लेख
16-Apr-2024
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- श्रीरामनवमी के शुभ प्रसंग पर विशेष आलेख - श्रीराम कथा के अल्पज्ञात दुर्लभ प्रसंग बुध विश्राम सकल जन रंजनि। रामकथा कलिकलुष विभंजनि ।। रामकथा कलि पंनग भरनी। पुनि बिबेक पावक कहुँ अरनी।। श्रीराम. च. मा. बाल. 31-3 श्रीरामकथा पंडितों (विद्वानों) को विश्राम देनेवाली, सब मनुष्यों को प्रसन्न करने वाली और कलियुग के पापों का नाश करने वाली है। रामकथा कलियुगरूपी साँप के लिये मोरनी है और विवेकरूपी अग्नि के प्रकट करने के लिये अरणि (मन्थन की जाने वाली लकड़ी) है। इसका तात्पर्य यह है कि श्रीराम कथा हमें इस आपाधापी के व्यस्त जीवन, भौतिकवाद की दौड़ से मुक्त करती है। मानव जीवन के उद्देश्य को लक्ष्य कर, शांति, सुख प्रदान करती है। वाल्मीकिजी ने भी इस कथा प्रसंग में श्रीराम की भक्ति के महत्व को बताकर उनका अनुसरण करने की हमें शिक्षा दी है। श्रीराम सीताजी एवं लक्ष्मण सहित भरद्वाजमुनि के बताये गये मार्ग से वाल्मीकि मुनि के आश्रम पर पहुँच गये। वहाँ पहुँचकर श्रीराम ने वाल्मीकि मुनि से कहा - अस जियँ जानि कहिअ सोई ठाऊँ। सिय सौमित्रि सहित जहँ जाऊँ।। तहँ रचि रूचिर परन तृन साला। बासु करौं कछु काल कृपाला।। श्रीराम. च. मा. अयो. 126 - 3 ऐसा हृदय में समझकर - वह स्थान बतलाइये जहाँ मैं लक्ष्मण और सीता सहित जाऊँ और सुन्दर पत्तों - घास की कुटी बनाकर, हे दयालु! कुछ समय निवास करूँ। इस प्रकार श्रीराम के स्थान पूछने पर वाल्मीकि मुनि ने कहा - सहज सरल सुनि रघुबर बानी। साधु साधु बोले मुनि ग्यानी।। कस न कहहु अस रघुकुलकेतू। तुम्ह पालक संतत श्रुति सेतू।। श्रीरामच. मा. अयो. 126 - 4 श्रीराम जी की सहज सरल वाणी सुनकर ज्ञानी वाल्मीकि बोले - धन्य! धन्य! हे रघुकुल के ध्वजा स्वरूप! आप ऐसा क्यों न कहेंगे? आप सदैव वेद की मर्यादा पालन - रक्षण करते हैं। हे राम! आपके चरित्रों (लीलाओं ) को देख और सुनकर मूर्ख - अज्ञानी लोग तो मोह को प्राप्त होते हैं और ज्ञानीजन, भक्तजन सुखी होते हैं। आप जो कुछ कहते, करते हैं। वह सब सत्य एवं उचित ही है, क्योंकि जैसा स्वांग भरे वैसा ही नाचना भी तो चाहिये क्योंकि आप इस समय मनुष्य रूप में हैं अतः मनुष्योचित व्यवहार करना उचित एवं ठीक है। इतना कहकर वाल्मीकिजी ने कहा - पूँछेहु मोहि कि रहौं कहँ मैं पूँछत सकुचाऊँ। जहँ न होहु तहँ देहु कहि तुम्हहि देखावौं ठाऊँ।। श्रीराम.च. मा. अयो. 127 हे राम आपने मुझ से पूछा कि मैं कहाँ, रहूँ। किन्तु मैं यह आप से पूछते सकुचाता हूँ कि, जहाँ आप न हो वह स्थान बता दीजिये। तब मैं आपके रहने के स्थान दिखाऊँ। मुनि के प्रेम से भरे वचन सुनकर श्रीराम अपना रहस्य प्रकट हो जाने के डर स,े संकोचकर मन ही मन मुस्कुराये। वाल्मीकिजी भी हँसते हुए अमृतभरी मीठी वाणी में बोले हे रामजी! मेरी बात सुनिये अब मैं वे स्थान बताता हूँ जहाँ आप सीताजी और लक्ष्मणजी सहित निवास करिये। जिनके कान समुद्र की तरह आपका सुन्दर कथारूपी अनेकों सुन्दर नदियों से निरन्तर भरे रहते हैं, किन्तु कभी भी तृप्त नहीं होते हैं। उनके हृदय आपके सुन्दर घर हैं और जिन्होंने अपने नेत्रों को चातक बना लिया है। जो आपके दर्शनरूपी मेघ के लिये सदैव लालायित रहते हैं। आपके यशरूपी निर्मल पवित्र मानसरोवर में जिसकी जीभ हँसिनी बनी हुई आपके गुणसमूहरूपी मोतियों को चुगती रहती है। हेराम! आप उनके हृदय में बसिये। वाल्मीकिजी ने इसके बाद श्रीराम को कहा - सीस नवहिं सुर गुरू द्विज देखी। प्रीति सहित करि विनय बिसेषी।। कर नित करहिं राम पद पूजा। राम भरोस हृदय नहिं दूजा।। श्रीराम.