लेख
29-Dec-2025
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आधुनिकता की तेज़ रफ्तार भागदौड़ भरी जिंदगी और पाश्चात्य खान-पान की नकल ने बीते कुछ दशकों में भारतीय समाज की भोजन परंपरा को गहराई से प्रभावित किया है। फास्ट फूड, रिफाइंड आटा, अत्यधिक चीनी और वसा से भरपूर भोजन ने स्वाद तो बदला, लेकिन इसके साथ-साथ शरीर को कई ऐसी बीमारियों की सौगात भी दे दी, जिनका नाम पहले गांव-कस्बों में शायद ही सुनाई देता था। डायबिटीज, मोटापा, हृदय रोग, उच्च रक्तचाप और पाचन संबंधी समस्याएं आज आम जीवन का हिस्सा बन चुकी हैं। इसी पृष्ठभूमि में अब एक सुखद बदलाव दिखाई दे रहा है।लोग अपनी थाली में फिर से मोटे अनाज को जगह देने लगे हैं। यह बदलाव केवल एक ट्रेंड नहीं, बल्कि सेहत, संस्कृति और आत्मनिर्भरता की ओर लौटने का संकेत है। कुछ दशक पहले तक मोटे अनाज भारतीय रसोई का स्वाभाविक हिस्सा थे। बाजरा, ज्वार, रागी, कंगनी, मक्का और कोदो जैसे अनाज केवल भोजन नहीं थे, बल्कि जीवनशैली का हिस्सा थे। ग्रामीण समाज में मेहनत-मजदूरी करने वाले लोग इन्हीं अनाजों से ऊर्जा प्राप्त करते थे और दिनभर काम करने के बावजूद थकान कम महसूस होती थी। उस समय डायबिटीज या कोलेस्ट्रॉल जैसे शब्द आम बातचीत में नहीं आते थे। पुराने लोग भले ही पोषण के वैज्ञानिक शब्दों से परिचित न हों, लेकिन अनुभव से जानते थे कि कौन-सा अनाज शरीर को ताकत देता है और कौन-सा भोजन मौसम के अनुकूल है। उनकी पसंद में स्वाद से अधिक महत्व तृप्ति और स्वास्थ्य का होता था। समय बदला तो पसंद भी बदली। शहरीकरण, मशीनों पर निर्भरता और विज्ञापन आधारित संस्कृति ने भोजन को सुविधा और स्वाद तक सीमित कर दिया। सफेद आटा, पॉलिश किया हुआ चावल और पैकेटबंद खाद्य पदार्थ प्रतिष्ठा और आधुनिकता का प्रतीक बन गए। मोटे अनाज, जिन्हें कभी गरीबों का भोजन कहा गया, धीरे-धीरे रसोई से बाहर होते चले गए। नई पीढ़ी की पसंद में पिज्जा, बर्गर और नूडल्स शामिल हो गए, जबकि बाजरे की रोटी या ज्वार की भाखरी पिछड़ेपन की निशानी मानी जाने लगी। यही वह दौर था जब शरीर में असंतुलन बढ़ा और जीवनशैली से जुड़ी बीमारियां तेजी से फैलने लगीं। आज स्थिति एक बार फिर करवट ले रही है। जब दवाइयों पर बढ़ता खर्च और लगातार बिगड़ती सेहत चिंता का कारण बनी, तब लोगों ने अपने भोजन पर पुनर्विचार करना शुरू किया। विशेषज्ञों और डॉक्टरों की सलाह, शोध रिपोर्ट्स और पारंपरिक ज्ञान के पुनर्मूल्यांकन ने मोटे अनाज को फिर से चर्चा के केंद्र में ला दिया। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के आह्वान के बाद मोटे अनाज को वैश्विक मंच मिला और “इंटरनेशनल ईयर ऑफ मिलेट्स” जैसी पहल ने इसे नई पहचान दी। इसका प्रभाव यह हुआ कि जो अनाज कभी गांवों तक सीमित थे, वे अब शहरी हाई-मार्ट और सुपरमार्केट की शेल्फ पर भी सम्मान के साथ नजर आने लगे हैं। स्वास्थ्य के नजरिए से देखें तो मोटे अनाज किसी वरदान से कम नहीं हैं। इनमें फाइबर की मात्रा अधिक होती है, जिससे पाचन क्रिया बेहतर रहती है और पेट लंबे समय तक भरा हुआ महसूस करता है। इनका ग्लाइसेमिक इंडेक्स कम होने के कारण रक्त में शर्करा धीरे-धीरे बढ़ती है, जिससे डायबिटीज के मरीजों को विशेष लाभ मिलता है। विशेषज्ञों के अनुसार, यदि मधुमेह से पीड़ित व्यक्ति नियमित रूप से मोटे अनाज को अपने आहार में शामिल करता है, तो उसे दवाइयों की आवश्यकता भी कम हो सकती है। जेएलएन मेडिकल कॉलेज, अजमेर के मेडिसिन विभाग से जुड़े डॉ. पवन कुमावत का मानना है कि मोटे अनाज का धीमा पाचन शरीर