भारत नाम प्रस्ताव देश की आत्मा, ऐतिहासिक पहचान और समकालीन राष्ट्रीयता के बीच एक संवाद स्थापित करता है। भारत नाम वेदों,पुराणों, महाभारत और कूटनीतिक साहित्य में हजारों वर्षों से मौजूद है,जो केवल एक नाम नहीं बल्कि भारतीय सभ्यता की आत्मा है- वैश्विक स्तरपर यह गूंज उठना शुरू हुई है क़ि भारत का नाम क्या होना चाहिए,इंडिया या भारत यह प्रश्न भारतीय राजनीतिक इतिहास में भी समय-समय पर चर्चा का विषय रहा है। दिसंबर 2025 के शीतकालीन सत्र में जयपुर से एक सांसद द्वारा एक महत्वपूर्ण प्राइवेट मेंबर बिल के रूप में यह प्रस्ताव फिर से संसद के केंद्र में आ गया है। इस प्रस्ताव में कहा गया है कि देश का नाम इंडिया से बदलकर भारत कहा है। इस प्रस्ताव ने न केवल संसद बल्कि विशेषज्ञों,इतिहासकारों, संवैधानिक विद्वानों और अंतरराष्ट्रीय समुदाय में भी एक नई बहस को जन्म दिया है। प्रस्ताव में कई ऐतिहासिक, सांस्कृतिक और भाषाई तर्क प्रस्तुत किए गए,जिनके आधार पर भारत को राष्ट्र का एकमात्र आधिकारिक नाम घोषित करने की मांग उठाई गई है।मैं एडवोकेट किशन सनमुखदास भावनानीं गोंदिया महाराष्ट्र यह मानता हूं कि प्रस्ताव देश की आत्मा ऐतिहासिक पहचान और समकालीन राष्ट्रीयता के बीच एक संवाद स्थापित करता है।इस प्रस्ताव के अनुसार, यह तथ्य सर्वविदित है कि भारतीय उपमहाद्वीप को सदियों से विश्व के विभिन्न हिस्सों में अलग- अलग नामों से जाना जाता रहा है,सिंधु घाटी सभ्यता के कारण इंडस, फ़ारसी भाषाई प्रभाव के कारण हिंदोस से हिंदुस्तान, और वैदिक परंपरा के मूल में भारत नाम।भारत शब्द का उल्लेख वेदों पुराणों उपनिषदों से लेकर महाभारत और कूटनीतिक साहित्य तक प्राचीन काल से मिलता है।प्रस्ताव का पहला मुख्य तर्क यही है कि भारत वह प्राचीन, सभ्यतागत और सांस्कृतिक नाम है, जिससे यह भूमि सहस्राब्दियों से पहचानी जाती रही है। संसद में दिए गए वक्तव्य में कहा गया कि जिस देश को हम सदियों से मदर इंडिया या मदर लैंड कहते रहे हैं, उसका वास्तविक, ऐतिहासिक और साहित्यिक नाम भारत ही है।दिसंबर 2025 में जयपुर से एक सांसद द्वारा संसद के शीतकालीन सत्र में एक महत्वपूर्ण प्राइवेट मेंबर बिल प्रस्तुत किया गया, जिसमें यह प्रस्ताव रखा गया कि राष्ट्र का नाम इंडिया से बदलकर भारत कर दिया जाए। यह प्रस्ताव केवल भाषाई या शब्दावली परिवर्तन नहीं, बल्कि भारतीय सभ्यता, औपनिवेशिक इतिहास, संवैधानिक प्राथमिकताओं और सांस्कृतिक आत्मसम्मान से जुड़ा हुआ है।बिल में कई संरचनात्मक तर्क,ऐतिहासिक साक्ष्य अंतरराष्ट्रीय संदर्भ और संविधान आधारित प्रावधान शामिल किए गए, जो भारत को राष्ट्र का एकमात्र आधिकारिक नाम घोषित करने की मांग करते हैं।