12 जून - विश्व बाल श्रम निषेध दिवस के अवसर पर विशेष लेख बाल श्रम एक ऐसी वैश्विक समस्या है जो बच्चों के शैक्षणिक, मानसिक, सामाजिक और नैतिक विकास को बाधित करती है। आज भी दुनिया के कई हिस्सों में लाखों बच्चे विद्यालयों के बजाय कारखानों, होटलों, खेतों, खदानों और घरों में श्रम कर रहे हैं। संयुक्त राष्ट्र की संस्था अंतर्राष्ट्रीय श्रम संगठन (ILO) के अनुसार, वर्ष 2020 तक विश्व में लगभग 16 करोड़ बच्चे बाल श्रम में संलग्न थे, जिनमें से 50% से अधिक खतरनाक परिस्थितियों में कार्यरत थे। भारत सहित कई विकासशील देशों में गरीबी, अशिक्षा, बेरोजगारी, सामाजिक असमानता और बाल संरक्षण कानूनों की अनुपालनहीनता इसके मूल कारण हैं। ऐसे में, विश्व बाल श्रम निषेध दिवस प्रतिवर्ष 12 जून को मनाया जाता है, ताकि इस गंभीर समस्या के प्रति वैश्विक जागरूकता फैलाई जा सके और समाज को यह याद दिलाया जा सके कि हर बच्चा एक खुला आसमान चाहता है, न कि बोझ से झुकी पीठ। विश्व बाल श्रम निषेध दिवस की शुरुआत अंतर्राष्ट्रीय श्रम संगठन (ILO) ने वर्ष 2002 में की थी। इस दिवस को मनाने का मुख्य उद्देश्य समाज, सरकार, नीति-निर्माताओं, शिक्षकों, माता-पिता और श्रमिक संगठनों के बीच बाल श्रम के विरुद्ध चेतना जागृत करना और ऐसे नीतिगत प्रयासों को बढ़ावा देना है जो बालकों को शिक्षा, स्वास्थ्य और सुरक्षित बचपन प्रदान कर सकें। हर वर्ष इस दिवस की एक थीम होती है, जो उस समय के सामाजिक संदर्भ में बाल श्रम की विशेष समस्या को रेखांकित करती है। उदाहरणतः 2021 की थीम थी — Act now : End child labour! यानी अब कार्य करें : बाल श्रम समाप्त करें! यह दिन केवल भाषणों तक सीमित नहीं रहता, बल्कि विभिन्न संगठनों द्वारा कार्यशालाएं, बाल अधिकार रैलियां, नुक्कड़ नाटक और सोशल मीडिया अभियानों का आयोजन भी किया जाता है। इसका उद्देश्य है समाज के हर वर्ग को यह याद दिलाना कि एक बच्चा किताबों और खिलौनों का हकदार है, न कि औजारों और बोझों का। बाल श्रम की समस्या को केवल आर्थिक कठिनाई से जोड़ना पर्याप्त नहीं है, बल्कि इसके सामाजिक और सांस्कृतिक पक्षों को भी समझना आवश्यक है। सबसे बड़ा कारण निर्धनता है, जहाँ माता-पिता बच्चों को परिवार की आय में मददगार मानते हैं। खासकर ग्रामीण क्षेत्रों में बालक खेतों में, ईंट भट्टों में या घरेलू उद्योगों में झोंक दिए जाते हैं। दूसरा महत्वपूर्ण कारण शिक्षा का अभाव है, जहाँ अभिभावक न तो स्कूलों के महत्व को समझते हैं और न ही विद्यालयों की पहुंच पर्याप्त होती है। इसके अलावा कई क्षेत्रों में सांस्कृतिक रूप से भी बच्चों से श्रम कराना सामान्य मान लिया गया है — जैसे पारिवारिक व्यवसायों में बालकों को जल्दी से जल्दी प्रशिक्षित करना। कुछ क्षेत्रों में बालिकाओं से घरेलू काम कराना, बाल विवाह करवाना और स्कूल से दूर रखना एक परंपरा मानी जाती है। बाल श्रम को बढ़ावा देने वाला एक और कारण है कमजोर कानून और उनका ढुलमुल अनुपालन। जब तक सरकारें, समाज और स्वयंसेवी संस्थाएं मिलकर इन बहुआयामी कारणों का समाधान नहीं करेंगी, बाल श्रम की समाप्ति एक चुनौती बनी रहेगी। बाल श्रम बच्चों के भविष्य पर घातक प्रभाव डालता है। ऐसे बच्चे विद्यालयों से वंचित रह जाते हैं और उनके जीवन से सीखने, सोचने और खेलने के अवसर छिन जाते हैं। मानसिक विकास बाधित