लेख
03-Dec-2025
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राजस्थान के जोधपुर के कुड़ी पुलिस थाने में एक अधिवक्ता के साथ दुर्व्यवहार का मामला इन दिनों चर्चाओं में है। थाने में वकील से धक्का-मूक्की करने वाले थानाध्यक्ष को सस्पेंड कर दिया गया है। हाईकोर्ट ने कहा- पब्लिक से कैसे पेश आएं, इसके लिए पूलिसकर्मियों को ट्रेनिंग दी जाए, कोर्ट ने सोशल मीडिया पर वीडियो देखने के बाद पुलिस कमिश्नर ओमप्रकाश को जमकर फटकार लगाई है। जोधपुर पुलिस कमिश्वर और सरकार को हिदायत दी कि सभी पुलिसकर्मियों को सॉफ्ट स्किल ट्रेनिंग दी जाए।यानि किससे किस तरीके से बात करनी चाहिए, कैसे लोगों से पेश आना चाहिए, यह पुलिस को आना चाहिए। पुलिस कमिश्नर ने कोर्ट में कहा कि इस मामले की आईपीएस स्तर के अधिकारी से जांच करवाई जा रही है। फिलहाल थानाध्यक्ष को सस्पेंड करके अन्य जो भी दोषी हैं, उन्हें भी थाने से हटाया जा रहा है। अगली सुनवाई एक सप्ताह बाद होगी, साथ ही पुलिस को पूरे घटनाक्रम की जांच रिपोर्ट भी कोर्ट में पेश करने के निर्देश दिए गए हैं। आरोप है कि जोधपुर के कुड़ी भगतासनी हाउसिंग बोर्ड थाने के थानाध्यक्ष हमीर सिह और अन्य पुलिस कर्मियों ने वकील भरतसिह के साथ धक्का- मुक्की की और उनका कोट तक फाड़़ डाला। थानाध्यक्ष ने बोला था कि तुम्हारी एक पल में वकालत निकाल देंगे और धारा 151 के अंतर्गत अंदर डाल देंगे। ये मामला उन्होंने कैमरे में कैद कर लिया और हाईकोर्ट में पेश कर दिया। हाइकोर्ट ने कहा कि अधिवक्ताओं के साथ बिना वजह मार पीट और धक्का मुक्की बर्दास्त नहीं की जाएगी। उनको पुलिस से भी पूछताछ करने का अधिकार होता है। क्योंकि वो किसी को न्याय दिलवाने का काम कर रहे होते है। वही उत्तराखंड में टिहरी गढ़वाल जनपद के चम्बा थाना क्षेत्र में कवरेज करने पहुंची एक महिला पत्रकार के साथ थाने में दरोगा ने न केवल अभद्र व्यवहार किया, बल्कि उनका कैमरा भी जबरन बंद कर दिया। आरोप है कि दरोगा रवि कुमार ने झपटा मारकर पत्रकार का कैमरा यह कहकर बंद कर दिया कि — “तुम वीडियो बनाने वाली होती कौन हो?” घटना के दौरान थाने में महिला कांस्टेबल मौजूद थी, लेकिन दरोगा ने नियमों की अनदेखी करते हुए खुद महिला पत्रकार से अपमानजनक व्यवहार किया। यह घटना उस समय हुई, जब पत्रकार दो पक्षों के बीच हुए विवाद की कवरेज करने थाने पहुंची थीं। चम्बा पुलिस पर मामले को एकतरफा तरीके से निपटाने और एक निर्दोष व्यक्ति के साथ मारपीट करने के आरोप लगे हैं। इसी विषय पर कवरेज करने गई महिला पत्रकार से दरोगा रवि कुमार ने पहले कैमरा बंद करने को कहा और फिर अभद्र व्यवहार किया। जब महिला पत्रकार ने इस घटना की शिकायत दर्ज करानी चाही, तो थानेदार ने रिपोर्ट दर्ज करने से इंकार कर दिया। इससे यह सवाल उठता है कि आखिर पुलिस पत्रकार की रिपोर्ट दर्ज करने से क्यों बच रही है और कैमरा बंद करवाने की कोशिश क्यों की गई? दरोगा को प्रेस की स्वतंत्रता का उलंघन का अधिकार किसने दिया? इस पूरे घटनाक्रम ने टिहरी पुलिस की कार्यप्रणाली पर गंभीर सवाल खड़े हो गए हैं। उत्तराखंड में पुलिस का “मित्रता, सेवा और सुरक्षा” का नारा सिर्फ एक दिखावा बनकर रह जाएगा। इसी तरह विशुनपुर जीवनारायण गांव में