लेख
11-Nov-2025
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भारतीय लोकतंत्र की खूबसूरती उसकी संस्थाओं की संरचना में नहीं, बल्कि उस भरोसे में है, जिसके आधार पर मतदाता मतदान केंद्र तक पहुँचता है और अपने निर्णय से सत्ता की दिशा बदल देता है। यह भरोसा वर्षों की परंपरा, संघर्षों, आंदोलनों और संवैधानिक विकास की धारा से निर्मित हुआ है। इसलिए जब चुनावों के बाद बार-बार यह कहा जाने लगे कि “वोट चोरी हो गए”, “जनादेश छीना गया”, या “परिणाम साज़िश का हिस्सा हैं”, तो यह आरोप केवल किसी एक दल या प्रक्रिया पर नहीं लगते। ये आरोप सीधे-सीधे जनता की निर्णय क्षमता और लोकतांत्रिक संस्थाओं की निष्पक्षता पर खड़े होते हैं। हाल के वर्षों में राहुल गांधी, कांग्रेस और कुछ विपक्षी दलों द्वारा यह कथा बार-बार दोहराई गई है कि चुनावों में हार इसलिए हुई क्योंकि मतदान मशीनों पर भरोसा नहीं किया जा सकता, चुनाव आयोग स्वतंत्र नहीं है, और संस्थाएँ सत्ता के दबाव में हैं। यह तर्क सतह पर आकर्षक और भावनात्मक है क्योंकि इससे हार का भार नेतृत्व या नीतिगत त्रुटियों पर नहीं, बाहरी कारणों पर डाल दिया जाता है। परंतु चुनावों का वास्तविक विश्लेषण बताता है कि भारतीय मतदाता परिणामों को बहुत तेजी से बदल देता है, और इस बदलाव को मशीन या साज़िश के आधार पर व्याख्यायित नहीं किया जा सकता। पिछले दस वर्षों में ही देखें, तो दिल्ली में दो बार आम आदमी पार्टी को प्रचंड बहुमत मिला, पंजाब में कांग्रेस सत्ता में आई और बाद में वही पंजाब आम आदमी पार्टी ने जीत लिया, पश्चिम बंगाल में तृणमूल कांग्रेस ने अपेक्षा से कहीं अधिक बढ़त ली, जबकि केरल में वाम मोर्चा लगातार सत्ता में लौटा, तमिलनाडु में डीएमके जीती, और तेलंगाना में हाल ही में कांग्रेस की वापसी हुई। इन सभी राज्यों में वही ईवीएम चलीं, वही चुनाव आयोग था, वही तंत्र। यदि मशीनें पक्षपाती होतीं, तो परिणामों में इतनी विविधता और सत्ता-परिवर्तन संभव ही नहीं होता। ऐसे में यह तथ्य अपने आप में वोट-चोरी की कथा को खारिज कर देता है। इसी प्रकार, 2018 में मध्य प्रदेश, राजस्थान और छत्तीसगढ़ में कांग्रेस सत्ता में आई थी। उस समय राहुल गांधी ने यह नहीं कहा कि ईवीएम ठीक नहीं थीं। उसी मध्य प्रदेश में भाजपा का कुल वोट प्रतिशत कांग्रेस से अधिक था, लेकिन कुछ सीटों पर मामूली अंतर ने सरकार बदल दी। तब यह कहा गया कि जनता ने परिवर्तन की इच्छा जताई है, लोकतंत्र ने अपनी शक्ति सिद्ध की है। यह रुख परिपक्व था। परंतु जब वही अंतर विपरीत स्थिति में कांग्रेस के विरुद्ध जाता है, तो वही परिणाम अचानक “षड्यंत्र” या “वोट चोरी” कैसे हो जाते हैं? यहाँ समस्या केवल बयानबाज़ी की नहीं है, बल्कि उस मानसिकता की है जहाँ हार को स्वीकारने में संकोच होता है। लोकतंत्र में जीत और हार दोनों राजनीतिक दलों की यात्रा का अंग हैं। पराजय का अर्थ यह नहीं कि जनता भ्रमित थी; इसका अर्थ है कि जनता ने इस बार दूसरे को अधिक योग्य माना। इसे स्वीकारना एक राजनीतिक परिपक्वता है। अब बात आती है युवाओं और जेन-ज़ी को यह संदेश देने की कि “तुम्हारा भविष्य तुमसे छीना जा रहा है।” यह कथन दरअसल भावनात्मक है और स्वभावतः युवाओं पर प्रभाव डालता है। किंतु प्रश्न यह है कि क्या वास्तव में भारतीय लोकतंत्र युवा अवसरों को सीमित कर रहा है? भारत में आज युवा उद्यमिता, शिक्षा, कौशल और रोजगार पर बहस का दायरा बढ़ा है। युवा राजनीतिक रूप से पहले की तुलना में कहीं अधिक जागरूक और सक्रिय हैं। उन्हें नेतृत्व जगाने की आवश्यकता है, उकसाने की नहीं। उन्हें यह बताना कि व्यवस्था ही उनकी विपक्षी है, उनके भीतर अविश्वास और टकराव की प्रवृत्ति पैदा करता है, जो लोकतंत्र के लिए भी और समाज के लिए भी घातक हो सकता है। चुनाव वह प्रक्रिया है जिसमें मतदाता को पूरा अधिकार है, कि वो असंतोष, नाराज़गी या समर्थन व्यक्त करे। भारतीय मतदाता आज भावनात्मक नहीं, अनुभवजन्य वोट देता है। वह सड़क, बिजली, सुरक्षा, आजीविका और जीवन की गुणवत्ता के आधार पर निर्णय लेता है। ऐसे मतदाता को यह कहना कि उसका दिया गया जनादेश धोखा है। उसकी बौद्धिक क्षमता पर प्रश्नचिह्न लगाने जैसा है। यह सही है कि लोकतंत्र में संस्थाओं की समीक्षा होनी चाहिए। आलोचना आवश्यक है। सिस्टम को बेहतर बनाने के लिए प्रश्न उठाने चाहिए। लेकिन आलोचना और अविश्वास दो भिन्न चीजें हैं। आलोचना सुधार की ओर ले जाती है, अविश्वास व्यवस्था को अंदर से खोखला करता है। और यदि लोकतंत्र में अविश्वास के बीज बो दिए जाएँ, तो अंततः हार किसी दल को नहीं जनता को होती है।इसलिए यह आवश्यक है कि राजनीतिक नेतृत्व यह समझे कि चुनाव लोकतंत्र का अंत नहीं, केवल चरण है। हार-जीत बदलती रहती है। कोई भी सत्ता स्थायी नहीं है। पर जनता पर से विश्वास हट जाए तो लोकतंत्र केवल इमारत बनकर रह जाता है, जिसमें जीवन नहीं होता। भारतीय लोकतंत्र की असली शक्ति वह मतदाता है, जो हर चुनाव में यह संकेत देता है सत्ता जनता की है, और जनता जब चाहे दिशा बदल सकती है। यही सत्य है, यही संतुलन है, और यही इस देश की सबसे बड़ी राजनीतिक स्थिरता भी। (स्वतंत्र लेखिका एवं शोधार्थी) (यह लेखक के व्य‎‎‎क्तिगत ‎विचार हैं इससे संपादक का सहमत होना अ‎निवार्य नहीं है) .../ 11 नवम्बर/2025