलभूत पूर्वशर्तें हैं। मुख्य न्यायाधीश गवई ने कहा कि अनुच्छेद 21 की व्यापक और उद्देश्यपूर्ण व्याख्या के अलावा, सर्वोच्च न्यायालय ने नागरिकों के अधिकारों की रक्षा और संवर्धन के लिए राज्य को लगातार जवाबदेह ठहराया है, और सरकारों को संवैधानिक गारंटियों को मूर्त रूप देने के लिए बाध्य किया है। जनहित याचिका मानवाधिकारों और बंधुआ मजदूरों, विचाराधीन कैदियों, प्रवासी श्रमिकों, हाथ से मैला ढोने वालों, यौनकर्मियों और फुटपाथ पर रहने वालों जैसे हाशिए पर हैं और कमजोर समुदायों के अधिकारों की रक्षा के लिए एक साधन के रूप में विकसित हुई है। सुप्रीम कोर्ट ने जनहित याचिकाओं पर कार्रवाई करके चुनावी सुधार भी लाए हैं। न्यायमूर्ति कांत इस आलोचना से असहमत थे कि न्यायिक सक्रियता अक्सर विधायिका और कार्यपालिका के अधिकारों का अतिक्रमण करती है और उन्होंने कहा कि जब अदालतें संवैधानिक पाठ और नैतिक स्पष्टता के आधार पर शक्तिहीनों को सशक्त बनाने के लिए कार्य करती हैं, तो वे लोकतंत्र का अतिक्रमण नहीं करतीं, बल्कि उसे और गहरा करती हैं। सिराज/ईएमएस 24अक्टूबर25 ------------------------------------