इतिहास में कुछ तिथियाँ ऐसी होती हैं जो केवल किसी महान व्यक्ति का जन्मदिन भर नहीं होतीं, बल्कि वे विचारों, मूल्यों और पूरी सभ्यता की दिशा को दर्शाती हैं। 25 दिसंबर भी ऐसी ही एक विशेष तारीख है। इस दिन भारत दो महान व्यक्तित्वों—पंडित मदन मोहन मालवीय और अटल बिहारी वाजपेयी—का जन्म स्मरण करता है। दोनों ही ऐसे युगद्रष्टा थे जिनके जीवन में राजनीति, संस्कृति, नैतिकता, शिक्षा और साहित्य एक-दूसरे से अलग नहीं थे, बल्कि एक-दूसरे के पूरक थे। इसी दिन पूरी दुनिया में ईसाई समुदाय क्रिसमस मनाता है, जो ईसा मसीह के जन्म का पर्व है और प्रेम, करुणा, क्षमा तथा आत्मचिंतन का संदेश देता है। इस तरह 25 दिसंबर भारतीय और वैश्विक मूल्यों का अनोखा संगम बन जाता है। पंडित मदन मोहन मालवीय का जन्म 25 दिसंबर 1861 को प्रयागराज में हुआ था। वह समय भारत के लिए अत्यंत कठिन था। देश एक ओर अंग्रेज़ी शासन के अधीन था, तो दूसरी ओर अपनी सांस्कृतिक पहचान को लेकर असमंजस में था। पश्चिमी शिक्षा नए अवसरों के द्वार खोल रही थी, लेकिन इसके साथ यह खतरा भी था कि भारतीय समाज अपनी जड़ों से कट सकता है। मालवीय जी ने इस चुनौती का समाधान टकराव में नहीं, बल्कि संतुलन और समन्वय में खोजा। उनका स्पष्ट मत था कि शिक्षा केवल नौकरी दिलाने का साधन नहीं होनी चाहिए, बल्कि वह राष्ट्र की आत्मा और चरित्र का निर्माण करे। इसी विचार से प्रेरित होकर उन्होंने 1916 में काशी हिंदू विश्वविद्यालय (बीएचयू) की स्थापना की। यह विश्वविद्यालय केवल एक शैक्षणिक संस्था नहीं था, बल्कि भारतीय सभ्यता की आत्मा को आधुनिक युग से जोड़ने का एक प्रयास था। यहाँ आधुनिक विज्ञान और तकनीक के साथ-साथ भारतीय दर्शन और परंपरा को भी समान महत्व दिया गया। मालवीय जी की दूरदृष्टि अपने समय से बहुत आगे थी। उन्होंने इंजीनियरिंग, चिकित्सा विज्ञान, आयुर्वेद, संगीत, संस्कृत, ज्योतिष, पत्रकारिता और आधुनिक चिकित्सा जैसे विषयों को एक ही परिसर में स्थान दिया। उस समय शायद ही किसी ने कल्पना की हो कि इतने विविध विषय एक साथ पढ़ाए जा सकते हैं। इसके अलावा मालवीय जी ने विश्वविद्यालय में उर्दू, अरबी और फ़ारसी जैसे विषयों के अलग विभाग भी स्थापित कराए। यह उनकी उदार सनातन सोच का प्रमाण था। वे अच्छी तरह समझते थे कि भारत की सभ्यता बहुभाषी और बहुधार्मिक रही है और हर भाषा व ज्ञान परंपरा का अपना महत्व है। उनके लिए ज्ञान का कोई एक धर्म या भाषा नहीं थी; जहाँ से भी सद्बुद्धि मिले, वह सम्मान के योग्य थी। मालवीय जी स्वयं एक प्रतिष्ठित पत्रकार और संपादक थे। उन्होंने हिंदुस्तान, सनातन धर्म, मर्यादा और अभ्युदय जैसे समाचार पत्रों का संपादन किया। वे ‘मकरंद’ उपनाम से कविताएँ भी लिखते थे। साहित्य और पत्रकारिता उनके लिए केवल अभिव्यक्ति का माध्यम नहीं थे, बल्कि समाज को दिशा देने का साधन थे। राजनीतिक रूप से वे भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के दो बार अध्यक्ष रहे और अपने नैतिक प्रभाव के कारण ‘हिंदू हृदय सम्राट’ कहलाए। मालवीय जी के लिए सनातन का अर्थ संकीर्णता या कट्टरता नहीं था। उनके लिए सनातन का मतलब था सत्य, सहिष्णुता, करुणा और संवाद। वे धार्मिक थे, लेकिन कभी अंधविश्वासी नहीं हुए। वे राष्ट्रवादी थे, लेकिन कभी विभाजनकारी नहीं बने। राजनीति में वे संवाद, संवैधानिक तरीकों और नैतिक संघर्ष को अधिक महत्व देते थे। उनके लिए सत्ता स्वयं लक्ष्य नहीं थी, बल्कि समाज और राष्ट्र की सेवा का साधन थी। एक पीढ़ी बाद 25 दिसंबर 1924 को ग्वालियर में जन्मे अटल बिहारी वाजपेयी ने भारतीय राजनीति को मानवीय संवेदना और वैचारिक गहराई प्रदान की। वे मध्य प्रदेश से जन्मे पहले प्रधानमंत्री थे, हालांकि उनका संसदीय क्षेत्र उत्तर प्रदेश का लखनऊ था। यह तथ्य ही उनके अखिल भारतीय व्यक्तित्व को दर्शाता है। वे तीन बार भारत के प्रधानमंत्री बने और हर कार्यकाल में उन्होंने