मैं इस लेख के माध्यम से इस बिल के मुख्य प्रावधानों, ऐतिहासिक दावों, तर्कों और उनके प्रभावों का विस्तृत विश्लेषण प्रस्तुत करता है। साथियों बात अगर हम भारत नाम की ऐतिहासिक और सांस्कृतिक जड़ें इसको समझने की करें तो,बिल के प्रारंभिक भाग में यह उल्लेख किया गया है कि जिस देश को हम सदियों से भारतवर्ष कहते आए हैं, उसका मूल नाम भारत ही है। बिल के अनुसार, यह नाम वेदों, पुराणों, महाभारत और कूटनीतिक साहित्य में हजारों वर्षों से मौजूद है। ब्रिटिश शासनकाल से पूर्व अंतरराष्ट्रीय यात्रियों, विद्वानों और इतिहासकारों ने इस भूमि को भारत के रूप में ही संबोधित किया।बिल का तर्क है कि भारत शब्द केवल एक नाम नहीं बल्कि सभ्यता की आत्मा, सांस्कृतिक मूल्यों आध्यात्मिक दर्शन और राष्ट्रीय पहचान का प्रतिनिधि है।बिल में यह स्पष्ट किया गया है कि इंडिया शब्द का औपचारिक उपयोग कॉलोनियल पीरियड में बढ़ा और ब्रिटिश प्रशासन ने इसे सरकारी दस्तावेज़ों में मानक रूप में स्थापित कर दिया।हालाँकि भारतीय समाज ने हमेशा साहित्य, संस्कृति, धर्म और दार्शनिक परंपरा में भारत शब्द का ही उपयोग किया। बिल में कहा गया है कि आज़ादी के 78 वर्ष बाद भी औपनिवेशिक शब्दावली का उपयोग करना एक राष्ट्रीय विसंगति है, जिसे सुधारने का यही उचित समय है। साथियों बात अगर हम संविधान का अनुच्छेद 1 और बिल का मुख्य संवैधानिक आधार इसको समझने की करें तो बिल का सबसे महत्वपूर्ण आधार भारतीय संविधान का अनुच्छेद 1 है जिसमें लिखा है:“इंडिया, दैट इज भारत, शैल बी ए यूनियन ऑफ़ स्टेट्स”बिल में कहा गया: संविधान ने भारत को मूल नाम और इंडिया को अनुवाद या वैकल्पिक नाम के रूप में रखा।हिंदी संस्करण और कई भारतीय भाषाओं के स्वीकृत संस्करणों में राष्ट्र का नाम भारत ही है।संविधान की व्याख्या के अनुसार, जब कोई एक नाम मूल है, तो राष्ट्रीय सम्मान, दस्तावेज़ों, सरकारी संचार और अंतरराष्ट्रीय पहचान में वही नाम प्राथमिक होना चाहिए।बिल में यह भी प्रस्ताव रखा गया है कि आवश्यकता होने पर संविधान के अंग्रेज़ी अनुवाद में संशोधन किया जाए ताकि इंडिया शब्द को हटाकर केवल भारत नाम ही सभी दस्तावेज़ों में प्रयोग किया जाए। साथियों बात अगर हम बिल में शामिल प्रस्तावित प्रावधानों को समझने की करें तो,बिल में निम्नलिखित मुख्य प्रावधानों का उल्लेख किया गया है:(अ) राष्ट्र का एकमात्र आधिकारिक नाम भारत घोषित किया जाए।यह प्रावधान कहता है किसरकारी दस्तावेज़, पासपोर्ट, मुद्रा, कोर्ट रिकॉर्ड, राजपत्र, मंत्रालयों के नाम, विदेश मंत्रालय के दस्तावेज़ अंतरराष्ट्रीय समझौते सबमें केवल“भारत” लिखा जाए। “रिपब्लिक ऑफ़ इंडिया” को बदलकर “रिपब्लिक ऑफ़ भारत” या “भारत गणराज्य” कियाजाए (ब) सभी संवैधानिक और गैर-संवैधानिक दस्तावेज़ों में इंडिया शब्द का उपयोगचरणबद्ध तरीके से बंद हो।बिल में 3 वर्षों की संक्रमण अवधि का प्रस्ताव रखा गया है।इस अवधि में सरकारी एजेंसियाँ अपने दस्तावेज़ वेबसाइट,साइनेज और एम्बलम अपडेट करेंगी।