कर्म से जीवन में गति आती है, मानसिक और शारीरिक सक्रियता आती है। यह रजोगुण के लक्षण हैं। इस स्थिति में मनुष्य नई कामनाएँ करता है और उनकी पूर्ति के प्रयास करता है। इसमें जीवन के संघर्ष, द्वंद्व व तनावों से सामना होता है। यह अनुभव होता है कि कोई भी कामना पूर्ति कुछ समय तक ही सुख देती है फिर उसका स्थान नई कामना ले लेती है और फिर वही दुष्चक्र प्रारंभ हो जाता है। कई ऐसी कामनाएँ होती हैं जो पूरे पुरुषार्थ से काम करने पर भी पूरी नहीं होतीं। तब मनुष्य को सृष्टि में अपनी तुच्छता और असमर्थता समझ में आती है और वह ईश्वर से सहयोग की प्रार्थना करता है। उसमें दूसरों को अपने जैसा समझने, उनका भला करने और सहयोग करने का भाव आता है। ऐसे कर्मों को गीता में यज्ञ कहा गया है। यह रजोगुण से सतोगुण में प्रवेश है। इस अवस्था में भगवान् कहते हैं कि तुम मेरी ओर से, मेरे एजेंट के रूप में काम करो - निमित्तमात्रं भव सव्यसाचिन (11.33)। इसके बाद मनुष्य को अनुभव होता है कि वह निमित्त अवश्य है परंतु कर्ता भी स्वयं है। तब वह इससे भी मुक्ति चाहता है और जीवन का सारा भार भगवान् पर छोड़ देता है – सर्वधर्मान् परित्यज्य मामेकं शरणं ब्रज (18.66) । इस अवस्था में वह तीनों गुणों से परे हो जाता है और उसके सारे कर्म ईश्वर प्रेरणा से संचालित होने लगते हैं। अब वह कर्म करता नहीं है उसके माध्यम से कर्म होने लगते हैं। यह कर्मयोग की सर्वोच्च स्थिति है। इसी अवस्था को प्राप्त करने का विचार वेदों के अंतिम भाग ‘उपनिषद’ में किया गया है । यह संग्रह से त्याग तक की यात्रा है। जीवन के चार आश्रम भी इसी क्रम में बने हैं। पहले 25 वर्ष ब्रह्मचर्य आश्रम में मेहनत करना, सेवा करना, विद्याध्ययन करना है। इसमें प्रकृति प्रदत्त तमस (आलस्य, अकर्मण्यता की स्वाभाविक प्रवृत्ति) समाप्त होती है। फिर 50 वर्ष की अवस्था तक गृहस्थ आश्रम में ज्ञान का व्यवहारिक उपयोग करना, संसार के उत्पादन में योगदान देना, धन संपत्ति अर्जित करके कामनाओं की पूर्ति करना है। यह रजोगुण की अवस्था है। फिर शुरू होती है वानप्रस्थ अवस्था जिसमें संसार से पृथक् होने की तैयारी, समाज को अपने अनुभवों से मार्गदर्शन देना शामिल है। यह सतोगुण की अवस्था है। इसके बाद संन्यास आश्रम आता है जिसमें सब कुछ त्यागकर एकमात्र ईश्वर के लक्ष्य के लिए साधना करना है। यह तीनों गुणों से पार जाने की अवस्था है। गीता में भी भगवान् ने अर्जुन से ऐसा ही आह्वान किया है - निस्त्रैगुण्यो भवार्जुन (2.45)। सारे वैदिक ग्रंथ इसी जीवनचर्या को अनुशंसित करते हैं। इसमें चमत्कारों और अंधविश्वासों के लिए कोई स्थान नहीं है। विवेकानन्द जी कहते थे कि लोग उनके पास साधु बनने के लिए आते थे तो वह उनसे पूछते थे कि तुम्हारे पास त्यागने के लिए अभी है क्या ? न तो बलिष्ठ शरीर है, न धन है, न अहं है, फिर त्यागोगे क्या? वह कहते थे कि पहले कुछ अर्जित तो करो। पहले तमोगुण के पशुवत जीवन से निकलकर मनुष्य बनो तब तो साधु बनोगे। प्रसिद्ध संत प्रेमानंद जी महाराज के पास एक श्रद्धालु पीठ दर्द का इलाज पूछने गया तो उन्होंने कहा कि पीठ दर्द है तो डॉक्टर के पास जाओ, इसमें बाबा क्या करेगा? यही सत्यता है। पहले पुरुषार्थ से बल, धन, शक्ति की प्राप्ति, संग्रह और फिर श्रद्धा, जिज्ञासा और विवेक बुद्धि पर आधारित साधना से उनकी निरर्थकता की अनुभूति कर उनका लोक कल्याण के लिए त्याग। परंतु ज्ञान और तप से हीन, कुछ वाचाल कथावाचक अपना उल्लू सीधा करने के लिए श्रद्धालुओं को धर्म के प्रमाणित मार्ग से विचलित कर सीधे मोह माया के त्याग, चमत्कारों से सफलता की बात करके अकर्मण्य बना रहे हैं और अंधविश्वासों में उलझाए पड़े हैं। दु:ख की बात यह है कि इनके कार्यक्रमों में लाखों लोग जा रहे हैं, कुछ टीवी चैनल धर्म के नाम पर चौबीसों घंटे इनकी ऊलजजूल बकवास को हिन्दुओं के मानस में भर रहे हैं। सनातनधर्म के मूल स्वरूप को बचाए रखने के लिए इस चुनौती का सामना करना आज के समय की आवश्यकता है। ईएमएस / 01 अक्टूबर 24