जीव अर्थात् जीता है, जीवत्व और आयुष्य कर्म का अनुभव करता है, इससे प्राणी का नाम जीव है बोधि के तीन प्रकार हैं-ज्ञान बोधि, दर्शन बोधि, चारित्र बोधि। जैन दर्शन का यह अभिमत है कि हम कोरे ज्ञान से मुक्ति को नहीं पा सकते, कोरे दर्शन और चारित्र से भी उसे नहीं पा सकते।उसकी प्राप्ति तीनों के समवाय से अर्थात् अविकल सम्बोधि से हो सकती है। जैन धर्म के मुख्य सिद्धान्त हैं- 1. आत्मा है। 2. उसका पुनर्जन्म होता है। 3. वह कर्मों की कत्र्ता है। 4. वह कृत कर्म के फल का भोक्ता है। जाहा जीवेति, जीवत्तं, आउयं, च कम्मं उपजीवति तम्हा ‘जीवे’ त्ति वत्तत्वं सिया भगवती सूत्र में जीव के तेईस नाम बताये गए हैं1-1. जीव, 2. जीवास्तिकाय, 3. प्राण, 4. भूत, 5. सत्व, 6. विज्ञ, 7. वेद, 8. चेता, 9. जेता, 10. आत्मा,11. रंगण, 12. हिंडुक, 13. पुद्गल, 14. मानव, 15. कत्र्ता, 16. विकर्ता, 17. जगत्, 18. जन्तु, 19. योनि, 20. स्वयंभूत, 21. सशरीरी, 22. नायक और 23. अन्तरात्मा। जीव-जीने का अर्थ है-‘‘प्राणों का धारण करना’’। जीवत्व का अर्थ है-उपयोग, ज्ञान और दर्शन सहित होना। आयुष्य कर्म के अनुभव का अर्थ है-निश्चित जीवन अवधि का उपयोग। जितने भी संसारी जीव हैं, सब प्राण सहित हैं। ज्ञान और दर्शन जो जीव मात्र के स्वाभाविक गुण हैं। हर एक प्राणी की अपनी-अपनी आयुष्य होती है। इस तरह जीते रहने से प्राणी जीव कहलाता है। जीवास्तिकाय-जीव अपने कर्मानुसार अनेक देह धारण करता है। परन्तु छोटे से छोटे और बड़े से बड़े शरीर में भी उसके असंख्यात प्रदेशीपन में कमी या अधिकता नहीं होती। चींटी और हाथी दोनों के जीव असंख्यात प्रदेशी हैं। आत्मा-चैतन्य लक्षण, चैतन्य स्वरूप या चैतन्य गुण पदार्थ का नाम आत्मा है। ऐसी आत्माएँ अनन्त है। उनकी सत्ता स्वतंत्र है। वे किसी दूसरी आत्मा या परमात्मा के अंश नहीं हैं। प्रत्येक आत्मा की चेतना अनन्त होती है, अनन्त प्रमेयों को जानने में सक्षम होती है। चैतन्य स्वरूप की दृष्टि से सब आत्माएँ समान होती हैं, किन्तु चेतना का विकास सबमें समान नहीं होता। चैतन्य विकास के तारतम्य का निमित्त कर्म है। प्राण-जीव श्वास निःश्वास करता है, इससे वह प्राणी है। कत्र्ता-आत्मा ही कत्र्ता है। कत्र्ता का अर्थ है-कर्मों का कत्र्ता-कत्त ति कत्र्ता कर्मणाम्। ‘‘आत्मसिद्धि’’ नामक पुस्तक में कहा गया है-जड़ में चेतना नहीं होती, केवल जीव में ही चेतना होती है। बिना चेतन प्रेरणा के कर्म, कर्म का बंधन कैसे होगा? अतः जीव ही कर्म का बंधन करता है, क्योंकि चेतन प्रेरणा जीव के ही होती है। जब तक जीव कर्म बंधन करता है, तभी कर्म बंध होते हैं। कर्म करना जीव की इच्छा पर रहने से यह भी नहीं कहा जा सकता कि आत्मा सहज स्वभाव से ही कर्मों का कत्र्ता है। इससे यह सिद्ध हुआ कि कर्म करना जीव का आत्म-धर्म नहीं है, क्योंकि ऐसे होने से कर्म का बंधन उसकी इच्छा पर निर्भर नहीं करता, यह भी कहना ठीक नहीं है कि जीव असंग है और केवल कर्म प्रवृत्तियां ही कर्म-बंध करती हैं, ऐसा होता तो जीव का असली स्वरूप कभी का मालूम हो जाता। कर्म करने में ईश्वर की भी कोई प्रेरणा नहीं हो सकती, क्योंकि ईश्वर सम्पूर्ण शुद्ध स्वभाव का होता है। उसमें इस प्रेरणा का आरोपण करने से तो उसे ही सदोष ठहरा देना होगा। इससे यह निष्कर्ष निकाला जा सकता है कि ‘‘आत्मा ही कर्मों का बंधन करता है।जब जीव अपने चैतन्य स्वभाव में रमण करता है तो वह अपने शुद्ध स्वभाव का कत्र्ता होता है और जब विभाव भाव में रमण करता है तो कर्मों का कत्र्ता कहलाता है।’’प्रागैतिहासिक काल की घटना है। जैन धर्म के आदि तीर्थंकर भगवान् ऋषभ इस धरती पर थे। एक दिन उनके अट्ठानवे पुत्र मिलकर आये। उन्होंने भगवान से प्रार्थना की-‘‘भरत ने हम सबके राज्य छीन लिये हैं। हम अपना राज्य पाने की इच्छा लिए आपकी शरण में आये हैं।’’ भगवान् ने कहा-‘‘मैं तुम्हें वह राज्य तो नहीं दे सकता किन्तु ऐसा राज्य दे सकता हूँ, जिसे कोई छीन न सके।’’ पुत्रों ने पूछा-‘‘वह राज्य क्या है?’’ भगवान् ने कहा-‘‘वह राज्य है-आत्मा की उपलब्धि’’। पुत्रों ने पूछा-वह कैसे हो सकती है? तब भगवान् ने कहा- संबुज्झह किं न बुज्झह, सेवोहि खलु पेच्च दुल्लहा। नो हू वणमंति राइयो, णो सुलभं पुणराति जीवियं।। ‘‘संबोधि को प्राप्त करो। तुम संबोधि को प्राप्त क्यों नहीं कर रहे हो। बीती रात लौटकर नहीं आती। यह मनुष्य जीवन भी बार-बार सुलभ नहीं है।’’जैन धर्म के साथ सम्बोधि का प्रागैतिहासिक सम्बन्ध है। संबोधि क्या है? वह है आत्म-मुक्ति का मार्ग। सब मार्ग जो हमें आत्मा की सम्पूर्ण स्वाधीनता की ओर ले जाते हैं, एक शब्द में संबोधि कहलाते हैं। ईएमएस / 11 सितम्बर 24