(क़) स्कूल, विश्वविद्यालय और अन्य अकादमिक पाठ्यक्रमों में भारत नाम को मानक रूप में लागू किया जाए।इतिहास, राजनीति, भूगोल और नागरिक शास्त्र की पुस्तकों में भारत का ही उपयोग हो।सीबीएसई, एनसीईआरटी तथा यूजीसी को निर्देश जारी करने का प्रस्ताव।(ड)अंतरराष्ट्रीय संस्थाओं के साथ भारत का आधिकारिक नाम भारतके रूप में दर्ज कराया जाए।यूएन आईएमफ, वर्ल्ड बैंक,डब्लूटीओ यूनेस्को आदि में नाम अपडेशन का प्रस्ताव।(ई)संविधान के अंग्रेज़ी अनुवाद में संशोधन करके इंडिया शब्द को हटाया जाए।सभी आधिकारिकअनुवादों में प्राथमिकता भारत को दी जाए।(फ़) नागरिकों और वैश्विक मंचों पर भी राष्ट्र का एकीकृत नाम उपयोग में लाया जाए।बिल कहता है कि “एक स्वतंत्र राष्ट्र को एक ही पहचान और एक ही नाम होना चाहिए।”इन प्रावधानों का उद्देश्य राष्ट्र की सांस्कृतिक पहचान को एकीकृतकरना और औपनिवेशिक अवशेषों से छुटकारा पाना है। साथियों बात अगर हम शहरों के नाम बदले जा सकते हैं, तो राष्ट्र का क्यों नहीं? इसको समझने की करें तो,बिल में यह बेहद मजबूत तर्क दिया गया कि भारत ने पिछले वर्षों में शहरों और राज्यों के नाम उनके ऐतिहासिक और सांस्कृतिक स्वरूप में बदले, मुंबई, चेन्नई, कोलकाता, बेंगलुरु, प्रयागराज, गुरुग्राम इत्यादि।तो सवाल यह है कि यदि शहरों और स्थानों के नाम उनके सांस्कृतिक मूल के अनुरूप बदले जा सकते हैं, तो देश के नाम को उसके मूल स्वरूप भारत में क्यों नहींलौटाया जाए?इस तर्क के अनुसार, यदि स्थानों के औपनिवेशिक नाम बदले जा सकते हैं, तो देश के नाम पर भी समान सिद्धांत लागू होना चाहिए।संस्कृति, सभ्यता और भारत की पहचान बिल का चौथा तर्क सांस्कृतिक और सभ्यतागत आयाम पर केंद्रित है। प्रस्ताव में कहा गया,भारत शब्द में हजारों वर्षों के धार्मिक, सामाजिक ऐतिहासिक और आध्यात्मिक मूल्यों की परंपरा निहित है।महाभारत,विष्णु पुराण और अन्य ग्रंथों मेंभारतवर्ष का उल्लेख मिलता है।सभ्यता और संस्कृति का वास्तविक प्रतीक भारत है,न कि इंडिया इस परिप्रेक्ष्य में बिल स्पष्ट करता है कि भारत मात्र एक नाम नहीं बल्कि एक निरंतर सभ्यता की पहचान है,जो समयराजनीति और राजवंशों से परे है।अंग्रेज़ी अनुवाद में विसंगति और सुधार का प्रस्ताव,बिल में कहा गया है कि अंग्रेज़ीट्रांसलेशन की वजह से इंडिया शब्द प्रशासनिक रूप से प्रमुख हो गया।बिल काप्रस्ताव अंग्रेज़ी अनुवाद समिति बनाई जाए।यह समिति संविधान एवं अन्यकानूनी दस्तावेज़ों के अंग्रेज़ी संस्करण को भारत नाम के अनुरूप परिवर्तित करेगी। साथियों बात अगर हम अंतरराष्ट्रीय संदर्भ,विश्व साहित्य में भारत का उल्लेख इसको समझने की करें तो बिल के अनुसार:जर्मनी ने 1800 के दशक में भारत को भारत कहा था।