लेख
03-Dec-2025
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भारतीय समाज में विवाह को सदा से एक पवित्र, औपचारिक और भावनात्मक बंधन माना गया है। दो परिवारों के मिलन का उत्सव, दो जीवनों की साझेदारी और सामाजिक समरसता का माध्यम। लेकिन इसी पवित्र संस्था को दहेज की काली छाया ने जिस तरह से अपने शिकंजे में जकड़ लिया है, वह न केवल समाज की नैतिकता पर प्रश्नचिन्ह लगाता है, बल्कि मनुष्य की संवेदनहीनता के भयावह पतन को भी उजागर करता है। विवाह, जो कभी संस्कारों की उजली चौखट माना जाता था, आज कई लोगों की लालच-लिप्सा का कारोबार बन गया है। मनुष्य का मूल्य तौलने की यह कुप्रथा अब केवल सामाजिक बुराई नहीं, बल्कि एक दावानल बन चुकी है।जो हर वर्ष असंख्य बेटियों के जीवन को राख में बदल रही है। हाल ही में सुप्रीम कोर्ट ने इसी सामाजिक सच्चाई पर तल्ख टिप्पणी की, जिसने पूरे देश के अंतर्मन को झकझोर दिया है। जस्टिस बी.वी. नागरत्ना और जस्टिस आर. महादेवन की पीठ ने स्पष्ट कहा कि कोर्ट इस कड़वी हकीकत से मुंह नहीं मोड़ सकती कि दहेज की मांग और उससे उपजे अत्याचार आज भी भयावह रूप में मौजूद हैं। कोर्ट के शब्दों में दहेज की लालच में विवाह को व्यवसायिक लेनदेन बना दिया गया है, उपहारों के नाम पर लालच की दुकानें सजाई जा रही हैं और बेटियों की बोली तक लगाई जा रही है। यह टिप्पणी केवल न्यायिक आकलन नहीं, बल्कि समाज की विवेकहीनता पर एक कटु लेकिन आवश्यक प्रहार है।देश में प्रतिदिन दर्जनों युवतियाँ दहेज की मांग के कारण प्रताड़ित होती हैं। कई बेटियाँ जलाकर मार दी जाती हैं या अंतहीन यातनाओं से टूटकर आत्महत्या कर लेती हैं। हर बार ऐसे मामलों में परिवार बिखरते हैं, माताएँ-पिताएँ जिंदगी भर अपने सीने में जलती राख लेकर जीते हैं और समाज एक बार फिर चुपचाप दहेज की धधकती आग में अपनी बेटियों को खो देता है। यह केवल अपराध नहीं, बल्कि मनुष्यता की हत्या है।एक ऐसी हत्या, जिसके पीछे छिपे लालच को लोग उत्सव, परंपरा और प्रतिष्ठा का आवरण पहना देते हैं। सुप्रीम कोर्ट में जिस मामले की सुनवाई के दौरान यह सख्त टिप्पणी की गई, वह समाज के इस नैतिक पतन का वीभत्स उदाहरण है। एक पति पर अपनी पत्नी को जहर देकर मारने का आरोप था। हाईकोर्ट ने आरोपी को जमानत दे दी, जबकि मृतका का पुख्ता बयान उपलब्ध था और पूरा मामला दहेज हत्या की परिभाषा में स्पष्ट रूप से आता था। सुप्रीम कोर्ट ने इस जमानत आदेश को अव्यवहारिक और कानूनी दृष्टि से त्रुटिपूर्ण बताते हुए तत्काल रद्द कर दिया। अदालत ने स्पष्ट कहा कि ऐसे अपराधों में कठोर दृष्टिकोण ही समाज को संदेश दे सकता है। क्योंकि दहेज हत्या सिर्फ एक आपराधिक घटना नहीं, बल्कि कुप्रथा की सबसे घिनौनी और अमानवीय परिणति है।जहाँ एक युवती का जीवन सिर्फ इसलिए समाप्त कर दिया जाता है कि वह पति या ससुराल वालों की बढ़ती मांगें पूरी नहीं कर सकी। दहेज को अक्सर स्वेच्छा से दिए जाने वाले उपहारों का नाम देकर छिपाने की कोशिश की जाती है। लेकिन सच यह है कि ये उपहार कभी स्वेच्छा के नहीं होते, सामाजिक दबाव और भौतिक लालच के बनाए बंधन होते हैं। समाज की इस दिखावटी परंपरा ने धीरे-धीरे इतना विकराल रूप ले लिया है कि विवाह अब संस्कार कम और लेनदेन का सौदा अधिक दिखने लगा है। नववधू और उसके परिवार की आर्थिक स्थिति का