भारत की आंतरिक सुरक्षा पर जब गंभीर विमर्श होता है, तो नक्सलवाद एक ऐसे घाव की तरह सामने आता है जिसने दशकों तक राष्ट्र की शांति, स्थिरता और प्रगति को चुनौती दी है। यह संघर्ष केवल बंदूकों का नहीं, बल्कि विचारों, विकास, विश्वास और शासन क्षमता का भी रहा है। सत्तर और अस्सी के दशक में जो चिंगारी भड़की थी, वह 2000 के दशक तक आकर एक व्यापक सुरक्षा चुनौती बन गई। अनेक सरकारों ने प्रयास किए, परंतु दिशा और संकल्प के अभाव ने स्थिति को और जटिल किया। 2014 के बाद इस चुनौती के प्रति वह दृष्टि सामने आई जिसने न केवल हिंसा को नियंत्रित किया, बल्कि समाज के भीतर नई आशा, नए विश्वास और नए आत्मबल का संचार भी किया। आज जब आंकड़ों और जमीनी हकीकत को देखा जाए, तो स्पष्ट होता है कि मोदी सरकार ने नक्सलवाद को कमजोर ही नहीं किया बल्कि उसके वैचारिक आधार को भी क्षीण कर दिया है। नक्सलवाद का सबसे बड़ा संकट यह था कि जिन क्षेत्रों को सरकार की सबसे अधिक उपस्थिति चाहिए थी, वही प्रशासनिक रिक्तता की चपेट में आते गए। 2004 से 2014 के बीच विकास योजनाएँ फाइलों में दौड़ती रहीं, पर जमीन पर कदम नहीं रख सकीं। सड़क, पुल, स्वास्थ्य केंद्र या स्कूल किसी की भी नियति कार्यान्वयन के अभाव में अधर में लटकी रही। सुरक्षा बल सीमित संसाधनों और अस्थिर राजनीतिक संकेतों के बीच फंसे रहे। यूपीए सरकार का रुख अस्पष्ट था और शीर्ष नेतृत्व से विरोधाभासी संदेश जाते थे। कहीं “विकास” पर ज़ोर, तो कहीं नक्सलियों को “भटके हुए बच्चे” कहकर संकेतों को धुंधला कर देना इस मिश्रित नीति ने सुरक्षा बलों का मनोबल भी प्रभावित किया और नक्सलियों को मनोवैज्ञानिक बढ़त भी दी। परिणामस्वरूप नक्सल हिंसा का प्रभाव बढ़ता गया और दो सौ से अधिक जिलों में इसका फैलाव हो गया। मनरेगा जैसी योजनाएँ ठप पड़ गईं, पंचायतें निष्क्रिय हो गईं और स्थानीय अर्थव्यवस्था गहरे संकट में चली गई। दूसरी ओर, नक्सलियों की हिंसक रणनीति ग्रामीण समाज की रीढ़ तोड़ती गई। स्कूलों को जलाया गया, स्वास्थ्य केंद्रों को उड़ाया गया, सड़कों को बमों से उड़ाकर दुनिया से काट दिया गया। कई गांव वर्षों तक पुलिस या प्रशासन की पहुँच से बाहर रहे। ऐसे माहौल ने आदिवासी समाज के भीतर सरकार के प्रति अविश्वास को और बढ़ाया और नक्सलियों को स्वयं को “विकल्प” के तौर पर प्रस्तुत करने का मौका दिया। यही वह परिदृश्य था जिसमें 2014 के बाद नक्सल विरोधी रणनीति ने निर्णायक मोड़ लिया। पहली बार केंद्र और राज्यों के लिए एकीकृत राष्ट्रीय नीति तैयार की गई। ‘नेशनल पॉलिसी एंड एक्शन प्लान’ ने सुरक्षा, विकास और पुनर्वास तीनों को एक साथ आगे बढ़ाने की दिशा स्पष्ट की। यह वही बिंदु था जहाँ नीतिगत एकरूपता ने धरातल पर ठोस परिवर्तन की नींव डाली। मोदी सरकार ने इस पूरे संघर्ष को केवल सुरक्षा चुनौती नहीं माना, बल्कि इसे सामाजिक विश्वास, आर्थिक विकास और प्रशासनिक उपस्थिति की लड़ाई के रूप में समझा। सुरक्षा मोर्चे पर सबसे बड़ा बदलाव क्षमता निर्माण का था। हजारों करोड़ रुपये सिक्योरिटी रिलेटेड एक्सपेंडिचर के माध्यम से राज्यों को दिए गए। नए कैंप, फोर्टिफाइड पुलिस स्टेशन, आधुनिक हथियार, ड्रोन, हेलिपैड इन सबने सुरक्षा बलों को वह मजबूती दी जिसकी कमी वर्षों से महसूस की जा रही थी। जिन इलाकों में अधिकारी जाने तक को तैयार नहीं होते थे, वहाँ अब सड़कें बन रहीं थीं, पुल खड़े हो रहे थे और प्रशासन नियमित रूप से गश्त कर रहा था। समन्वय और खुफिया तंत्र की मजबूती ने ऑपरेशन को अधिक सफल और