01-Dec-2025
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बर्लिन(ईएमएस)।द्वितीय विश्वयुद्ध की सबसे वीर भारतीय मूल की ब्रिटिश जासूस नूर इनायत खान को न कोई नाजी सैनिक पकड़ सका, न कोई खूंखार गेस्टापो अधिकारी तोड़ सका। उन्हें मौत की नींद सुलाया एक मुंहबोली बहन के धोखे ने। सिर्फ 100,000 फ्रांसीसी फ्रांक (आज के करीब दस हजार रुपये) के बदले बेच दिया गया था। नूर का जन्म 1914 में मॉस्को में हुआ था। पिता भारतीय सूफी संत इनायत खान और मां अमेरिकी थीं। शांतिप्रिय सूफी परिवार में पलीं नूर पेरिस में बच्चों की किताबें लिखती और हार्प बजाती थीं। जब 1940 में नाज़ियों ने फ्रांस पर कब्ज़ा किया तो नूर और उनका भाई ब्रिटेन भाग आए। वहां उन्होंने ब्रिटिश वुमेंस ऑक्ज़िलरी एयर फोर्स जॉइन किया और फिर स्पेशल ऑपरेशंस एग्ज़ीक्यूटिव में चुनी गईं। जून 1943 में उन्हें कोडनेम ‘मेडेलीन’ के साथ पैरिस भेजा गया। उस वक्त फ्रांस में कोई भी ब्रिटिश रेडियो ऑपरेटर तीन हफ्ते से ज़्यादा ज़िंदा नहीं रह पाता था, लेकिन नूर ने अकेले पूरे तीन महीने तक नाज़ियों को चकमा दिया। कुछ रिपोर्ट्स कहती हैं कि रेनी को नूर की खूबसूरती और एक फ्रांसीसी एजेंट फ्रांस एंटेलमे के प्रति आकर्षण से जलन थी। 13 अक्टूबर 1943 को गेस्टापो ने नूर को पकड़ लिया। गिरफ्तारी के वक्त उन्होंने अकेले छह नाजी सैनिकों से लड़ाई की। एक की आंख फोड़ दी, दूसरे का खून निकाल दिया, लेकिन संख्या बल से हार गईं। सबसे बड़ी गलती यह थी कि नूर अपने भेजे संदेश और कोड नष्ट नहीं करती थीं, उन्हें एक नोटबुक में लिखकर रखती थीं। गेस्टापो को वह नोटबुक मिली और पूरे रेसिस्टेंस नेटवर्क का खात्मा हो गया। दस महीने तक नूर को लगातार टॉर्चर किया गया। हाथ-पैर ज़ंजीरों से जकड़े रहे, खाना-पानी न के बराबर। फिर भी मुंह से एक शब्द नहीं निकला। आखिरकार उन्हें जर्मनी के कुख्यात डचाऊ कैंप भेज दिया गया। 13 सितंबर 1944 की सुबह, 30 साल की नूर को घुटनों के बल बैठाया गया। नाजी अधिकारी ओटो विल्हेम ने पिस्तौल तानी और गोली चलाई। लहूलुहान नूर ने आखिरी सांस में सिर्फ एक शब्द चीखा – ‘लिबर्ते’ (आज़ादी)। ब्रिटेन ने उन्हें मरणोपरांत जॉर्ज क्रॉस और फ्रांस ने क्रॉक्स दे गैरे से सम्मानित किया। आज भी लंदन में उनकी प्रतिमा है, जिस पर लिखा है – वह जो कभी नहीं टूटी। वीरेंद्र/ईएमएस 01 दिसंबर 2025