मारपीट मामले की जांच करने पहुंची पुलिस ने ग्रामीणों के साथ जमकर दुर्व्यवहार किया। इससे आक्रोशित करीब दो दर्जन से अधिक लोगों ने थाने का घेराव कर हंगामा किया। उनलोगों का कहना था कि जांच के लिए पहुंची पुलिस ने महिला, बुजुर्ग और अन्य लोगो के साथ गाली-गलौज की। ग्रामीणों ने केस के आईओ अंकित कुमार के खिलाफ थाना में शिकायत की है। ग्रामीण सुरेंद्र सिंह, नीरज कुमार, बंसत सिंह, रंजन कुमार, शिवशंकर राय, श्याम कुमार सिंह, राजू कुमार सिंह आदि ने बताया कि विवेचना अधिकारी के साथ आई पुलिस ने लोगों का नाम पूछने के साथ ही गाली-गलौज करने लगी।नेशनल रजिस्ट्री ऑफ़ एक्सोनरेशन्स की एक हालिया रिपोर्ट के अनुसार , सन 1989 से अब तक लगभग 37 प्रतिशत मामलों में पुलिस अधिकारियों ने आम लोगो के साथ कदाचार किया है। जब इस तरह के दुर्व्यवहार और कदाचार पर अंकुश नहीं लगाया जाता है, तो इससे न केवल गलत दोषसिद्धि होती है, बल्कि बेवजह जानमाल का नुकसान भी होता है। पुलिस अनुशासनात्मक रिकॉर्ड वर्तमान में 21 राज्यों में गोपनीय हैं। इन रिकॉर्डों को जनता से छिपाए रखने से दो प्रमुख तरीकों से गलत दोषसिद्धि को बढ़ावा मिलता है। पहला, इन रिकॉर्डों की गोपनीयता के कारण अधिकारियों के खिलाफ शिकायतों और आरोपों के निपटारे पर सार्वजनिक या बाहरी निगरानी रखना मुश्किल हो जाता है। इस पारदर्शिता के बिना, कानून प्रवर्तन के आंतरिक मामलों के विभाग अवैध और अनैतिक व्यवहार के लिए अधिकारियों को अनुशासित करने से बच सकते हैं, जिसका अर्थ है कि इन हानिकारक व्यवहारों को सुधारा नहीं जा सकेगा। और, चूँकि अधिकारियों को पिछले गलत कामों के लिए जवाबदेह नहीं ठहराया जा रहा है, इसलिए वे भविष्य में भी कदाचार करते रह सकते हैं।यातना के विरुद्ध राष्ट्रीय अभियान’ नामक एक गैर-सरकारी संस्था की रिपोर्ट के अनुसार वर्ष 2019 में 125 व्यक्तियों की 124 केसों में पुलिस हिरासत में मौत हुई है।अधिकतर अदालतों द्वारा भी मामले की सुनवाई के दौरान पुलिस अत्याचारों के आरोपों का नोटिस लिया जाता है। अब सुप्रीमकोर्ट के मुख्य न्यायाधीश जस्ट्सि एन.वी. रमन्ना का बयान भी सामने आया है जिनका कहना है कि पुलिस थानों में न तो मानवीय अधिकार सुरक्षित हैं और न ही शारीरिक तौर पर कोई व्यक्ति सुरक्षित रह सकता है।सुप्रीमकोर्ट की टिप्पणी थी कि पुलिस थानों में किसी मुजरिम की पिटाई से समाज में डर की भावना पैदा होती है और पुलिस द्वारा ऐसा अत्याचार किसी भी तरह माफी योग्य नहीं है। पुलिस हिरासत में मौत के अन्य कारण भी हो सकते हैं जैसे कि बुढ़ापा, कोई पुरानी बीमारी, डाक्टरी सुविधाओं की कमी, जेल में अवांछित भीड़ मगर पुलिस की कार्यप्रणाली में सुधार की कमी, उनकी जवाबदेही का न होना, फोरैसिक तकनीक का सही इस्तेमाल न करना भी इस अत्याचार के मुख्य कारण हैं। पुलिस अत्याचार समाज में सहम पैदा करता है। कई बार निर्दोष भी पुलिस अत्याचार के डर से कसूर स्वीकार कर लेते हैं जिस कारण असल दोषी बच निकलते हैं और उनको अन्य जुर्म करने का बढ़ावा मिलता है। जो कि चिंताजनक है।(लेखक सामाजिक चिंतक व वरिष्ठ पत्रकार है) (यह लेखक के व्य‎‎‎क्तिगत ‎विचार हैं इससे संपादक का सहमत होना अ‎निवार्य नहीं है) ईएमएस / 03 दिसम्बर 25