लक्ष्य उन्मुख बनाया। दंतेवाड़ा जैसे हमलों के बाद जिस कमजोरी पर चर्चा होती थी, वह धीरे-धीरे क्षमता और दक्षता में बदलने लगी। मोदी सरकार की रणनीति की सबसे बड़ी विशेषता यह रही कि उसने नक्सलवाद को केवल बंदूक से नहीं, बल्कि विकास और पुनर्वास से भी जवाब दिया। सैकड़ों नक्सलियों ने आत्मसमर्पण किया क्योंकि पुनर्वास नीति ने उन्हें सम्मान, सुरक्षा और एक नई जिंदगी का अवसर दिया। मकान, शिक्षा, कौशल प्रशिक्षण, रोजगार, नकद सहायता इन सभी ने हथियार छोड़ने की प्रक्रिया को मानवीय बनाया और समाज में लौटने का रास्ता सरल किया। यह वह नीति थी जिसने हिंसा का वैकल्पिक मार्ग प्रस्तुत किया। विकास के मोर्चे पर परिवर्तन और भी स्पष्ट है। हजारों किलोमीटर सड़कें, नए मोबाइल टावर, बैंक शाखाएँ, जनजातीय आवासीय विद्यालय, कौशल केंद्र, स्वास्थ्य संस्थान इन सबने उन क्षेत्रों को मुख्यधारा में जोड़ा जो दशकों से प्रशासन के नक्शे में केवल नाम मात्र थे। जब सड़क पहुंची तो बाजार पहुँचा, जब बैंक आया तो अर्थव्यवस्था आई, जब स्कूल खुला तो भविष्य खुला। इन परिवर्तनों ने ग्रामीण समुदायों को यह एहसास कराया कि राज्य अब दूर नहीं है, बल्कि उनके साथ खड़ा है। सुरक्षा मजबूत हुई, विकास पहुँचा, और परिणाम हुआ हिंसा में अभूतपूर्व कमी। पिछले वर्षों में नक्सल हिंसा 80 प्रतिशत तक घट गई। सुरक्षा बलों पर हमले तेजी से कम हुए, और सबसे प्रभावित जिलों की संख्या लगभग एक-तिहाई रह गई। इस गिरावट का अर्थ मात्र आंकड़ों में सुधार नहीं, बल्कि जीवन में सुरक्षा का लौटना है। वह सुरक्षा जो वर्षों से खो चुकी थी। नक्सलवाद केवल सुरक्षा समस्या नहीं, बल्कि वैचारिक चुनौती भी रहा है। पहले कुछ शैक्षणिक मंचों, गैर सरकारी संस्थाओं और राजनीतिक वक्तव्यों में नक्सल विचारधारा के प्रति सहानुभूति दिखाई देती थी। पर जब सुरक्षा और विकास के साथ संवाद और सहभागिता बढ़ी, तो समाज ने हिंसा के महिमामंडन को सिरे से नकार दिया। आज वही समाज, जो कभी भय में डूबा रहता था, अब शांति और प्रगति को प्राथमिकता देता है। नक्सलवाद का जनाधार क्षीण हुआ क्योंकि लोगों ने प्रत्यक्ष देखा कि हिंसा केवल विनाश लाती है, जबकि शासन विकास लाता है। मोदी सरकार की नीतियों की सराहना केवल इसलिए नहीं होती कि हिंसा कम हुई, बल्कि इसलिए भी कि इस पूरी प्रक्रिया ने एक बेहतर समाज की दिशा में रास्ता बनाया। जब विकास के द्वारा आशा को जीवन मिलता है, जब सुरक्षा के द्वारा आत्मबल लौटता है, और जब पुनर्वास के द्वारा हिंसा से बाहर निकलने का रास्ता बनता है। तभी कोई राष्ट्र चुनौतियों को पराजित कर पाता है। नक्सलवाद पर नकेल कसना केवल एक प्रशासनिक उपलब्धि नहीं, बल्कि भारतीय लोकतंत्र की ताकत का प्रमाण है। यह बताता है कि जब राज्य की नीयत स्पष्ट, नीति सुसंगठित और दृष्टिकोण समग्र हो, तो दशकों पुरानी चुनौती भी अपनी शक्ति खोने लगती है। आज नक्सल प्रभावित क्षेत्रों में बच्चे स्कूल जाते हैं, महिलाएँ रोजगार योजनाओं में भाग लेती हैं, सड़कें बाजारों को जोड़ती हैं और शासन के प्रति विश्वास बढ़ा है। यह दृश्य किसी एक नीति का परिणाम नहीं, बल्कि उन सामूहिक कदमों का फल है जिनका नेतृत्व एक दृढ़ राजनीतिक इच्छाशक्ति ने किया। नक्सलवाद कमजोर हुआ है, पर उससे भी अधिक महत्वपूर्ण यह है कि समाज मजबूत हुआ है और यही किसी भी लोकतांत्रिक राष्ट्र की सबसे बड़ी जीत है। (पत्रकार एवं लेखक) (यह लेखक के व्यक्तिगत विचार हैं इससे संपादक का सहमत होना अनिवार्य नहीं है) .../ 10 दिसम्बर /2025