बांग्लादेश में अल्पसंख्यक हिंदुओं की स्थिति और उस पर भारतीय विमर्श में व्याप्त चुनिंदा संवेदनशीलता एक गंभीर और विचारणीय विषय है। बांग्लादेश में दीपचंद की हालिया हत्या और भारतीय गलियारों मेंउसके बाद की राजनीतिक चुप्पी कई सवाल खड़े करती है। यह भारतीय राजनीति का वह विद्रूप चेहरा है जो इन विसंगतियों और भेदभावपूर्ण दृष्टिकोणों का विश्लेषण करने की असीमित सामग्री मुहैया कराता है। हाल के दिनों में बांग्लादेश में हिंदू अल्पसंख्यकों के खिलाफ हिंसा की खबरें विचलित करने वाली रही हैं। दीपचंद की नृशंस हत्या इसी सिलसिले की एक और काली कड़ी है। लेकिन इस घटना से भी अधिक चौंकाने वाली बात है भारतीय राजनीतिक गलियारों में पसरा सन्नाटा। यह चुप्पी उस समय और भी गहरी लगने लगती है जब हम इसकी तुलना वैश्विक स्तर पर होने वाली अन्य घटनाओं से करते हैं। मैं व्यक्तिगत तौर पर अनुभव किया है कि मामला हमारे देश के भीतर का हो या फिर सीमा पार का, यदि वहां जुल्म का शिकार कोई हिंदू है तो तुष्टिकरण की शिकार भारतीय राजनीति में इसका चर्चा तक नहीं होता। लेकिन यदि किसी अल्पसंख्यक पर, खासकर मुस्लिम समुदाय के व्यक्ति के साथ सात समुंदर पार भी कोई घटना घटित हो जाए तो भारत में हाय तौबा मच जाती है। हमें याद करना होगा, जब इजरायल और फिलिस्तीन के बीच संघर्ष होता है, तो भारत की सड़कों से लेकर संसद तक विरोध की लहर देखी जाती है। मानवाधिकारों के नाम पर रैलियां निकाली जाती हैं और विदेशी धरती पर हो रहे अन्याय के खिलाफ भारतीय नेता मुखर होकर बयान देते हैं। निस्संदेह, निर्दोषों की जान कहीं भी जाए, वह दुखद है। लेकिन प्रश्न तब उठता है जब पड़ोस के देश बांग्लादेश में, जहाँ की संस्कृति और इतिहास भारत से गहराई से जुड़े हुए हैं, वहां हिंदुओं पर हो रहे अत्याचारों पर अधिकांश नेता मौन साध लेते हैं। क्या ढाका में मरने वाले दीपचंद का जीवन गाजा में मरने वाले किसी व्यक्ति से कम मूल्यवान है? बेशक नहीं, किंतु तुष्टीकरण की राजनीति और चयनात्मक संवेदनशीलता इस भेदभाव को उजागर तो करती ही है। स्पष्ट तौर पर लिखा जाए तो यह सत्य है कि भारतीय राजनीति में सेकुलरिज्म अर्थात पंथ निरपेक्षता की परिभाषा वोट बैंक के समीकरणों में उलझ कर रह गई है। जब किसी घटना में पीड़ित पक्ष बहुसंख्यक समुदाय (हिंदू) से होता है, तो कई राजनीतिक दल इसे दूसरे देश का आंतरिक मामला कहकर पल्ला झाड़ लेते हैं। इसके विपरीत, यदि पीड़ित पक्ष किसी विशिष्ट अल्पसंख्यक समुदाय से हो, तो उसे तुरंत राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय मानवाधिकारों के चश्मे से देखा जाने लगता है। भारतीय राजनीति में नुकसान और फायदे की सोच के चलते ऐसी प्रमुख विसंगतियाँ व्यापक पैमाने पर स्थापित हो गई हैं। इसे क्रियान्वयनों एवंप्रदर्शनों का दोहरा मापदंड भी कहा जा सकता है। उदाहरण के लिए स्वीडन में कुरान जलाने की घटना पर गौर किया जाना उचित रहेगा। हजारों किलोमीटर दूर उस राष्ट्र में मुस्लिम समाज का पवित्र ग्रंथ कुरान जलाया जाता है, लेकिन भारत के कई शहरों में हिंसक प्रदर्शन होते हैं। वहीं जब पड़ोसी मुल्क बांग्लादेश में मंदिरों को तोड़ा जाता है, हिंदुओं की हत्या की जाती है, उनके घर जला दिए जाते हैं हिंदू महिलाओं बालिकाओं के बलात्कार होते हैं, तब अधिकांश भारतीय राजनेताओं और राजनीतिक दलों की तीखी एवं त्वरित प्रतिक्रिया नदारद बनी रहती है। ऐसे में आक्रामक बयानों का तो एक प्रकार से अकाल ही पड़ जाता है। फिलिस्तीन के समर्थन में ट्वीट करने वाले मानवाधिकार कार्यकर्ता और राजनेता बांग्लादेशी हिंदुओं के पलायन एवं हत्याओं पर चुप्पी साध लेते हैं। तो क्या यह मान लेना अनुचित है कि भारत में मानवीय संवेदनाओं का राजनीतिकरण हो गया है। किसी भी समाज के लिए यह खतरनाक संकेत है कि उसकी संवेदनाएं पीड़ित की पहचान देखकर जागती हों। यदि अन्याय हुआ है, तो वह अन्याय है—चाहे वह मुसलमान के साथ हो या हिंदू के साथ। जब राजनेता और बुद्धिजीवी केवल एक वर्ग के प्रति सहानुभूति दिखाते हैं और दूसरे वर्ग की पीड़ा को नजरअंदाज करते हैं, तो वे समाज में अविश्वास की खाई को और चौड़ा करते हैं। किंतु बुद्धिजीवी लोगों को इस रहस्यमई चुप्पी के निहितार्थ स्पष्ट समझ में आते हैं। बांग्लादेश में हिंदुओं पर हो रहे जुल्मों पर भारतीय राजनेताओं की यह सुविधाजनक चुप्पी न केवल वहां के अल्पसंख्यकों का मनोबल तोड़ती है, बल्कि कट्टरपंथी ताकतों को भी बढ़ावा देती है। उन्हें लगता है कि उनके कृत्यों का कोई अंतरराष्ट्रीय राजनीतिक विरोध नहीं होगा। लिखने का आशय यह है कि भारत हो अथवा कोई दूसरा देश, मानवाधिकार सार्वभौमिक होने चाहिए, चयनात्मक नहीं। यदि हम गाजा के लिए आवाज उठाते हैं, तो हमें ढाका के दीपचंद के लिए भी उतनी ही मजबूती से बोलना होगा। भारत के राजनेताओं को यह समझना होगा कि तुष्टीकरण की राजनीति अंततः न्याय के सिद्धांतों की हत्या करती है। जब तक मानवता को धर्म के चश्मे से देखा जाता रहेगा, तब तक दुनिया से अन्याय समाप्त नहीं होगा। ईएमएस/23/12/2025