लेख
22-Dec-2025
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भारत में सड़कें विकास की धमनियां मानी जाती हैं, लेकिन यही सड़कें हर साल लाखों परिवारों के लिए दर्द और मातम की वजह भी बन रही हैं। देश में हर वर्ष करीब पांच लाख सड़क दुर्घटनाएं होती हैं, जिनमें लगभग 1.8 लाख लोगों की जान चली जाती है। यह आंकड़े सिर्फ संख्या नहीं हैं, बल्कि वे सपने हैं जो अधूरे रह जाते हैं। वे परिवार हैं जो जीवनभर का खालीपन झेलने को मजबूर हो जाते हैं। सबसे चिंताजनक तथ्य यह है कि इन हादसों में मारे जाने वालों में लगभग 66 प्रतिशत लोग 18 से 34 वर्ष की आयु वर्ग के होते हैं, यानी देश की सबसे युवा, सबसे ऊर्जावान और उत्पादक आबादी। यह स्थिति न केवल सामाजिक चिंता का विषय है, बल्कि आर्थिक और राष्ट्रीय विकास के लिए भी गंभीर चेतावनी है। राज्यसभा में प्रश्नकाल के दौरान केंद्रीय सड़क परिवहन एवं राजमार्ग मंत्री नितिन गडकरी ने इन आंकड़ों को रखते हुए सरकार की चिंता और प्रयासों दोनों को सामने रखा। उन्होंने स्वीकार किया कि सड़क सुरक्षा को लेकर कानून, नियम और सुधारों के बावजूद अपेक्षित सफलता नहीं मिल पाई है। मंत्री ने बताया कि दुर्घटनाओं में बड़ी संख्या में मौतें इसलिए होती हैं क्योंकि घायलों को समय पर इलाज नहीं मिल पाता। एक आईआईएम के अध्ययन का हवाला देते हुए उन्होंने कहा कि यदि सड़क हादसे के बाद घायलों को दस मिनट के भीतर चिकित्सा सहायता मिल जाए, तो हर साल करीब पचास हजार लोगों की जान बचाई जा सकती है। यह आंकड़ा बताता है कि समस्या केवल सड़क की गुणवत्ता या वाहनों की संख्या तक सीमित नहीं है, बल्कि आपातकालीन स्वास्थ्य व्यवस्था, त्वरित प्रतिक्रिया प्रणाली और प्रशासनिक समन्वय की भी है। देश में सड़क दुर्घटनाओं की भयावहता को समझने के लिए यह जानना जरूरी है कि युवा वर्ग सबसे अधिक प्रभावित क्यों है। तेजी से बढ़ती मोटराइजेशन, जोखिम भरी ड्राइविंग, तेज रफ्तार, शराब या नशे में वाहन चलाना, हेलमेट और सीट बेल्ट की अनदेखी, और ट्रैफिक नियमों के प्रति लापरवाही इसके प्रमुख कारण हैं। इसके साथ ही, कई जगहों पर सड़क डिजाइन, साइन बोर्ड, लाइटिंग और ब्लैक स्पॉट्स की अनदेखी भी दुर्घटनाओं को न्योता देती है। सरकार ने इन समस्याओं से निपटने के लिए ब्लैक स्पॉट सुधार, सड़क सुरक्षा ऑडिट, जागरूकता अभियान और कड़े कानून लागू किए हैं, लेकिन जमीनी स्तर पर इनका असर अभी भी सीमित दिखाई देता है। सड़क सुरक्षा के साथ-साथ देश में राष्ट्रीय राजमार्गों के निर्माण की रफ्तार भी एक बड़ा मुद्दा है। मंत्री ने सदन में बताया कि वर्तमान में स्वीकृत 574 राष्ट्रीय राजमार्ग परियोजनाएं तय समय से पीछे चल रही हैं। इन परियोजनाओं की कुल लागत करीब 3.50 लाख करोड़ रुपये है, जो अपने आप में बताती है कि देरी का असर केवल निर्माण तक सीमित नहीं है, बल्कि अर्थव्यवस्था, रोजगार और क्षेत्रीय विकास पर भी पड़ता है। इन विलंबित परियोजनाओं में से करीब 300 परियोजनाएं एक साल से कम समय से, 253 परियोजनाएं एक से तीन साल से और 21 परियोजनाएं तीन साल से अधिक समय से लंबित हैं। यह स्थिति यह सवाल खड़ा करती है कि आखिर इतनी बड़ी संख्या में परियोजनाएं समय पर पूरी क्यों नहीं हो पा रही हैं। मंत्री ने इसके पीछे कई कारण गिनाए। भूमि अधिग्रहण सबसे बड़ी बाधा बना हुआ है, जहां कानूनी विवाद, मुआवजे को लेकर असहमति और स्थानीय विरोध परियोजनाओं को रोक देते हैं। इसके अलावा, वन और वन्यजीव मंजूरी जैसी पूर्व-स्वीकृतियों में देरी भी बड़ी समस्या है। करीब 133 परियोजनाएं ऐसी हैं, जिनकी लागत कम है, लेकिन वे अभी तक आवश्यक मंजूरियां नहीं मिलने के कारण शुरू ही नहीं हो सकी हैं। धन की