व्यवहारिकता, नैतिक साहस और मानवीय दृष्टिकोण का संतुलन बनाए रखा। मालवीय जी की तरह वाजपेयी जी भी पत्रकार और संपादक थे। उन्होंने वीर अर्जुन, स्वदेश, पांचजन्य और राष्ट्रधर्म जैसे पत्रों में कार्य किया। साहित्य और राजनीति उनके जीवन में अलग-अलग रास्ते नहीं थे। वे मूल रूप से एक कवि थे और यही कारण था कि उनकी राजनीति में भी संवेदना, शालीनता और शब्दों की गरिमा दिखाई देती थी। वे कठोर से कठोर राजनीतिक मुद्दों को भी मानवीय भाषा में रखने की क्षमता रखते थे। वाजपेयी जी का जीवन इस बात का प्रमाण है कि दृढ़ता और करुणा एक-दूसरे की विरोधी नहीं हैं। वे धार्मिक थे, लेकिन उन्होंने कभी धर्म को राजनीति का औजार नहीं बनाया। उनके लिए ‘वसुधैव कुटुंबकम’ केवल एक श्लोक नहीं था, बल्कि शासन का मार्गदर्शक सिद्धांत था। प्रधानमंत्री रहते हुए उन्होंने भारत की सुरक्षा और स्वाभिमान के लिए परमाणु परीक्षण जैसे बड़े फैसले लिए, वहीं दूसरी ओर शांति और संवाद की पहल करते हुए लाहौर बस यात्रा भी की। उनका प्रसिद्ध कथन—“मतभेद हो सकते हैं, लेकिन मनभेद नहीं होने चाहिए”—आज भी भारत की लोकतांत्रिक संस्कृति का सार प्रस्तुत करता है। यह कथन केवल राजनीति तक सीमित नहीं है, बल्कि समाज और मानव संबंधों के लिए भी एक महत्वपूर्ण संदेश देता है। यदि पंडित मदन मोहन मालवीय ने शिक्षा के माध्यम से भारत की आत्मा को आकार दिया, तो अटल बिहारी वाजपेयी ने राजनीति के माध्यम से उस आत्मा को स्वर दिया। दोनों ही यह मानते थे कि सत्ता का उद्देश्य केवल शासन करना नहीं, बल्कि समाज और राष्ट्र का नैतिक उत्थान करना है। दोनों लेखक, कवि, संपादक और विचारक थे, जिन्होंने यह सिद्ध किया कि बौद्धिक और साहित्यिक चेतना राजनीति को अधिक मानवीय बना सकती है। 25 दिसंबर को मनाया जाने वाला क्रिसमस ईसा मसीह के जन्म की स्मृति है। यह पर्व केवल उत्सव नहीं, बल्कि आत्मचिंतन का अवसर भी है। ईसाई धर्म की शिक्षाएँ प्रेम, क्षमा, करुणा और आत्मस्वीकृति पर बल देती हैं। अपनी गलतियों को स्वीकार करना और बेहतर इंसान बनने का प्रयास करना इन शिक्षाओं का मूल है। ये मूल्य न केवल व्यक्ति को मजबूत बनाते हैं, बल्कि समाज में भी सौहार्द और शांति स्थापित करते हैं। मालवीय और वाजपेयी के जीवन में भी यही मूल्य दिखाई देते हैं। उन्होंने सिखाया कि सच्चा नेतृत्व वही है जो संवाद, सहानुभूति और नैतिकता पर आधारित हो। जैसे क्रिसमस हमें क्षमा और दया की याद दिलाता है, वैसे ही इन दोनों नेताओं का जीवन यह दिखाता है कि शिक्षा, शासन, साहित्य और नैतिकता एक साथ चल सकते हैं। भारत के स्वतंत्रता संग्राम की पृष्ठभूमि में मालवीय जी का योगदान यह दर्शाता है कि आज़ादी केवल राजनीतिक स्वतंत्रता नहीं थी, बल्कि बौद्धिक, सांस्कृतिक और नैतिक जागरण भी थी। वाजपेयी जी ने इसी परंपरा को आधुनिक भारत में आगे बढ़ाया और यह दिखाया कि राष्ट्रहित और मानवीय मूल्यों के बीच संतुलन बनाना ही सच्ची राज्यकला है। आज के समय में, जब समाज में ध्रुवीकरण, असहिष्णुता और तात्कालिक सोच बढ़ती जा रही है, 25 दिसंबर का संदेश और भी प्रासंगिक हो जाता है। यह दिन हमें याद दिलाता है कि राजनीति, संस्कृति, साहित्य, शिक्षा और नैतिकता को अलग-अलग नहीं देखा जाना चाहिए। पंडित मालवीय, अटल बिहारी वाजपेयी और ईसा मसीह—तीनों अलग-अलग समय और परिस्थितियों से थे, लेकिन तीनों का मूल संदेश एक ही था कि शक्ति, ज्ञान और आस्था का उद्देश्य मानवता की सेवा होना चाहिए, न कि उस पर प्रभुत्व। इस प्रकार 25 दिसंबर केवल जन्मदिन या त्योहार नहीं है। यह साझा मानवीय मूल्यों का प्रतीक है। यह दिन हमें सिखाता है कि परंपरा उदार सोच को जन्म दे सकती है, कि आस्था मानवता को मजबूत बना सकती है और कि सच्ची प्रगति तभी संभव है जब दया, क्षमा, ज्ञान और नैतिक साहस हमारे निर्णयों का आधार बनें। यही 25 दिसंबर का वास्तविक उत्सव है। ईएमएस / 24 दिसम्बर 25