आकलन शादी से पहले ही शुरू हो जाता है। रिश्ते पर विचार करने का आधार गुण-व्यवहार नहीं, बल्कि आर्थिक क्षमता और दहेज की संभावना बन जाता है। यह विडम्बना केवल हमारे सामाजिक पतन का प्रमाण नहीं, बल्कि हमारी भावनात्मक दिवालियापन की घोषणा है। दहेज व्यवस्था की सबसे भयावह सच्चाई यह है कि यह अपराध अक्सर परिवार की चारदीवारी में होता है, जहाँ पीड़िता की चीखें समाज तक पहुँच ही नहीं पातीं। न्याय के लिए लड़ना भी सहज नहीं होता। पीड़िता के बयान को कई बार परिवार का मामला कहकर हल्का सिद्ध करने का प्रयास होता है। यही कारण है कि सुप्रीम कोर्ट की यह टिप्पणी सामाजिक चेतना को नए सिरे से झकझोरने वाली है। अदालत ने यह भी कहा कि दहेज हत्या के मामलों में अक्सर मृतका के अंतिम बयान को निर्णायक माना जाता है, लेकिन कई बार जमानत या जांच के दौरान इस कानूनी धारणा को नज़रअंदाज कर दिया जाता है, जिससे अपराधियों का मनोबल बढ़ता है।दहेज प्रथा की जड़ें सदियों पुरानी हैं, लेकिन इसका आधुनिक रूप और भी खतरनाक होता जा रहा है। उपभोक्तावाद और सामाजिक दिखावे ने मिलकर इसे और अधिक भड़काया है। शादी में खर्च, कपड़े-गहनों की प्रदर्शनी, रस्मों का दिखावा, और उपहारों की प्रतिस्पर्धा ने दहेज को एक अनिवार्य सामाजिक दबाव में बदल दिया है। कई परिवार अपने सामर्थ्य से अधिक खर्च करने को मजबूर हो जाते हैं। परिणामस्वरूप कर्ज, मानसिक तनाव और सामाजिक अपमान जैसी स्थितियाँ पैदा होती हैं। जितना आधुनिक समाज अपनी सोच को विकसित होने का दावा करता है, उतना ही यह कुप्रथा उसकी जड़ों को खोखला करती जा रही है।वास्तविक समस्या यह है कि दहेज प्रथा केवल कानून से नहीं मिटेगी। कानून भय पैदा कर सकता है, लेकिन सामाजिक सोच बदले बिना इस आग पर काबू पाना लगभग असंभव है। विवाह को लेनदेन नहीं, संस्कार मानने की मानसिकता पुनर्जीवित करनी होगी। परिवारों, सामाजिक संस्थाओं, पंचायतों और धार्मिक संगठनों को इस दिशा में निर्णायक भूमिका निभानी चाहिए। जब तक समाज दहेज को प्रतिष्ठा के नाम पर स्वीकार करता रहेगा, तब तक बेटियों की अस्मिता सुरक्षित नहीं हो सकती। हमें यह समझना होगा कि दहेज के माध्यम से बेटी का अपमान केवल उसके परिवार का नहीं, बल्कि पूरे समाज का अपमान है।आज जरूरत केवल कानूनी सख्ती की नहीं, बल्कि सामाजिक जागरूकता, नैतिक क्रांति और पारिवारिक संस्कारों में बदलाव की है। दहेज देने वाले को भी उतनी ही आलोचना झेलनी चाहिए जितनी दहेज मांगने वाले को। क्योंकि जब तक देने वाला है, मांगने वाला भी रहेगा। समाज को यह निर्णय लेना होगा कि वह विवाह को संस्कार मानकर अपनी अगली पीढ़ियों को सुरक्षित भविष्य देना चाहता है, या इसे व्यापार बनाकर संबंधों की पवित्रता का विनाश। दहेज की भभकती आग न सिर्फ बेटियों को जलाती है, बल्कि समाज की आत्मा को भी झुलसा देती है। यह समय है कि हम सामूहिक रूप से इस दावानल के खिलाफ खड़े हों, वरना यह आग परिवारों, रिश्तों और हमारी नैतिकता की अंतिम बची-खुची चिनगारियों को भी निगल लेगी। विवाह की पवित्र संस्था को बचाने का यह उचित क्षण है और यही समाज की वास्तविक परीक्षा भी। यह हर समाज की विडंबना है। (वरिष्ठ पत्रकार, साहित्यकार स्तम्भकार) (यह लेखक के व्य‎‎‎क्तिगत ‎विचार हैं इससे संपादक का सहमत होना अ‎निवार्य नहीं है) .../ 3 ‎दिसम्बर /2025