पाकिस्तान जैसे देश में, जहाँ पहचान की राजनीति, धार्मिक कट्टरता और इतिहास की विभाजक व्याख्याएँ अक्सर हावी रही हैं, वहाँ संस्कृत के श्लोकों और मंत्रों की गूंज किसी आश्चर्य से कम नहीं है। आज़ादी के बाद पहली बार लाहौर यूनिवर्सिटी ऑफ मैनेजमेंट साइंसेज़ में औपचारिक रूप से संस्कृत का विश्वविद्यालय स्तरीय पाठ्यक्रम शुरू होना केवल एक शैक्षणिक पहल नहीं है, बल्कि यह भारतीय उपमहाद्वीप की साझा सांस्कृतिक विरासत को फिर से चुनने की एक साहसिक कोशिश भी है। यह पहल बताती है कि भाषाएँ और संस्कृतियाँ सीमाओं से बड़ी होती हैं और इतिहास को समझने का रास्ता टकराव नहीं, संवाद से होकर जाता है। लाहौर यूनिवर्सिटी ऑफ मैनेजमेंट साइंसेज़ ने तीन महीने की विशेष संस्कृत वर्कशॉप के बाद इस पाठ्यक्रम की शुरुआत की। इस दौरान वेदों, पुराणों, संस्कृत व्याकरण और दर्शन पर विस्तार से चर्चा हुई। कक्षाओं में संस्कृत के श्लोकों की ध्वनि गूंजी और उन पर तार्किक व ऐतिहासिक विमर्श हुआ। उल्लेखनीय बात यह रही कि इसमें केवल विद्यार्थी ही नहीं, बल्कि बड़ी संख्या में रिसर्च स्कॉलर और विभिन्न पेशों से जुड़े लोग भी शामिल हुए। यह तथ्य इस बात की पुष्टि करता है कि संस्कृत को केवल धार्मिक भाषा के रूप में नहीं, बल्कि ज्ञान, दर्शन और सभ्यता की भाषा के रूप में समझने की जिज्ञासा पाकिस्तान में भी मौजूद है। संस्कृत को लेकर अक्सर यह धारणा बना दी गई है कि यह किसी एक धर्म या राष्ट्र की बपौती है। जबकि वास्तविकता यह है कि संस्कृत भारतीय उपमहाद्वीप की बौद्धिक रीढ़ रही है। दर्शन, गणित, खगोलशास्त्र, चिकित्सा, व्याकरण, काव्य और राजनीति तक, ज्ञान के असंख्य स्रोत संस्कृत में रचे गए। पाकिस्तान का भूभाग भी कभी इसी सांस्कृतिक परंपरा का हिस्सा था। तक्षशिला जैसे महान शिक्षाकेंद्र आज के पाकिस्तान में ही स्थित थे, जहाँ दूर-दूर से विद्यार्थी ज्ञानार्जन के लिए आते थे। ऐसे में संस्कृत को पूरी तरह नकार देना, अपने ही अतीत से मुँह मोड़ने जैसा होता। लाहौर यूनिवर्सिटी ऑफ मैनेजमेंट साइंसेज़ के निदेशक डॉक्टर अली उस्मानी का कथन इस पहल की आत्मा को स्पष्ट करता है। उनके अनुसार संस्कृत कोई बाहरी या पराई भाषा नहीं, बल्कि साझा विरासत है। जब विश्वविद्यालय उर्दू, पंजाबी, पश्तो, सिंधी, बलोची, अरबी और फ़ारसी पढ़ा सकता है, तो संस्कृत क्यों नहीं। कई शब्दों की जड़ें संस्कृत में हैं और उपमहाद्वीप की भाषाएँ उसी से विकसित हुई हैं। यह दृष्टिकोण केवल भाषाई नहीं, बल्कि सांस्कृतिक उदारता का परिचायक है, जो आज के दौर में दुर्लभ होती जा रही है। विश्वविद्यालय की योजना यहीं नहीं रुकती। आने वाले वर्षों में रामायण, गीता और महाभारत जैसे महाकाव्यों पर शोध और पाठ्यक्रम शुरू करने की तैयारी है। यह निर्णय विशेष रूप से महत्वपूर्ण है, क्योंकि ये ग्रंथ केवल धार्मिक आख्यान नहीं, बल्कि समाज, राजनीति, नैतिकता और मानव स्वभाव पर गहन विमर्श प्रस्तुत करते हैं। इन ग्रंथों का अकादमिक अध्ययन पाकिस्तान के विद्यार्थियों को उपमहाद्वीप के साझा