भारत एक सांस्कृतिक रूप से समृद्ध और नैतिक मूल्यों वाला देश माना जाता है जहाँ बच्चों को देवतुल्य समझने की परंपरा रही है। किंतु यह अत्यंत पीड़ादायक सत्य है कि आज इसी देश में नाबालिगों के खिलाफ अपराधों की संख्या निरंतर बढ़ रही है और उससे भी बड़ी चिंता का विषय यह है कि इन मामलों का निपटारा वर्षों तक अधर में लटका रहता है। पोक्सो यानी लैंगिक अपराधों से बच्चों का संरक्षण अधिनियम का उद्देश्य बच्चों को यौन अपराधों से सुरक्षा और त्वरित न्याय उपलब्ध कराना है, लेकिन वर्तमान स्थिति इसके ठीक विपरीत तस्वीर पेश करती है। आंकड़े बताते हैं कि देश में पोक्सो के 35 हजार से अधिक मामले वर्षों से लंबित चल रहे हैं और न्याय की प्रक्रिया पीड़ितों व उनके परिवारों के लिए एक असहनीय इंतजार बन गई है।2023 तक लंबित मामलों का जो विवरण सामने आया है, वह किसी भी समाज और शासन के लिए चिंता का गंभीर संकेत है। उत्तर प्रदेश में 10,556 मामले लंबित हैं जो देश में सबसे अधिक हैं। महाराष्ट्र 7,962 लंबित मामलों के साथ दूसरे स्थान पर है। तमिलनाडु में 1,910, मध्यप्रदेश में 1,736, छत्तीसगढ़ में 375 और राजस्थान में 224 मामले अभी भी न्याय की प्रतीक्षा में हैं। बिहार में 1,079, झारखंड में 415, पंजाब में 152, हरियाणा और हिमाचल प्रदेश दोनों में 101, चंडीगढ़ में 16 और उत्तराखंड में 374 मामलों की लंबितता भी यही सिद्ध करती है कि न्यायिक प्रक्रिया के बोझ ने पीड़ितों के लिए न्याय की राह लंबी और कठिन बना दी है। यह स्थिति बताती है कि देश में पोक्सो कानून का उद्देश्य जितनी तेजी से पूरा होना चाहिए था, उससे बहुत दूर है। केंद्रीय कानून एवं न्याय मंत्री अर्जुनलाल मेघवाल ने बताया है कि देश में कुल 773 फास्ट ट्रैक स्पेशल कोर्ट कार्यरत हैं जिनमें से 400 कोर्ट विशेष रूप से पोक्सो मामलों के लिए बनाए गए हैं। इन अदालतों ने अब तक 3.5 लाख से अधिक मामलों का निपटारा किया है जो निश्चित रूप से एक उपलब्धि है, लेकिन उसके बावजूद हजारों मामले अभी भी अधूरे पड़े हैं। यह दर्शाता है कि केवल अदालतों की संख्या बढ़ा देना समाधान नहीं है। न्याय प्रक्रिया में पुलिस, अभियोजन, मेडिकल रिपोर्ट, फोरेंसिक जांच, गवाही और साक्ष्य संकलन जैसे कई चरण होते हैं और इनमें होने वाली देरी पोक्सो मामलों की लंबितता को बढ़ाती रहती है। एनसीआरबी के आंकड़ों के अनुसार देश में हर तीन मिनट में एक बच्चा अपराध का शिकार बनता है और हर आठ मिनट में एक पोक्सो का मामला दर्ज होता है। इन आंकड़ों में बीते दो वर्षों के भीतर ही तेजी से वृद्धि दर्ज की गई है जो सामाजिक व प्रशासनिक दोनों स्तरों पर चेतावनी का इशारा है। 2021 से 2025 के बीच कुल 1,31,692 पोक्सो मामले दर्ज किए गए। वहीं सबसे कम मामले मिजोरम, नागालैंड, लद्दाख और अंडमान निकोबार जैसे क्षेत्रों में सामने आए हैं। एक चिंताजनक पहलू यह भी है कि कई मामलों में अपराध की प्रकृति इतनी संवेदनशील होती है कि बच्चे मानसिक रूप से टूट जाते हैं। उदाहरण के तौर पर बॉम्बे हाईकोर्ट की नागपुर बेंच ने हाल ही में एक महत्वपूर्ण निर्णय सुनाया जिसमें कहा गया कि किसी नाबालिग लड़की का हाथ पकड़ना और उसे पैसे देकर यौन संबंध का प्रस्ताव देना भी पोक्सो एक्ट के तहत दंडनीय अपराध है। यह फैसला यवतमाल जिले की घटना पर आया जिसमें एक 13 वर्षीय बच्ची से आरोपी ने दो बार यौन इरादे से संपर्क किया था। अदालत ने आरोपी को सश्रम कैद की सजा सुनाई। यह फैसला स्पष्ट करता है कि अदालतें कानून की भावना के अनुरूप सख्त दृष्टिकोण अपना रही हैं, लेकिन