उपलब्धता, ठेकेदारों की क्षमता, पर्यावरणीय संतुलन और राज्यों के साथ समन्वय जैसे मुद्दे भी निर्माण की गति को प्रभावित करते हैं। इसका नतीजा यह होता है कि जहां एक ओर नई सड़कें बनने में देरी होती है, वहीं दूसरी ओर पुरानी और भीड़भाड़ वाली सड़कों पर दुर्घटनाओं का जोखिम बना रहता है। इन चुनौतियों के बीच सरकार टोल कलेक्शन व्यवस्था में बड़े बदलाव की तैयारी कर रही है, जिसे सड़क यात्रा को सुगम और सुरक्षित बनाने की दिशा में एक अहम कदम माना जा रहा है। नितिन गडकरी ने बताया कि 2026 के अंत तक देशभर में सैटेलाइट आधारित टोल कलेक्शन सिस्टम लागू कर दिया जाएगा। यह प्रणाली सैटेलाइट, आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस और नंबर प्लेट पहचान तकनीक पर आधारित होगी, जिसमें फास्टैग का भी इस्तेमाल किया जाएगा। इसका सबसे बड़ा लाभ यह होगा कि वाहन बिना रुके, करीब 30 किलोमीटर प्रति घंटे की रफ्तार से टोल प्लाजा पार कर सकेंगे और स्वचालित रूप से टोल कट जाएगा। वर्तमान में मैनुअल टोल प्रणाली में जहां तीन से दस मिनट तक का समय लग जाता था, वहीं फास्टैग के आने से यह समय घटकर करीब 60 सेकंड हुआ। नई सैटेलाइट आधारित व्यवस्था का लक्ष्य है कि टोल पर रुकने की जरूरत ही न पड़े। इससे न केवल यात्रियों का समय बचेगा, बल्कि ईंधन की भी बड़ी बचत होगी। मंत्री के अनुसार, इस प्रणाली से हर साल करीब 1,500 करोड़ रुपये के ईंधन की बचत होगी, क्योंकि टोल प्लाजा पर रुकने और दोबारा गति पकड़ने में होने वाला ईंधन खर्च कम हो जाएगा। इसके साथ ही सरकार के राजस्व में भी करीब 6,000 करोड़ रुपये की बढ़ोतरी होने का अनुमान है। हालांकि, तकनीक आधारित इस बदलाव के साथ कुछ सवाल और चुनौतियां भी जुड़ी हैं। डेटा सुरक्षा, गोपनीयता, सिस्टम की सटीकता और ग्रामीण तथा दूरदराज इलाकों में इसके प्रभावी क्रियान्वयन को लेकर सरकार को विशेष ध्यान देना होगा। साथ ही, यह सुनिश्चित करना भी जरूरी होगा कि टोल की गणना पारदर्शी हो और आम नागरिकों पर अतिरिक्त आर्थिक बोझ न पड़े। यदि यह प्रणाली सही ढंग से लागू होती है, तो यह न केवल यात्रा को आसान बनाएगी, बल्कि ट्रैफिक जाम और उससे होने वाली दुर्घटनाओं को भी कम करने में मदद कर सकती है। सड़क सुरक्षा, निर्माण की गति और टोल व्यवस्था,ये तीनों मुद्दे आपस में गहराई से जुड़े हुए हैं। बेहतर सड़कें और सुव्यवस्थित ट्रैफिक सिस्टम जहां यात्रा को तेज और आरामदायक बनाते हैं, वहीं सुरक्षा उपायों की अनदेखी इन्हें जानलेवा भी बना सकती है। सरकार की नीतियां और योजनाएं तभी सफल होंगी, जब उनके साथ सख्त क्रियान्वयन, जन-जागरूकता और जवाबदेही भी जुड़ेगी। सड़क पर चलने वाला हर व्यक्ति चाहे वह पैदल यात्री हो, दोपहिया चालक हो या भारी वाहन का ड्राइवर ,सुरक्षा नियमों का पालन करे, तभी दुर्घटनाओं में वास्तविक कमी लाई जा सकती है। आज जरूरत इस बात की है कि सड़क हादसों को केवल आंकड़ों की तरह न देखा जाए, बल्कि हर मौत को एक चेतावनी के रूप में लिया जाए। युवा आबादी का इस तरह सड़क दुर्घटनाओं में खत्म होना देश के भविष्य पर सीधा प्रहार है। समय पर इलाज, मजबूत आपातकालीन सेवाएं, सुरक्षित सड़क डिजाइन, जिम्मेदार ड्राइविंग और आधुनिक तकनीक आदि इन सभी के समन्वय से ही भारत की सड़कें विकास की राह पर चलने के साथ-साथ जीवन की रक्षा भी कर सकेंगी। अगर ऐसा नहीं हुआ, तो विकास की तेज रफ्तार के बीच इंसानी जानों की कीमत चुकानी पड़ती रहेगी, और यही किसी भी सभ्य समाज के लिए सबसे बड़ी विफलता होगी। (वरिष्ठ पत्रकार, साहित्यकार, स्तम्भकार) (यह लेखक के व्य‎‎‎क्तिगत ‎विचार हैं इससे संपादक का सहमत होना अ‎निवार्य नहीं है) .../ 22 ‎दिसम्बर /2025