होता है और आत्मविश्वास कमजोर पड़ता है। बालकों के शारीरिक स्वास्थ्य पर भी प्रतिकूल असर पड़ता है — खतरनाक उद्योगों में लंबे समय तक काम करने से उन्हें फेफड़े, त्वचा, हड्डियों और आंखों से संबंधित बीमारियां घेर लेती हैं। मानसिक और भावनात्मक उत्पीड़न के कारण कई बच्चे अवसाद, भय और आत्मग्लानि का शिकार हो जाते हैं। बाल श्रम अक्सर बाल तस्करी, बाल वेश्यावृत्ति और बाल अपराधों की ओर भी ले जाता है, जिससे सामाजिक अपराध की जड़ें और गहरी होती हैं। इसके अतिरिक्त, जब कोई बच्चा स्कूल नहीं जाता और श्रम में लग जाता है, तो वह आने वाले वर्षों में एक अशिक्षित और कम-कुशल श्रमिक बनता है, जिससे देश की उत्पादकता और मानव संसाधन का स्तर भी प्रभावित होता है। भारत में बाल श्रम की समस्या काफी पुरानी और गहन है। वर्ष 2011 की जनगणना के अनुसार, भारत में 5 से 14 वर्ष के लगभग 1 करोड़ बच्चे बाल श्रम में संलग्न थे, जिनमें अधिकांश कृषि, निर्माण, वस्त्र उद्योग, घरेलू कार्य और होटलों में कार्यरत थे। कोविड-19 महामारी के बाद यह स्थिति और भी गंभीर हो गई है। कई राज्यों में स्कूली बच्चों की संख्या घटी है और बाल श्रमिकों की संख्या में वृद्धि हुई है। उत्तर प्रदेश, बिहार, झारखंड, मध्य प्रदेश, राजस्थान और पश्चिम बंगाल जैसे राज्य इस समस्या से अधिक प्रभावित हैं। हालांकि भारत सरकार ने बाल श्रम निषेध अधिनियम 1986 और 2016 में इसके संशोधित संस्करण के माध्यम से 14 वर्ष से कम आयु के बच्चों से किसी भी प्रकार के श्रम को अपराध घोषित किया है, फिर भी जमीनी स्तर पर इसका पूर्ण पालन अभी भी एक चुनौती बना हुआ है। कानूनों के साथ-साथ सामाजिक मानसिकता में बदलाव और सतत निगरानी आवश्यक है। बाल श्रम की समाप्ति हेतु कई अंतरराष्ट्रीय संगठन सक्रिय हैं। अंतर्राष्ट्रीय श्रम संगठन (ILO) ने Minimum Age Convention (C138) और Worst Forms of Child Labour Convention (C182) जैसे संधियों के माध्यम से सदस्य देशों को यह बाध्य किया है कि वे बाल श्रम के लिए न्यूनतम आयु तय करें और खतरनाक कार्यों में बच्चों की नियुक्ति पर पूर्ण प्रतिबंध लगाएं। यूनिसेफ (UNICEF) भी शिक्षा, बाल अधिकारों और आपातकालीन राहत कार्यक्रमों के माध्यम से बाल श्रम रोकने में मदद करता है। इसके अतिरिक्त संयुक्त राष्ट्र द्वारा निर्धारित सतत विकास लक्ष्य (SDG-8.7) के अंतर्गत यह लक्ष्य रखा गया है कि वर्ष 2025 तक दुनिया से बाल श्रम की सबसे बुरी प्रवृत्तियाँ समाप्त कर दी जाएं। कई देशों ने Education for All, Right to Learn जैसी मुहिमों को राष्ट्रीय स्तर पर अपनाया है। इन सब प्रयासों से यह स्पष्ट है कि बाल श्रम कोई स्थानीय समस्या नहीं, बल्कि एक वैश्विक चुनौती है, जिसके लिए समवेत प्रयास अनिवार्य हैं। बाल श्रम के उन्मूलन में शिक्षा सबसे प्रभावी हथियार है। जब बच्चों को गुणवत्तापूर्ण, निःशुल्क और सुलभ शिक्षा मिलेगी, तब ही वे काम करने की बजाय पढ़ने को प्राथमिकता देंगे। सरकारी योजनाओं जैसे ‘समग्र शिक्षा अभियान’, ‘मिड डे मील योजना’, ‘राष्ट्रीय बाल अधिकार संरक्षण आयोग (NCPCR)’ और ‘सर्व शिक्षा अभियान’ ने कुछ हद तक बच्चों को विद्यालयों की ओर आकर्षित किया है, किंतु इनके क्रियान्वयन में पारदर्शिता और निरंतरता की आवश्यकता है। इसके साथ ही, समाज को भी जागरूक करना अत्यंत आवश्यक है कि बाल