लेख
17-Dec-2025
...


भारतीय राजनीति का वर्तमान दौर एक ऐसे समय से गुजर रहा है जब लोकतांत्रिक संस्थाओं, चुनावी प्रक्रियाओं और राजनीतिक नेतृत्व पर अविश्वास का स्वर पहले से कहीं अधिक तीखा हो गया है। लोकसभा में राहुल गांधी द्वारा ईवीएम, चुनाव आयोग और लोकतांत्रिक पारदर्शिता को लेकर उठाए गए सवालों ने फिर से उस बहस को तेज कर दिया है, जिसे पिछले कुछ वर्षों में बार-बार सुनने को मिला है। दिलचस्प बात यह है कि जिस इलेक्ट्रॉनिक वोटिंग मशीन का आज राहुल गांधी विरोध कर रहे हैं, उसी ईवीएम को 1987 में पायलट प्रोजेक्ट के तौर पर उनकी ही पार्टी कांग्रेस के प्रधानमंत्री राजीव गाँधी लेकर आए थे। इस ऐतिहासिक विरोधाभास ने राजनीतिक विमर्श को और भी तीखा बनाया है।राहुल गांधी ने संसद में कहा कि वोट चोरी किसी भी राष्ट्र के लिए सबसे बड़ा देशद्रोह है। उनका आरोप है कि चुनाव आयोग पर सरकार का कब्जा है, पारदर्शिता कम हो रही है और जनता के वोट पर संदेह का माहौल बन रहा है। उन्होंने यह भी सवाल उठाया कि 45 दिन बाद सीसीटीवी फुटेज नष्ट करने की अनुमति क्यों दी जाती है और क्यों सभी पार्टियों के लिए वोटर लिस्ट उपलब्ध नहीं करवाई जाती। साथ ही उन्होंने इस बात पर जोर दिया कि सीसीटीवी रिकॉर्डिंग और पोलिंग बूथ की सुरक्षा संबंधी नियमों में कठोरता लाई जाए ताकि किसी प्रकार की धांधली की आशंका न बचे। लेकिन इसी समय दूसरी ओर सत्तारूढ़ पक्ष राहुल गांधी पर पलटवार करता दिखा। गृह मंत्री अमित शाह ने नेहरू युग की नीतियों पर हमला बोलते हुए कहा कि तुष्टिकरण की राजनीति और वंदे मातरम के विरोध ने देश को विभाजन की ओर धकेला। यह टिप्पणी स्पष्ट रूप से विपक्ष की वैचारिक कमियों को उजागर करने के उद्देश्य से की गई। शाह का कहना यह है कि कांग्रेस ऐतिहासिक रूप से राष्ट्रीय मुद्दों पर भ्रमित रुख अपनाती आई है और आज भी उसका नेतृत्व उसी परिपाटी को आगे बढ़ा रहा है। राहुल गांधी की विदेश यात्राओं पर भी सत्तारूढ़ दल ने सवाल उठाए हैं। आरोप यह है कि राहुल विदेशों में जाकर लोकतंत्र की स्थिति पर प्रश्न उठाते हैं और भारत की छवि को नुकसान पहुँचाते हैं। यह भी कहा गया कि वे विदेशों के मंचों पर संविधान, सरकार और न्यायिक संस्थाओं को लेकर नकारात्मक टिप्पणियाँ करते हैं, जिससे बाहरी शक्तियों को भारत के विरुद्ध नैरेटिव गढ़ने का अवसर मिलता है। यह भी राजनीति का एक अहम पहलू है कि सत्ता पक्ष विपक्ष के इस व्यवहार को देश की गरिमा के विरुद्ध मानता है। दूसरी ओर प्रियंका गांधी ने प्रधानमंत्री मोदी की विदेश यात्राओं पर सवाल खड़े किए। उनका तर्क यह है कि प्रधानमंत्री इतना अधिक विदेश क्यों जाते हैं और क्या यह देश के संसाधनों का दुरुपयोग नहीं है। हालांकि सत्तारूढ़ पक्ष का जवाब बिल्कुल अलग है। भाजपा का कहना है कि प्रधानमंत्री विदेश इसलिए जाते हैं ताकि भारत की अर्थव्यवस्था, रक्षा, कूटनीति और वैश्विक प्रतिष्ठा को मजबूत किया जा सके। उनका उद्देश्य देश के हितों को आगे बढ़ाना है न कि आलोचना करना या नकारात्मक छवि पेश करना। इस पूरे विवाद का एक महत्वपूर्ण पहलू यह है कि विपक्ष अपनी भूमिका को किस तरह परिभाषित कर रहा है। अक्सर यह कहा जाता है कि कांग्रेस के पास सत्तारूढ़ दल को घेरने के लिए मजबूत और ठोस मुद्दे नहीं बचते। इस दावे में काफी हद तक सच्चाई भी दिखाई देती है, क्योंकि कांग्रेस बार-बार वही मुद्दे उठाती दिखाई देती है जो वर्षों से उठाए जा रहे हैं, परंतु उनका कोई ठोस समाधान या तथ्यात्मक समर्थन जनता के सामने प्रस्तुत नहीं किया जाता। यह भी आरोप है कि कांग्रेस के