लेख
02-May-2025
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वक्त के साथ सब कुछ बदलता है। 1989 में देश में मंडल और कमंडल की नई राजनीति की शुरुआत हुई थी। इस राजनीति ने कांग्रेस को काफी कमजोर कर दिया। भारतीय जनता पार्टी और क्षेत्रीय दलों का बड़े प्रभावी ढंग से उदय हुआ, लेकिन मंडल पर कमंडल भारी पड़ा। 1991 से लेकर 2024 तक की राजनीति कमंडल पर हुई। राम नाम की लूट है लूट सके तो लूट की तर्ज पर भारतीय जनता पार्टी बड़ी तेजी के साथ आगे बढ़ती चली गई, लेकिन अब समय बदल रहा है। जिस तरह से जन्म-मृत्यु निर्वाद सत्य है उसी तरह राजनीति में भी समय बदलता है। समय के साथ भाग्य में भी बदलाव आता है। 2011 की जनगणना में जातियों की भी गणना की गई थी। 2011 की जनगणना में पहली बार भारत में 86 लाख जातियों का समावेश हुआ था। अंग्रेजों के जमाने में 1931 में जो जाति जनगणना हुई थी उसी समय 4000 जातियां और उपजातियों के आधार पर जनगणना के परिणाम आए थे। 2011 में यह स्थिति पूरी तरह से बदल गई। 2011 में जनगणना पंजीयक द्वारा सामाजिक, आर्थिक, जातीय जनगणना पर 4389 करोड रुपए खर्च किए गए थे। बड़े पैमाने पर जनगणना हुई थी। 2011 की जनगणना ग्रामीण विकास मंत्रालय, शहरी विकास मंत्रालय के सहयोग से पूरी की गई थी। इस जनगणना मे जनगणना कर्मियों ने घर-घर जाकर सामाजिक, आर्थिक, शिक्षा, आय, व्यवसाय, आवास की स्थिति, रहन-सहन का स्तर, वाहन से संबंधित जानकारी, इलेक्ट्रॉनिक उपकरण, मशीनी उपकरण, खेती-किसानी का तौर तरीका और उसमें उपयोग होने वाले उपकरणों, परिवार में नौकरी से संबंधित जानकारी, सरकारी सेवा में लोगों की जानकारी, सरकारी योजनाओं के संबंध में जानकारी, जातीय तथा उपजाति के आधार पर सारी सूचनाएं एकत्रित की गईं थीं। भारत के 640 जिलों में 24 लाख ब्लॉक में यह जनगणना की गई थी। 2011 से यह जनगणना शुरू हुई थी जो 2016 में जाकर पूर्ण हुई थी। 2016 में जब जाति जनगणना के आंकड़े आए तो इसे तत्कालीन मोदी सरकार ने स्वीकार नहीं किया। जनगणना के आंकड़ों से इसे अलग कर दिया गया। 2011 की जनगणना में 40 लाख से अधिक जातियों की पहचान हुई थी। इनको पिछड़ा वर्ग, एसटी, एससी और सामान्य वर्ग में विभाजित करने को लेकर सरकार असमंजस में रही। 2016 में यदि जाति जनगणना के आंकड़े प्रकाशित होते तो यह देश की राजनीति को बदल सकते थे। इस डर को ध्यान में रखते हुए सरकार ने इसे उजागर नहीं किया। जातीय जनगणना को लेकर पिछले कुछ वर्षों में बिहार, तेलंगाना और कर्नाटक ने अपने तरीके से जातीय सर्वेक्षण कराए हैं। उनके आंकड़े भी सामने आए है। भारत की सामाजिक व्यवस्था में धार्मिक एवं जाति आधार बहुत मजबूत हैं। भारत दुनिया का सबसे बड़ा विविधता वाला देश है। यहां पर सभी धर्म के लोग रहते हैं। सबसे ज्यादा बोलियां हैं, सबसे ज्यादा भाषाएं बोली जाती हैं, सबसे ज्यादा धर्म जाति आधार पर देखने को मिलते हैं। भारत की एक बड़ी दलित और आदिवासी आबादी अपनी विभिन्न परंपराओं और विभिन्न आस्थाओं के कारण एक अलग पहचान बनाती है। उनकी मान्यताएं भी अलग-अलग होती हैं। 