क्षेत्रीय
30-Dec-2025


भक्ति का अर्थ है ईश्वर के प्रति पूर्ण समर्पण और प्रेम-संत गोविन्द जाने सीहोर(ईएमएस)। भक्ति का अर्थ है ईश्वर के प्रति पूर्ण समर्पण और प्रेम। यह एक आंतरिक भावना है, जिसे व्यक्त करने के लिए भौतिक वस्तुओं की आवश्यकता नहीं होती। सच्ची भक्ति मन की अवस्था है, न कि धन-संपत्ति या भौतिक प्रदर्शन। भौतिक वस्तुओं के प्रति लगाव अक्सर हमारे मन को सांसारिक इच्छाओं और चिंताओं में उलझाए रखता है। यह लगाव हमें ईश्वर से जुड़ने से रोकता है, क्योंकि हमारा ध्यान बाहरी दुनिया की ओर केंद्रित रहता है। उक्त विचार शहर के सिंधी कालोनी में हर साल की तरह साल भी गोदन सरकार हनुमान मंदिर सेवा समिति के तत्वाधान में सात दिवसीय श्रीमद भागवत कथा का आयोजन किया जा रहा है। मंगलवार को संत गोविन्द जाने ने कहाकि भौतिक वस्तुओं में सुख नहीं है। परम निधि तो कोई सद्गुरु देता है। इसलिए इस कलियुग में केवल भगवान के नाम का जप और सच्चे कर्म ही हमें ईश्वर से जोड़ सकते है। उन्होंने कहाकि जब हम भौतिक वस्तुओं के पीछे भागना बंद कर देते हैं, तो हम शांति और संतोष का अनुभव करते हैं। यह शांति हमें ध्यान केंद्रित करने और ईश्वर के साथ गहरा संबंध स्थापित करने में मदद करती है। कलियुग में नाम जप एक सरल आध्यात्मिक अभ्यास है। ईश्वर नाम जपना बहुत लाभकारी है। भगवान का नाम प्रेम और भक्ति बढ़ाता है। परमात्मा का नाम मर्यादा और शक्ति देता है। इन नामों को जपने से मन शांत होता है। नकारात्मक विचार दूर होते हैं और आध्यात्मिक उन्नति होती है। नाम जप जीवन का जरूरी हिस्सा है। मनुष्य अनेक प्रकार की भौतिक और मानसिक समस्याओं से घिरा कलियुग, जिसे युगों का अंतिम और सबसे कठिन युग माना जाता है। शास्त्रों के अनुसार इस युग में धर्म, सत्य और नैतिकता का क्षरण होते हुए, हमें नजर आएग। इस युग में मनुष्य अनेक प्रकार की भौतिक और मानसिक समस्याओं से घिरा रहेगा। ऐसे कठिन समय में, आध्यात्मिक प्रगति और शांति प्राप्त करने के लिए विभिन्न साधनाएं हमें हमारे शास्त्रों में बताई गई हैं भक्त रैदास साधु-संतों की बड़ी सेवा करते थे। एक बार भगवान साधु का भेष धारण कर उनके उनके पास आया। रैदास ने उसे भोजन कराया और अपने बनाए हुए जूते उसे पहनाए। साधु बोला, रैदासजी, मेरे पास एक अनमोल वस्तु है। आप साधु-संतों की सेवा करते हैं, इस कारण मैं उसे आपको दूंगा। इसे पारस कहते हैं और लोहे के स्पर्श मात्र से वह सोना हो जाता है। यह देख रैदासजी को दुख हुआ कि अब वे जूते कैसे सी सकेंगे। तब साधु ने कहा, अब आपको जूते सीने की आवश्यकता नहीं। इसी से सैकड़ों रांपियां आ सकती हैं। इस पर रैदासजी बोले, मगर यदि मैं सोना बनाता रहूं तो मेरे सोने की रखवाली कौन करेगा तब तो मुझे भगवान के भजन के बदले सोने की ही चिंता लगी रहेगी किंतु साधु ने नहीं माना और पारस पत्थर को छप्पर में रखकर चला गया। एक वर्ष बाद वह साधु फिर रैदास के पास आया और उसे यह देख आश्चर्य हुआ कि रैदास की हालत वैसी ही है। उसने जब पारस पत्थर के बारे में पूछा, तो वे बोले, मुझे नहीं मालूम। आपने जहां रखा होगा, वहीं होगा। और वह साधु यह देखकर दंग रह गया कि पारस पत्थर छप्पर में उसी स्थान पर रखा हुआ है। तब वह बोला, आप सचमुच धन्य हैं। आप चाहते तो इस पत्थर से मंदिर बनवा सकते थे, निर्धनों को दान कर सकते थे। इस पर रैदास ने उत्तर दिया, महाराज अभी तो मैं छिपे-छिपे चुपचाप भगवान का भजन कर लेता हूं। अगर मंदिर बनाता या दान करता, तब तो प्रसिद्धि मिलती और लोग मुझे बहुत तंग करते। मैं तो इस झगड़े में बिल्कुल नहीं पड़ना चाहता और यह कहकर वह जूते सिलने का काम करते हुए राम नाम लेने में व्यस्त हो गए। संत वो होता है जिसको सिर्फ नाम जप की लग्र रहती है। कर्म के साथ धर्म से लगे रहने से मनुष्य जीवन सफल हो जाता है। विमल जैन / 30 दिसम्बर, 2025