मामलों की संख्या में निरंतर वृद्धि और उनके निपटारे में देरी स्थिति को गंभीर बनाती जा रही है। लंबित मामलों का सबसे बड़ा कारण पुलिस जांच की धीमी गति, मेडिकल व फोरेंसिक रिपोर्ट में देर, गवाहों का न मिल पाना, पीड़ित परिवारों का दबाव में आ जाना और अदालतों में पर्याप्त संसाधनों का अभाव है। कई बार परिवार सामाजिक भय के कारण बयान देने से पीछे हट जाते हैं। ग्रामीण इलाकों में यह समस्या और अधिक गंभीर होती है जहाँ पीड़ितों को न्याय पाने के लिए सामाजिक प्रताड़ना भी सहनी पड़ती है। यह चुनौती केवल कानून और अदालतों तक सीमित नहीं है बल्कि यह एक सामाजिक समस्या भी बन चुकी है। भारत जैसा देश जहाँ माता पिता अपने बच्चों को संस्कारों और नैतिकता की शिक्षा देने पर जोर देते हैं, वहाँ बच्चों के साथ यौन अपराधों की बढ़ती घटनाएँ एक गहरी सामाजिक विडंबना को दर्शाती हैं। कई विशेषज्ञ मानते हैं कि तेजी से फैलते डिजिटल प्रभाव, अशिक्षा, सामाजिक जागरूकता की कमी, अनियंत्रित ऑनलाइन सामग्री और नकारात्मक सामाजिक प्रभावों के कारण इस प्रकार के अपराध बढ़ रहे हैं। दूसरी ओर युवा पीढ़ी में पश्चिमी दिखावे और भौतिकवाद की चकाचौंध में पारिवारिक और सांस्कृतिक मूल्यों का क्षरण भी देखा जा रहा है। यह कहना गलत नहीं होगा कि समाज तेजी से आधुनिक तो हो रहा है, लेकिन नैतिकता और चरित्र निर्माण की दिशा में पिछड़ता जा रहा है। इन बढ़ती समस्याओं के समाधान के लिए बहुआयामी सुधारों की आवश्यकता है। केवल अदालतों की संख्या बढ़ाना या कानून को कठोर बना देना पर्याप्त नहीं होगा। पुलिस तंत्र को अधिक संवेदनशील और कुशल बनाना जरूरी है। फोरेंसिक विज्ञान और डिजिटल जांच तंत्र को मजबूत किया जाना चाहिए ताकि साक्ष्य जुटाने में देरी न हो। पीड़ित बच्चों और परिवारों के लिए मनोवैज्ञानिक सहयोग की व्यवस्था होना अनिवार्य है क्योंकि कई बार मानसिक आघात उन्हें न्याय प्रक्रिया में आगे बढ़ने से रोक देता है। सामाजिक स्तर पर परिवारों और विद्यालयों को भी बच्चों को सुरक्षित व्यवहार, स्वस्थ संवाद और आत्मरक्षा के प्रति जागरूक करना चाहिए। ग्राम पंचायतों से लेकर शहरी समाज तक, हर स्तर पर सामूहिक जागरूकता कार्यक्रम चलाए जाने चाहिए ताकि बच्चों के प्रति संवेदनशीलता बढ़े। यह समझना होगा कि पोक्सो केवल कानूनी विषय नहीं, बल्कि समाज की नैतिक स्थिति का आईना है। धार्मिक और सांस्कृतिक मूल्यों पर गर्व करने वाला भारत तभी अपनी अस्मिता को सुरक्षित रख पाएगा जब वह अपने सबसे कोमल वर्ग यानी बच्चों को सुरक्षित और निर्भय वातावरण प्रदान कर सके। नाबालिगों के साथ बढ़ते यौन अपराध न केवल कानून व्यवस्था पर प्रश्नचिह्न लगाते हैं बल्कि समाज की सामूहिक चेतना की कमजोरी को भी उजागर करते हैं। यह देश का दुर्भाग्य है कि हजारों वर्षों की संस्कृति जिसकी नींव नैतिकता, मर्यादा और मानवीय संवेदना पर टिकी है, वह आज ऐसे अपराधों से आहत हो रही है। समय आ गया है कि पूरा समाज एकजुट होकर यह संकल्प ले कि बच्चों की सुरक्षा सर्वोपरि है। चाहे कानून हो, प्रशासन हो या आम नागरिक, हर व्यक्ति को यह जिम्मेदारी उठानी होगी कि देश की संस्कृति की लाज वही बचा सकता है जो अपने बच्चों की रक्षा कर सके। जब तक पोक्सो के मामलों की लंबितता समाप्त नहीं होती और अपराधों में कमी नहीं आती, तब तक न्याय और सुरक्षा दोनों अधूरे रहेंगे। बच्चों की सुरक्षा ही राष्ट्र की सुरक्षा है और यही वह बिंदु है जहाँ भारत को अपनी सांस्कृतिक शक्ति और सामाजिक चेतना को पुनर्जीवित करना होगा। कांतिलाल मांडोत/12दिसंबर2025