इतिहास को नए दृष्टिकोण से समझने का अवसर देगा। विश्वविद्यालय का दावा है कि अगले दस से पंद्रह वर्षों में ऐसे विद्वान तैयार होंगे जो इस क्षेत्र की सांस्कृतिक जड़ों को नए सिरे से परिभाषित करेंगे। यह पहल उस पाकिस्तान में हो रही है, जहाँ लंबे समय तक पहचान की राजनीति ने इतिहास को एकांगी दृष्टि से देखने के लिए मजबूर किया। वहाँ संस्कृत पढ़ाने का निर्णय लेना केवल शैक्षणिक साहस नहीं, बल्कि वैचारिक जोखिम भी है। कट्टरपंथी सोच के साये में इस तरह की पहल का विरोध भी संभव है, लेकिन इसके बावजूद इसे आगे बढ़ाना यह दर्शाता है कि पाकिस्तानी समाज के भीतर भी एक ऐसा वर्ग है जो संवाद, अध्ययन और आत्ममंथन में विश्वास करता है। इस पूरे परिदृश्य की तुलना यदि भारत से की जाए तो एक विचित्र विरोधाभास सामने आता है। भारत, जहाँ संस्कृत और हिंदी की जड़ें गहरी हैं, वहाँ इन भाषाओं के विरोध के स्वर भी सुनाई देते हैं। भाषा को राजनीति का हथियार बनाकर उसे थोपने या नकारने की बहसें अक्सर सांस्कृतिक विमर्श को पीछे छोड़ देती हैं। ऐसे में पाकिस्तान जैसे इस्लामिक देश में संस्कृत के लिए अकादमिक मंच तैयार होना भारतीय समाज के लिए भी आत्मचिंतन का विषय है। यह सवाल उठता है कि क्या हम अपनी विरासत को राजनीतिक चश्मे से देखने लगे हैं, जबकि पड़ोसी देश में उसे अकादमिक जिज्ञासा और साझा इतिहास के रूप में समझने की कोशिश हो रही है। संस्कृत का यह पुनरागमन यह भी संकेत देता है कि सांस्कृतिक रिश्ते राजनीति से अधिक स्थायी होते हैं। भारत और पाकिस्तान के संबंध चाहे जैसे भी हों, लेकिन इतिहास, भाषा और संस्कृति की जड़ें इतनी गहरी हैं कि उन्हें पूरी तरह काटा नहीं जा सकता। संस्कृत, फ़ारसी, अरबी और स्थानीय भाषाओं का संगम ही इस क्षेत्र की पहचान रहा है। इस संगम को स्वीकार करना किसी एक विचारधारा की जीत नहीं, बल्कि मानव सभ्यता की समृद्धि की स्वीकृति है। यह पहल भविष्य की संभावनाओं के द्वार भी खोलती है। यदि पाकिस्तान में संस्कृत अध्ययन को अकादमिक मान्यता मिलती है, तो दोनों देशों के विद्वानों के बीच संवाद की नई संभावनाएँ बन सकती हैं। संयुक्त शोध, अनुवाद परियोजनाएँ और सांस्कृतिक विमर्श उपमहाद्वीप के साझा इतिहास को नए संदर्भ में प्रस्तुत कर सकते हैं। यह प्रक्रिया न केवल अतीत की गलतफहमियों को दूर करेगी, बल्कि भविष्य के लिए भी अधिक संतुलित दृष्टि विकसित करेगी। अंततः लाहौर यूनिवर्सिटी ऑफ मैनेजमेंट साइंसेज़ की यह पहल यह याद दिलाती है कि सभ्यताएँ दीवारों से नहीं, पुलों से फलती-फूलती हैं। संस्कृत की गूंज पाकिस्तान की कक्षाओं में केवल शब्दों की ध्वनि नहीं, बल्कि उस साझा स्मृति की प्रतिध्वनि है जिसे दशकों तक भुलाने की कोशिश की गई। यह सांस्कृतिक पुनर्जागरण की एक नई शुरुआत है, जो बताती है कि इतिहास को समझने का साहस जहाँ होता है, वहीं से भविष्य का मार्ग भी निकलता है। (वरिष्ठ पत्रकार, साहित्यकार स्तम्भकार) (यह लेखक के व्यक्तिगत विचार हैं इससे संपादक का सहमत होना अनिवार्य नहीं है) .../ 15 दिसम्बर /2025