कई अंतरराष्ट्रीय यात्रियों, ह्वेनसांग मेगास्थनीज़, फाह्यान, अल-बिरूनी,ने भारत को एक एकीकृत सांस्कृतिक इकाई भारतवर्ष कहा है।विश्व साहित्य तथा विदेशी शोधों में भी यह शब्द अक्सर मिलता है।इस तर्क के अनुसार,भारत कीअंतरराष्ट्रीय पहचान ऐतिहासिक रूप से भारत शब्द के साथ अधिक संगत बैठती है। स्वतंत्र राष्ट्र के लिए एक नाम की आवश्यकता है बिल के अंतिम तर्क में कहा गया:एक स्वतंत्र राष्ट्र को अपनी पहचान के लिए एक ही नाम रखना चाहिए।इंडिया और भारत दोनों नामों का समानांतर उपयोग भ्रम पैदा करता है।संयुक्त राष्ट्र और वैश्विक मंचों पर एक ही नाम से जाना जाना अंतरराष्ट्रीय स्थिति को मजबूत करता है।इस दृष्टिकोण से बिल यह मांग करता है कि स्वतंत्र भारत को, संवैधानिक मान्यता प्राप्त नाम भारत के आधार पर अपनी पहचान तय करनी चाहिए। साथियों बात अगर हम इंडिया का नाम भारत होने के संभावित फायदे और नुकसान इसको समझने की करें तो इसके मुख्य फायदे यह माने जाते हैं कि भारत नाम राष्ट्र की प्राचीन सभ्यता, ऐतिहासिक विरासत और स्वदेशी पहचान को अधिक स्पष्ट रूप से दर्शाता है। इससे अंतरराष्ट्रीय मंच पर एक विशिष्ट सांस्कृतिक पहचान सुदृढ़ हो सकती है, जैसे नेपाल या ईरान ने अपने पारंपरिक नामों को अपनाकर किया।इसके अतिरिक्त भारत नाम संवैधानिक रूप से पहले से मान्य है, जिससे घरेलू स्तर पर आत्मगौरव और सांस्कृतिक एकरूपता की भावना मजबूत हो सकती है।हालाँकि, इसके नुकसान भी व्यावहारिक स्तर पर महत्वपूर्ण हैं। वैश्विक व्यापार, कूटनीति, पासपोर्ट, अंतरराष्ट्रीय संधियों, निवेश दस्तावेजों और ब्रांडिंग में इंडिया नाम लंबे समय से स्थापित है। इसे बदलने से बड़े पैमाने पर प्रशासनिक व्यय, दस्तावेजों के पुनर्लेखन की लागत और अस्थायी भ्रम उत्पन्न हो सकता है। अंतरराष्ट्रीय व्यापार साझेदारों के लिए भी संक्रमण काल चुनौतीपूर्ण होगा। इसके अलावा,इंडिया ब्रांडवैश्विक अर्थव्यवस्था में एक स्थिरपहचान रखता है; अचानक परिवर्तन विदेशी निवेशकों की धारणा को प्रभावित कर सकता है। अतः अगर हम उपरोक्त पुरे विवरण का अध्ययन कर इसका विश्लेषण करें तो हम पाएंगे कि,भारत नाम परिवर्तन बिल केवल शब्द परिवर्तन का प्रस्ताव नहीं है, बल्कि यह उस गहरे प्रश्न से संबंधित है कि आख़िर भारत अपनी राष्ट्रीय पहचान को कैसे प्रस्तुत करना चाहता है?प्रस्ताव में ऐतिहासिकता, सांस्कृतिक निरंतरता, संविधान, अंतरराष्ट्रीय संदर्भ और औपनिवेशिक विरासत सभी तत्व शामिल हैं।यदि यह प्रस्ताव स्वीकृत होता है, तो भारत की पहचान विश्व मंच पर एक प्राचीन सभ्यता आधारित राष्ट्र के रूप में और अधिक सशक्त होगी।यदि यह प्रस्ताव आगे बहस के लिए भेजा जाता है, तो यह आने वाले वर्षों में राजनीतिक, संवैधानिक और सांस्कृतिक विमर्श का केंद्र रहेगा। (यह लेखक के व्यक्तिगत विचार हैं इससे संपादक का सहमत होना अनिवार्य नहीं है) ईएमएस/12/12/2025