लंदन (ईएमएस)। बच्चों की परवरिश में प्यार और देखभाल जितनी जरूरी है, उतनी ही जरूरी है अनुशासन और सीमाओं का पालन कराना। कई बार हम बच्चों की खुशी के नाम पर ऐसे फैसले लेने लगते हैं, जो उन्हें अनुशासित और जिम्मेदार नागरिक बनाने की बजाय बिगाड़ने का कारण बन जाते हैं। एक ताजा अध्ययन में यह बात सामने आई है कि कई माता-पिता अपने बच्चों की हर मांग को पूरा करना अपना फर्ज समझते हैं, चाहे वह जायज हो या नाजायज। बार-बार उनकी हर जिद मानने से बच्चे में “ना” सुनने की सहनशक्ति खत्म हो जाती है। ऐसे बच्चे आगे चलकर समाज में सामंजस्य नहीं बिठा पाते और उनका व्यवहार असामाजिक होने लगता है। कई बार अभिभावक बच्चों की गलतियों को नजरअंदाज करते हैं या उन्हें बहाना बनाकर बचा लेते हैं। यह भी एक प्रकार की लापरवाह पेरेंटिंग होती है। बच्चों को गलती पर रोकना, सही-गलत की पहचान कराना और जरूरत पड़ने पर सज़ा देना, पेरेंट्स की बुनियादी जिम्मेदारी है। कुछ माता-पिता बच्चों को लेकर जरूरत से ज्यादा चिंतित रहते हैं और उन्हें हर चीज से बचाकर रखना चाहते हैं। वे उन्हें किसी भी स्थिति का सामना खुद से नहीं करने देते, जिससे बच्चे आत्मनिर्भर नहीं बन पाते। यह ओवर-प्रोटेक्टिव रवैया बच्चे के आत्मविश्वास को धीरे-धीरे खत्म कर देता है। जब ऐसे बच्चे बड़े होते हैं, तो वे जीवन की कठिन परिस्थितियों का सामना करने से डरते हैं और असहाय महसूस करते हैं। एक और आम गलती यह होती है कि जब कोई दूसरा व्यक्ति बच्चे की गलती की ओर इशारा करता है, तो माता-पिता बिना सुने उसे गलत ठहराने लगते हैं। इससे बच्चे के मन में यह विश्वास घर कर लेता है कि चाहे वह कुछ भी कर ले, माता-पिता हमेशा उसके पक्ष में खड़े होंगे। इससे बच्चा अपनी गलतियों की जिम्मेदारी नहीं लेना सीखता। यदि बच्चे बदतमीजी करते हैं, झूठ बोलते हैं या दूसरों की चीजें चुराते हैं और माता-पिता इसे मामूली मानकर नजरअंदाज कर देते हैं, तो यह पेरेंटिंग की एक बड़ी चूक है। सुदामा/ईएमएस 29 अप्रैल 2025