में ऊर्जा को संतुलित रूप से रिलीज करता है, जिससे अचानक भूख लगने की समस्या कम होती है और वजन नियंत्रण में रहता है। पुराने लोगों की पसंद और आज की पीढ़ी की पसंद में यही मूल अंतर दिखाई देता है। पहले भोजन का उद्देश्य शरीर को पोषण देना और काम करने की शक्ति प्रदान करना था, जबकि आज भोजन अक्सर स्वाद, त्वरित उपलब्धता और दिखावे से जुड़ गया है। हालांकि अब नई पीढ़ी में भी एक वर्ग ऐसा है, जो अपने पूर्वजों की समझ को फिर से अपनाने लगा है। वे यह समझने लगे हैं कि असली आधुनिकता वही है, जो शरीर और प्रकृति दोनों के साथ संतुलन बनाए। योग, ऑर्गेनिक खेती और देसी खान-पान की ओर बढ़ता रुझान इसी सोच का परिणाम है। मोटे अनाज केवल स्वास्थ्य तक सीमित नहीं हैं, बल्कि यह किसानों और पर्यावरण के लिए भी लाभकारी हैं। ये फसलें कम पानी में उग जाती हैं और कठिन जलवायु परिस्थितियों में भी अच्छी पैदावार देती हैं। राजस्थान जैसे शुष्क और अर्ध-शुष्क क्षेत्रों के लिए यह अनाज सदियों से जीवनरेखा रहे हैं। राज्य सरकार द्वारा राजस्थान मिलेट्स प्रोत्साहन मिशन के तहत किसानों को मुफ्त बीज किट उपलब्ध कराना इस दिशा में एक सकारात्मक कदम है। इससे न केवल किसानों की आय बढ़ेगी, बल्कि स्थानीय स्तर पर पोषण सुरक्षा भी मजबूत होगी। बाजार में आए बदलाव ने भी मोटे अनाज को अपनाना आसान बना दिया है। पहले इन्हें साफ करने और पीसने में काफी मेहनत लगती थी, जिससे शहरी और कामकाजी लोग इससे दूरी बनाए रखते थे। अब चक्कियों और प्रोसेसिंग यूनिट्स में तैयार आटा आसानी से उपलब्ध है। लोग अपनी आवश्यकता के अनुसार मात्रा तय कर सकते हैं और बिना अतिरिक्त झंझट के इसे दैनिक आहार में शामिल कर सकते हैं। यही सुविधा आज की जीवनशैली के साथ परंपरा का सेतु बन रही है। स्वास्थ्य विशेषज्ञ यह भी मानते हैं कि मोटे अनाज हृदय रोगों के जोखिम को कम करते हैं। इनमें मौजूद मैग्नीशियम, आयरन और एंटीऑक्सीडेंट तत्व रक्त संचार को बेहतर बनाते हैं और कोलेस्ट्रॉल के स्तर को नियंत्रित करने में सहायक होते हैं। महिलाओं और बच्चों के लिए यह पोषण का सशक्त स्रोत हैं, क्योंकि इनमें कैल्शियम और प्रोटीन पर्याप्त मात्रा में पाया जाता है। रागी जैसे अनाज हड्डियों को मजबूत बनाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं, जो आज के समय में एक बड़ी जरूरत बन चुकी है। आज की पीढ़ी की पसंद में जो बदलाव दिख रहा है, वह केवल मजबूरी नहीं बल्कि समझ का परिणाम है। लोग यह महसूस करने लगे हैं कि महंगे सुपरफूड्स की तलाश में विदेशों की ओर देखने से बेहतर है कि अपनी मिट्टी में उगे अनाज को अपनाया जाए। यह आत्मनिर्भर भारत की सोच के भी अनुरूप है। जब हम अपने पारंपरिक भोजन को अपनाते हैं, तो न केवल अपने स्वास्थ्य का ख्याल रखते हैं, बल्कि स्थानीय किसानों, अर्थव्यवस्था और पर्यावरण को भी मजबूती देते हैं। अंततः यह कहा जा सकता है कि मोटे अनाज की वापसी अतीत की ओर लौटना नहीं, बल्कि भविष्य की ओर एक समझदारी भरा कदम है। पुराने लोगों की पसंद अनुभव से उपजी थी और आज की पीढ़ी की पसंद ज्ञान और शोध से आकार ले रही है। जब दोनों का संगम होता है, तो एक ऐसी जीवनशैली सामने आती है जो स्वाद, सेहत और संतुलन तीनों को साथ लेकर चलती है। थाली में मोटे अनाज की मौजूदगी केवल भोजन का विकल्प नहीं, बल्कि एक स्वस्थ, जागरूक और आत्मनिर्भर समाज की पहचान बन सकती है। (वरिष्ठ पत्रकार, साहित्य्कार, स्तम्भकार) (यह लेखक के व्य‎‎‎क्तिगत ‎विचार हैं इससे संपादक का सहमत होना अ‎निवार्य नहीं है) .../ 29 ‎दिसम्बर /2025