लेख
06-Feb-2023
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राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के प्रमुख मोहन भागवत ने संत रविदास जयंती के मौके पर एक अच्छी बात कही, उन्होंने कहा जाति भगवान ने नहीं बनाई है, बल्कि, पंडितों ने बनाई है। भगवान ने हमेशा बोला है कि मेरे लिए सभी मनुष्य एक हैं। उनमें कोई भी जाति और वर्ण नहीं है। मोहन भागवत ने जो सत्य कहा है उसे अर्ध सत्य कहा जा सकता है। सनातन धर्म और भागवत गीता में भगवान कृष्ण ने स्पष्ट रूप से कहा है। कर्म का फल किसी को स्थानांतरित नहीं किया जा सकता है। कर्म अच्छा हो या बुरा, समय आने पर ही फल मिलेगा। भगवान कृष्ण ने कहा कर्म किए जा फल की चिंता मत कर। सनातन और हिंदू धर्म की शाखाओं में स्पष्ट रूप से उल्लेखित है। कर्म के फल के आधार पर ही सभी जीवो के जन्म होते हैं। मृत्यु पर भी भगवान का अधिकार है। इसे कोई भी व्यक्ति किसी एक दूसरे को प्रभावित नहीं कर सकता है। यह बात हिंदू और सनातन धर्म के मानने वाले लोगों को समझना कोई मुश्किल काम नहीं है। खेल-खेल में बच्चा पैदा होता है, सोच समझ के बच्चा भी पैदा नहीं किया जा सकता है। बच्चे को भी नहीं मालूम होता है कि उसका माता-पिता कौन बनेगा। उसका धर्म क्या होगा। जो माता-पिता उस बच्चे को जन्म देते हैं, उन्हें भी नहीं मालूम होता है कि उनके घर पर लड़का पैदा होगा या लड़की होगी, होगी तो कब होगी। ईश्वर के विधान को समझें तो सब लोग अपने-अपने कर्म के फल भाग्य के रुप में भोग रहे हैं। 84 लाख योनियों में सभी जीव कर्म के फल के आधार पर जन्म और मृत्यु को प्राप्त करते हैं। कर्मफल ही जीव का भाग्य है। हर योनि में कर्म फल के अनुसार फल प्राप्त होता है। यदि एक कुत्ते की योनि में भी जन्म है। यदि उसका पालन पोषण एक राज परिवार में हो रहा है और वह राजा का प्रिय है, तो उस योनि में भी पुण्य कर्म के कारण उसे परम सुख की प्राप्ति होती है। अनादि काल से सत्ता प्राप्त करने के लिए, श्रेष्ठता अहंकार और आत्म संतुष्टि के लिए हम समय-समय पर वर्ण व्यवस्था, जाति व्यवस्था, शैव-वैष्णव, बम्हा, हिंदू, मुसलमान, सिख, ईसाई, जैन, बौद्ध इत्या‎दि करते रहे हैं। जो निश्चित रूप से कर्म फल की सत्ता अर्थात भगवान की सत्ता को नकारते हुए जब-जब कोई स्वयं ईश्वर बनने की कोशिश करने लगता है, तभी दुनिया में प्रलय आता है। लोग एक दूसरे को मारने लगते हैं। पुरुषार्थ केवल मनुष्य ही कर पाता है। क्योंकि मनुष्य जीवन के अलावा और कभी यह शक्ति किसी अन्य जीव के पास नहीं होती है। मनुष्य जीवन के पुराषार्थ का फल ही कर्म फल बनता है। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के प्रमुख डॉ मोहन भागवत ने जो बात कही है, वह सत्य है। सनातन और हिंदू परंपरा के संवाहक हैं। उनमें सारी समझ भी है। लेकिन कहीं ना कहीं वह भी दृग भ्रमित होते हुए नजर आ रहे हैं। डॉ. भगवत एक वृहद संगठन का संचालन करते हैं। उसके लिए उन्हें वह दृष्टि प्राप्त नहीं हो सकती है, जो एक निर्विकल्प साधु-संत को प्राप्त होती है। बिना किसी लोभ, क्रोध, मोह, माया और हानि का ख्याल किए बिना जब हम अपने कर्तव्यों