च. मा. अयो. 129 - 2 जिसके मस्तक देवता, गुरू और ब्राह्मणों को देखकर बड़ी नम्रता के साथ प्रेमपूर्वक झुक जाते हैं, जिनके हाथ सदैव श्रीरामचन्द्रजी (आप) के चरणों की पूजा करते हैं। जिनके हृदय में आपका ही एकमात्र भरोसा है दूसरा नहीं। हे राम! जिनके चरण तीर्थों में चलकर जाते हैं, उनके मन में निवास कीजिये। आप उनके हृदय में बसिये आपका जप करते, पूजा करते हैं, आप वहाँ निवास करें। जिनके न तो काम, क्रोध, मद, अभिमान और मोह नहीं हैं, जिनके न लोभ, न क्षोभ न राग न द्वेष है और न कपट, दम्भ और माया ही है - हे राम आप उनके हृदय में निवास कीजिये। जो सबके प्रिय और सबका हित करने वाले हैं, जिन्हें दुःख और सुख तथा प्रशंसा (बड़ाई) और निन्दा समान हैं जो विचारकर सत्य और प्रिय वचन बोलते हैं तथा जो जागते - निन्दा में भी आपकी शरण में हैं उनके हृदय में निवास करें। इसके पश्चात् वाल्मीकि जी ने भी श्रीराम को उनके रहने के अनेक स्थान बताये हैं। वाल्मीकिजी ने कहा कि हे राम! आपको छोड़कर जिनके पास कोई दूसरा सहारा नहीं है, आश्रय नहीं हैं, गति नहीं हैं आप उनके मन में हृदय में बस जावें। आप उनके हृदय में रहें जो पर स्त्री को माता समान मानें और पराया धन विष से भी अधिक विषैला माने। हे तात्! जिनके स्वामी, सखा, पिता, माता और गुरू सब कुछ आप ही हैं, उनके मन मंदिर में सीता सहित दोनों भाई निवास करें। वाल्मीकि जी ने श्रीराम से कहा कि आप जाति - पाँति, धन, धर्म, प्रशंसा, प्यारा परिवार और सुख देने वाले घर सबको छोड़कर जो केवल आपको हृदय में धारण करता है उसके हृदय में रहिये। इतना ही नहीं - सरगु नरकु अपबरगु समाना। जहँ तहँ देख घरें धनु बाना। करम बचन मन राउर चेरा। राम करहु तेहि के उर डेरा।। श्रीराम. च. मा. अयो. 131- 4 स्वर्ग नरक और मोक्ष जिनकी दृष्टि में समान हैं क्योंकि वह सब जगह केवल आपको (श्रीराम को) धनुष बाण धारण किये देखता है और जो कर्म से, वचन से और मन से आपका दास (सेवक) है। हे रामजी! आप उनके हृदय में डेरा (निवास) कीजिये। हे राम! जिनको कुछ भी नहीं चाहिये, जिनका आपसे स्वाभाविक - सच्चा प्रेम है, उनके हृदय रूपी घर में सदा - सदा निवास कीजिये। इतने घर निवास बताने पर भी श्रीराम को मन में अच्छा लगा। अन्त में उन्होंने - चित्रकूट गिरि करहू निवासू। तहँ तुम्हार सब भाँति सुपासू।। सैलु सुहावन कानन चारू। करि केहरि मृग बिहग बिहारू।। श्रीराम.च. मा. अयो 132 - 2 आप चित्रकूट पर्वत पर निवास कीजिये, वहाँ आपके लिये सब प्रकार की सुविधा है। सुहावना पर्वत है और सुन्दर वन है। वहाँ हाथी सिंह, हरिण और पक्षियों का विहार स्थल है। सब देवता कोल - भीलों के वेष में आये और उन्होंने (दिव्य) पत्रों और घासों की सुन्दर दो कुटियाँ बनायी जिनका वर्णन नहीं किया जा सकता। इस प्रसंग को जानकर हमें यह शिक्षा प्राप्त होती है कि श्रीराम सदा किन - किन के हृृदय में निवास करते हैं। यदि हम वाल्मीकि जी द्वारा बताये श्रीराम के अनेक निवास स्थानों में से कोई एक भी श्रीराम का निवास बना लें तो मोक्ष का मार्ग निश्चय प्राप्त होगा। श्रीराम तो प्रेम - भक्ति, त्याग के अनन्य प्रेमी हैं। वे सर्वत्र हैं। हरि व्यापक सर्वत्र समाना। प्रेम ते प्रगट होहिं मैं जाना।। श्रीराम. च. मा. बाल 185 - 3 रामहि केवल प्रेम पिआरा। जानि लेउ जो जान निहारा। श्रीराम च. मा. अयो. 137 - ईएमएस / 16 अप्रैल 24