2016 में पूर्व केंद्रीय मंत्री लालू यादव ने इसे बड़ा मुद्दा बनाया था। उन्होंने 2016 में एक बार फिर मंडल और कमंडल की लड़ाई को तेज करने की कोशिश की थी। लालू यादव जेल गए, वहां उनका स्वास्थ्य खराब हो गया उसके बाद यह मांग कमजोर पड़ गई थी। लालू यादव चाहते थे कि 2011 की जनगणना के आंकड़ों को सार्वजनिक किया जाए। मोदी सरकार इससे बचती रही। 2022 के बाद यह मुद्दा एक बार फिर जोर पकड़ा। कांग्रेस नेता राहुल गांधी ने जाति जनगणना को लेकर एक आंदोलन चलाने की कोशिश की, जो सफल होती हुई दिख रही है। सरकार को भी 2025 में जनगणना के साथ जाति जनगणना करने के लिए विवस होना पड़ा है। भारत में स्वर्ण आबादी जनसंख्या के अनुपात में काफी कम है। अलग-अलग राज्यों में जाति समूह के आधार पर सामाजिक और राजनीतिक व्यवस्था जमीन से जुड़ी हुई है। बिहार विधानसभा चुनाव में जाति जनगणना सर्वेक्षण के माध्यम से एकत्रित की गई थी। उसके आधार पर बड़े राजनीतिक परिवर्तन की संभावना के रूप में देखा जा रहा है। इसी दबाव को देखते हुए भारतीय जनता पार्टी अभी तक जाति जनगणना का विरोध कर रही थी, लेकिन उसे भी अब जाति जनगणना के समर्थन में आना पड़ा है। मोदी सरकार के इस निर्णय का क्या असर भविष्य की राजनीति में पड़ेगा, इसको लेकर तरह-तरह की चर्चाएं होने लगी हैं। 2014 के बाद से अति हिंदूवाद ने कई जाति और समूहों के बीच में एक अलगाव की स्थिति लाकर खड़ी कर दी है। जिसके कारण दलित और आदिवासी एवं अन्य हिंदू वर्ग अपने आप को उपेक्षित पा रहा है। जिसके कारण राजनीतिक परिवर्तन की एक नई बयार बहने लगी है। कमंडल की राजनीति के मुकाबले सारे हिंदुओं को 80:20 के मुकाबले में एकजुट करने की कोशिश की गई थी, लेकिन यह कभी उस स्थिति में नहीं पहुंची जहां भाजपा पहुंचाना चाहती थी। भाजपा के 11 साल के शासनकाल में मुस्लिम और ईसाई विरोध के बाद जिस तरह से दलित और आदिवासियों को उपेक्षित किया गया है, उसने एक बार फिर जाति समीकरण में नई राजनीति की पृष्ठभूमि तैयार कर दी है। भाजपा समय-समय पर अपने नए-नए एजेंडा तैयार करती है। हवा के रुख को पहचान कर भाजपा तुरंत बदलाव कर लेती है। भारत में भाजपा का संगठन अब गांव तक पहुंच गया है। भाजपा एक बार फिर बदलती हुई नजर आ रही है। उनका संगठन जाति जनगणना के पक्ष में अभी से बड़े-बड़े दावे करने लगा है। उनका संगठन गांव-गांव तक सक्रिय हो गया है। ऐसी स्थिति में जनगणना को लेकर कांग्रेस नेता राहुल गांधी ने जो तैयारी की थी इसका लाभ वह ले पाएंगे या नहीं। इसी तरह राज्यों में जो छोटे-छोटे राजनीतिक दल है। उसका फायदा उठा पाएंगे या नहीं कहना मुश्किल है। लेकिन इतना तय है कि अब कमंडल की राजनीति का स्थान मंडल लेने जा रहा है। यह लड़ाई पूंजीवाद के खिलाफ भी है। इसके क्या परिणाम होंगे अभी कहा जाना मुश्किल है। लेकिन जिस तरह से महंगाई, बेरोजगारी एवं कानून व्यवस्था की स्थिति में लोगों का जीवन मुश्किल होता जा रहा है, इससे राजनीतिक दलों की चुनौतियां बढ़ेंगी, इतना तय है। ईएमएस / 02 मई 25