का पालन करते हैं। वही धर्म माना गया है। भगवान कृष्ण ने महाभारत काल की युद्ध भूमि में अर्जुन को इस ज्ञान से परिपूर्ण किया था, तभी वह अपने ही रिश्ते के लोगों को मारने में सफल हो पाए। धर्म धारण करना, आचरण की वस्तु है। जब तक आचरण में हम धर्म के मूल गुणों को शामिल नहीं करेंगे, तब तक हमें धार्मिक कहलाने का हक भी नहीं है। यदि सभी धर्मों का अध्ययन करें, तो सभी के मूल गुण लगभग-लगभग एक ही हैं। लेकिन उन धर्म को मानने वाले लोग उसे आचरण में शामिल नहीं करते हैं। धार्मिक और जाति व्यवस्था में तो अब जाति और धर्म के आधार पर ही जन्म हो रहा है। ऐसी स्थिति में मात्र पंडितों को दोषी ठहरा देना या किसी धर्म को दोषी ठहरा देना, मेरे ख्याल से उचित नहीं है। सनातन धर्म करोड़ों वर्ष पुराना है। श्रुति के माध्यम से एक पीढ़ी, दूसरी पीढ़ी को सनातन के ज्ञान से अनवरत शिक्षित करती रही है। हजारों वर्ष पूर्व लेखन आया है, उसके बाद कई भाषाओं में ग्रंथ लिखे गए। समय के अनुसार उनको लिखने वाले उनकी व्याख्या बदलते रहे हैं। लेकिन मूल गुणों में कोई परिवर्तन संभव नहीं होता है। यहां यह कहने में भी संकोच नहीं है, भारत में धर्म ‎विशेष की आड़ में सत्ता के ‎लिए मुगलों को लेकर एक धर्म विशेष के लोगों पर निशाना साधा जा रहा है। ऐसी स्थिति में कृपया यह चिंतन करें, कि जब 1000वीं शताब्दी में सैकड़ों की संख्या में लुटेरे आए थे, उन्होंने राजाओं को लूटा, राज सत्ता पर कब्जा कर लिया। लेकिन पब्लिक ने अपने ही हिंदू राजाओं का साथ नहीं दिया। क्योंकि वह अपने होते हुए भी अपनों का ही उत्पीड़न कर रहे थे। जो लुटेरे आए थे, वह संख्या में बहुत कम थे। उन्होंने आम जनता का उत्पीड़न कम ‎किया। उनकी बेहतरी के बारे में सोचा, उनका उत्पीड़न पहले की तुलना में कम किया, तो जनता ने उन्हें स्वीकार कर लिया। यह भी विचार करना होगा कि 1400 साल पुराना इस्लाम धर्म है। 2000 साल पुराना क्रिस्चियन धर्म है। इससे पुराना बौद्ध धर्म है। आज दुनिया में सबसे बड़ी आबादी क्रिस्चियन धर्म मानने वालों की है। उसके बाद इस्लाम धर्म के मानने वाले लोगों की संख्या है। बौद्ध धर्म के मानने वालों की संख्या तीसरे नंबर पर हैं। हम सनातनी हिंदू होते हुए भी, धर्म के मूल गुणों को भूलकर सत्ता, अहंकार, श्रेष्ठता और मनुष्य जीवन में रहकर, हम पुराने कर्म फलों को स्वर्ग की तरह इच्छाशक्ति से भोगते हैं। जिसके कारण हम अपना पुण्य कर्म जल्दी ही खत्म कर लेते हैं। मनुष्य जीवन में ऐशो-आराम, अय्याशी और इच्छापूर्ति में मनुष्य जीवन व्यर्थ कर देते हैं। जिस जन्मभूमि में जिस जीव का जन्म होता है, वही उसका ईश्वर द्वारा ‎‎निर्धा‎रित भाग्यफल होता है। वही उसका ईश्वर प्रदत्त अधिकार है। जन्मभूमि जीव का सर्वोच्च अधिकार है, उसे किसी भी राष्ट्रीयता, धर्म, जाति, योनि इत्यादि से नहीं जोड़ा जा सकता है। यदि हम उसमें कोई छेड़छाड़ करते हैं, तो ईश्वरीय व्यवस्था के अंतर्गत हम पाप कर्म कर रहे होते हैं। उसके परिणाम कभी ‎किसी के ‎लिए अच्छे नहीं हो सकते हैं। एक सनातनी हिंदू के नाते मेरे मन में जो है, वह आज विचार मंथन के रूप में है। एसजे/ 6 फरवरी 2023