नेतृत्व की रणनीति अक्सर भ्रमित और असंगठित होती है, जिससे सत्तारूढ़ दल को राजनीतिक लाभ मिलता है और वह चुनावों में लगातार सफलता प्राप्त करती रहती है। इस परिस्थिति में ईवीएम पर उठाए गए सवाल सबसे ज्यादा विवाद का केंद्र बनते हैं। यह तथ्य कि कांग्रेस सरकार ने ही ईवीएम की शुरुआत की थी, इस बहस को और पेचीदा बना देता है। यदि ईवीएम में कमी थी या वह लोकतांत्रिक रूप से अस्वीकार्य थीं, तो विपक्ष ने वर्षों तक इस मुद्दे को न केवल नज़रअंदाज़ किया बल्कि कई चुनावों में जीत भी हासिल की। अब जबकि चुनावों में लगातार हार का माहौल बनता है, उसी मशीनरी पर सवाल उठाना कई लोगों को राजनीतिक हताशा का परिणाम प्रतीत होता है। फिर भी लोकतंत्र में विपक्ष का सवाल उठाना गलत नहीं है। किसी भी लोकतंत्र की मजबूती इसी बात में है कि उसकी संस्थाओं पर सतत निगरानी बनी रहे और पारदर्शिता बढ़े। लेकिन विपक्ष का यह भी दायित्व है कि वह सिर्फ सवाल न पूछे बल्कि उन सवालों के पीछे ठोस प्रमाण भी दे। यदि भरोसे की कमी केवल राजनीतिक लाभ के लिए पैदा की जा रही है, तो यह पूरे लोकतंत्र को कमजोर कर सकती है। यह बातें चुनाव आयोग और संस्थागत विश्वास दोनों पर लागू होती हैं। सत्तारूढ़ दल की बयानबाजी का भी अपना राजनीतिक लक्ष्य है। वह विपक्ष को राष्ट्रविरोधी, असंगठित और भ्रमित बताकर जनता के सामने अपनी छवि को मजबूत बनाता है। यह रणनीति कई वर्षों से चुनावी सफलता दिलाती आई है। जनता, खासकर युवा मतदाता, स्थिरता और मजबूत नेतृत्व को प्राथमिकता देते हैं। इस संदर्भ में भाजपा का यह संदेश कि प्रधानमंत्री देश की विदेश यात्राएँ राष्ट्रीय हित के लिए करते हैं, जनता के एक बड़े वर्ग को प्रभावित करता है। यह कहना गलत नहीं होगा कि वर्तमान राजनीतिक माहौल में अविश्वास दोनों ओर है। विपक्ष सरकार और संस्थाओं पर अविश्वास जताता है, जबकि सरकार विपक्ष के इरादों पर संदेह करती है। यह अविश्वास लोकतांत्रिक विमर्श को कमजोर करता है और जनता में भ्रम पैदा करता है। इस स्थिति का समाधान केवल एक ही है कि राजनीतिक पक्ष तथ्यों, प्रमाणों और नैतिकता के आधार पर अपनी बातें रखें। लोकतंत्र में विश्वास होने का अर्थ है कि चुनाव आयोग, न्यायपालिका, प्रेस, संसद और जनता की समझ पर भरोसा रखा जाए। आलोचना जरूरी है, परंतु आलोचना तभी प्रभावी होती है जब वह तथ्य आधारित हो।राहुल गांधी का यह कहना कि वोट चोरी देशद्रोह है, अपने आप में लोकतांत्रिक दृष्टि से महत्वपूर्ण बात है। परंतु इस आरोप की गंभीरता तभी स्वीकार्य होगी जब इसके साथ पुख्ता तथ्य और प्रमाण भी पेश किए जाएँ। अन्यथा यह राजनीतिक विमर्श में केवल शोर बनकर रह जाता है। दूसरी ओर सत्तारूढ़ दल को भी यह समझना होगा कि विपक्ष का प्रश्न उठाना देशविरोध नहीं बल्कि लोकतंत्र का हिस्सा है। भारतीय राजनीति की यह तल्खी आने वाले समय में और भी तीखी हो सकती है, विशेषकर जब चुनाव नजदीक आते हैं। जनता अब पहले से अधिक सजग है और बिना प्रमाण के सवाल या बिना नीति के आरोप उन्हें प्रभावित नहीं कर पाएँगे। आज जरूरत है कि दोनों पक्ष लोकतंत्र के मूल स्वरूप को समझें और अपने-अपने राजनीतिक हित से ऊपर उठकर व्यवहार करें। आखिरकार लोकतंत्र वही चलता है जिसमें विपक्ष मजबूत हो, सत्ता जवाबदेह हो और जनता सूचित निर्णय लेने में सक्षम हो। वर्तमान परिस्थितियों में जिम्मेदारी दोनों पक्षों पर समान रूप से आती है। यह समय भावनात्मक आरोपों का नहीं बल्कि ठोस राजनीतिक Simply का है और इसी मार्ग पर चलकर भारतीय लोकतंत्र को अधिक समृद्ध और स्थिर बनाया जा सकता है। ईएमएस/10/12/2025