भारत की राजधानी दिल्ली आज वायु प्रदूषण के कारण कराह रही है। इसी के साथ दिल्ली आज केवल राजनीतिक और प्रशासनिक शक्ति का केंद्र नहीं रही, बल्कि देश में बढ़ते पर्यावरणीय संकट का सबसे बड़ा प्रतीक भी बन चुकी है। दुनिया के तीन सबसे अधिक प्रदूषित महानगरों में दिल्ली का शामिल होना किसी एक वर्ष या एक सरकार की विफलता नहीं, बल्कि वर्षों से चली आ रही सामूहिक लापरवाही और असंवेदनशीलता का परिणाम है। विडंबना यह है कि दिल्ली में देश की सर्वोच्च संवैधानिक संस्थाएं, न्यायपालिका और नीति-निर्माण के सभी प्रमुख केंद्र मौजूद हैं, फिर भी प्रदूषण की भयावह स्थिति पर प्रभावी और स्थायी समाधान आज तक नहीं निकाला जा सका है। पिछले कई वर्षों से दिल्ली का प्रदूषण राजनीतिक आरोप–प्रत्यारोप का विषय बना रहा है। जब दिल्ली में आम आदमी पार्टी की सरकार थी, तब तत्कालीन मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल ने बढ़ते प्रदूषण के लिए हरियाणा, पंजाब, उत्तर प्रदेश और राजस्थान को जिम्मेदार ठहराया। वहीं भारतीय जनता पार्टी ने इसे राजनीति करार देते हुए दिल्ली सरकार को कठघरे में खड़ा किया था। इस दौरान मामले हाईकोर्ट और सुप्रीम कोर्ट तक पहुंचे, नेशनल ग्रीन ट्रिब्यूनल (एनजीटी) ने भी संज्ञान लिया, लेकिन जमीनी स्तर पर ठोस और दीर्घकालिक समाधान नहीं हो सका। यह कहना गलत नहीं होगा कि प्रदूषण जैसी जटिल और बहु-राज्यीय समस्या से निपटने की सबसे बड़ी जिम्मेदारी केंद्र सरकार की थी। केंद्र को चाहिए था कि वह पड़ोसी राज्यों के साथ समन्वय बनाकर कृषि अवशेष जलाने, औद्योगिक प्रदूषण, निर्माण गतिविधियों और वाहनों से निकलने वाले धुएं पर एक साझा रणनीति तैयार करता। दुर्भाग्य से ऐसे प्रयास या तो आधे-अधूरे रहे या केवल कागजों तक सीमित रह गए। इसी तरह एनजीटी से भी जिस सख्ती और निरंतर निगरानी की अपेक्षा थी, वह देखने को नहीं मिली, परिणामस्वरूप समस्या साल दर साल और गंभीर होती चली गई। आज स्थिति यह है कि दिल्ली में “ट्रिपल इंजन सरकार” है, यानी केंद्र, राज्य और नगर निगम, तीनों जगह भारतीय जनता पार्टी का शासन है। जो आरोप कभी भाजपा, आम आदमी पार्टी पर लगाती थी, वही सवाल आज भाजपा से पूछे जा रहे हैं। चिंता की बात यह है कि इस वर्ष प्रदूषण ने पिछले सभी रिकॉर्ड तोड़ दिए हैं। यह केवल असुविधा का विषय नहीं रहा, बल्कि सीधे तौर पर जानलेवा बन चुका है। दिल्ली के डॉक्टरों द्वारा दी जा रही चेतावनियां बेहद गंभीर हैं। अस्पतालों में मरीजों की जांच के दौरान फेफड़ों की स्थिति कोरोना महामारी के समय जैसी पाई जा रही है। बच्चों और बुजुर्गों पर इसका सबसे ज्यादा असर पड़ रहा है। हालात इतने खराब हैं कि डॉक्टर लोगों को सलाह दे रहे हैं कि यदि संभव हो तो प्रदूषण कम होने तक कुछ समय के लिए दिल्ली छोड़ दें। किसी भी राजधानी के लिए इससे अधिक शर्मनाक और खतरनाक स्थिति क्या हो सकती है? यह संकट केवल दिल्ली तक सीमित नहीं है। देश के उत्तरी राज्यों के कई शहरों में हवा की गुणवत्ता लगातार गिरती जा रही है, लेकिन इसके बावजूद केंद्र सरकार और राजनीतिक दलों की असंवेदनशीलता चिंता पैदा करती है। हालात की गंभीरता का अंदाजा इसी से लगाया जा सकता है कि कुछ देशों ने अपने नागरिकों के लिए दिल्ली यात्रा को लेकर एडवाइजरी जारी कर दी है। इससे भारत की वैश्विक छवि को भी गहरा नुकसान पहुंच रहा है। और भी चिंताजनक यह है कि जब सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश यह कहने को मजबूर हों कि उनके पास कोई “जादू की छड़ी” नहीं है, तो आम नागरिक खुद को पूरी तरह असहाय महसूस करता है। जिस दिल्ली में सत्ता, व्यवस्था और संसाधनों का संकेंद्रण है, अगर वहां लोगों का जीवन सुरक्षित नहीं है, तो बाकी देश के हिस्सों का भविष्य क्या होगा, यह सवाल स्वाभाविक है। आज जरूरत है कि केंद्र और राज्य सरकारें राजनीति से ऊपर उठकर प्रदूषण को राष्ट्रीय आपात स्थिति की तरह लें। न्यायिक संस्थाओं को भी केवल टिप्पणियों तक सीमित न रहकर प्रभावी निगरानी और सख्त अनुपालन सुनिश्चित करना होगा। समय रहते यदि सभी अपनी जिम्मेदारी नहीं समझेंगे, तो प्रदूषण केवल हवा को ही नहीं, बल्कि देश के भविष्य को भी जहरीला बना देगा। यह स्थिति काफी भयावह है। इस हालात से निकलने के लिए सभी को अपनी-अपनी जिम्मेदारी समझना होगा, तभी समाधान संभव है। एसजे/ 21 दिसम्बर /2025