हाल ही में एक विस्तृत सर्वेक्षण से यह स्पष्ट हुआ है कि चुनाव प्रचार के दौरान सत्ता प्राप्त करने को लालयित राजनीतिक दलों और उनके राजनेताओं द्वारा मतदाताओं को आकर्षित करने के लिए सौगातें बांटी जाती है या बढ़-चढ़कर घोषणाऐं की जाती है, सत्ता प्राप्ति के बाद सत्ता की निर्धारित अवधि में उनमें से पचास फीसदी भी पूरी नही होती और इस कारण देश का आम मतदाता अपने आपको ठगा से महसूस करता है। अब इसी स्थिति के लिए किसे दोषी ठहराया जाए? मौजूदा चुनाव प्रणाली को या राजनीतिक दलों को? अब ऐसी स्थिति में एक बात अवश्य ध्यान में आती है कि आजादी के बाद के अब तक के पचहत्तर वर्षों में राजनेता चालाक और मतदाता शिक्षित अवश्य हो गए, किंतु दोनों ही वर्गों की सोच में कोई अंतर नही आया है, अभी भी राजनेताओं पर भरोसा कर रहे है और राजनेता अभी भी अपने मतदाताओं को पिछली शताब्दी के पचास के दशक का मतदाता मानकर चल रहे है, इसी कारण राजनेता ‘दिन-दूने रात चैगुने’ हर तरीके से समृद्ध हो रहे है और मतदाता दीन-हीन और जहां तक चुनाव प्रक्रिया का सवाल है, वह वही पुश्तैनी चल रही है अंतर सिर्फ यह जरूर नजर आया है कि कभी राजनीति को हेय दृष्टि से देखा जाता था और आज उसमें आकर्षण पैदा हो गया है और इस ‘धन्धें’ को आज के युवा ‘हींग लगे न फिटकरी रंग चैखा होये’ मानते है और अन्य रोजगारों से नेतागिरी को श्रेष्ठ मानते है। किंतु दुःख इस बात का है कि इस दुरावस्था की स्थिति पर चिंतन-मनन आज तक किसी ने भी नही किया और उसकी जरूरत भी नही समझी क्योंकि किसी को भी आज इसके लिए फुर्सत ही कहां है? वैसे प्रजातंत्रीय शासन प्रणाली के हिसाब से विश्व के प्रजातंत्री देशों में हमारे देश का स्थान गौरवशाली है, हमारे देश को प्रजातंत्र का ‘पितृदेश’ माना जाता है, किंतु हमारी व्यथा हम ही जानते है, हम अपनी पीड़ा किसे बताने जाए? हमारे प्रजातंत्र के वटवृक्ष में कहां व कितनी दीमक लगी है यह किसे दिखाने जाए? इसलिए मन मसौस कर रह जाते है और जहां तक हमारे कर्णधार नेताओं का सवाल है, उनका तो हर प्रयास मतदाताओं को हर दृष्टि से मजबूर असहाय और परावलम्बी बनाने का ही है, वे मतदाताओं को उनकी व्यक्तिगत पारिवारिक परेशानियों में इतना व्यस्त रखना चाहते है, जिससे कि मतदाताओं को कुछ ओर सोचन-विचारने का मौका ही नही मिले और अपने इस प्रयास में वे सफल भी हो रह है, इसीलिए आज देश की यह दशा है। ....और जहां तक हम मतदाताओं का सवाल है हमने खुद इस स्थिति से कभी बाहर निकलकर देश-दुनियां और समाज तो ठीक स्वयं के बारे में आत्मचिंतन का समय नही निकाला और इसी कारण न सिर्फ हमारे स्वतंत्रता संग्राम सैनानियों के सिर शर्म से झुक रहे है, बल्कि पूरी दुनियां में हम बदनामी के दौर से भी गुजरने को मजबूर है.... अब तो उस स्थिति एवं व्यक्तित्व का इंतजार है जो हमें इस दुरावस्था से बाहर निकाल सके, पता नही इंतजार कब खत्म होगा? (यह लेखक के व्यक्तिगत विचार हैं इससे संपादक का सहमत होना अनिवार्य नहीं है) .../ 11 नवम्बर/2025