श्रम कोई संस्कार या जिम्मेदारी नहीं, बल्कि शोषण है। अगर माता-पिता, शिक्षक और पंचायतें मिलकर यह सुनिश्चित करें कि हर बच्चा विद्यालय में हो, तो यह लड़ाई आधी जीती जा सकती है। जागरूकता अभियानों के माध्यम से यह बताया जाना चाहिए कि शिक्षित बच्चा भविष्य में परिवार को कहीं अधिक बेहतर सहायता कर सकता है बनिस्बत एक कम उम्र के मजदूर के रूप में। भारत सरकार ने बाल श्रम की रोकथाम हेतु अनेक नीतियाँ और कानून बनाए हैं, जिनका उद्देश्य बच्चों को सुरक्षित, शिक्षाप्रद और सम्मानजनक जीवन देना है। सबसे प्रमुख कानून है — बाल श्रम (निषेध और विनियमन) अधिनियम 1986, जिसे वर्ष 2016 में संशोधित कर इसका नाम बदलकर बाल और किशोर श्रमिक (प्रतिषेध और विनियमन) अधिनियम 1986 कर दिया गया। इस अधिनियम के अंतर्गत 14 वर्ष से कम उम्र के बच्चों को किसी भी प्रकार के श्रम में लगाना पूर्णतः निषिद्ध है और 14 से 18 वर्ष के किशोरों को खतरनाक कार्यों में नियुक्त करना अपराध है। इसके अतिरिक्त भारतीय संविधान का अनुच्छेद 24 कहता है कि 14 वर्ष से कम आयु के किसी भी बच्चे को खतरनाक उद्योगों या कारखानों में काम पर नहीं लगाया जा सकता। भारत सरकार ने राष्ट्रीय बाल श्रम परियोजना (NCLP) की भी शुरुआत की है, जिसके अंतर्गत उन बच्चों की पहचान की जाती है जो श्रम में संलग्न हैं और उन्हें विशेष विद्यालयों के माध्यम से शिक्षा, पोषण, स्वास्थ्य सेवाएं तथा परामर्श प्रदान किया जाता है। इस परियोजना के तहत 100 से अधिक जिलों में पुनर्वास केंद्र संचालित किए जा रहे हैं। पेंसिल पोर्टल (Platform for Effective Enforcement for No Child Labour) एक डिजिटल पहल है, जिसके माध्यम से कोई भी व्यक्ति बाल श्रम की घटना की रिपोर्ट कर सकता है। इसके अलावा राष्ट्रीय बाल अधिकार संरक्षण आयोग (NCPCR) बच्चों के अधिकारों की निगरानी करता है। हालांकि ये सभी योजनाएं सराहनीय हैं, लेकिन इनकी सफलता इस बात पर निर्भर करती है कि स्थानीय प्रशासन, समाज और नागरिक इनका कितनी ईमानदारी से अनुपालन करते हैं। बाल श्रम उन्मूलन में सरकारी प्रयासों के साथ-साथ गैर-सरकारी संगठनों (NGOs) की भूमिका भी अत्यंत महत्वपूर्ण रही है। इनमें से सबसे उल्लेखनीय नाम है कैलाश सत्यार्थी द्वारा स्थापित बचपन बचाओ आंदोलन (BBA)। यह संगठन 1980 के दशक से सक्रिय है और अब तक दो लाख से अधिक बाल मजदूरों को मुक्त कर चुका है। कैलाश सत्यार्थी को 2014 में नोबेल शांति पुरस्कार भी मिला, जिससे इस आंदोलन को अंतरराष्ट्रीय पहचान प्राप्त हुई। बचपन बचाओ आंदोलन न केवल बालकों को बंधुआ मजदूरी, बाल तस्करी और बाल यौन शोषण से मुक्त कराता है, बल्कि उन्हें पुनर्वास केंद्रों में लाकर शिक्षा, चिकित्सा और सामाजिक पुनर्संयोजन की सुविधा भी देता है। यह संगठन भारत के विभिन्न राज्यों में समुदाय जागरूकता कार्यक्रम, बाल पंचायतें, स्कूली कार्यशालाएं और ग्राम स्तर पर निगरानी तंत्र का विकास करता है। इसके अलावा CRY (Child Rights and You), Save the Children, Pratham और CARE जैसे संगठन भी बाल शिक्षा, स्वास्थ्य और अधिकारों की दिशा में कार्यरत हैं। ये संगठन यह भी सुनिश्चित करते हैं कि बचाए गए बच्चों का जीवन केवल श्रम से मुक्ति तक सीमित न रहे, बल्कि वे भविष्य में आत्मनिर्भर, शिक्षित और सामाजिक रूप से सशक्त नागरिक बन सकें। इन प्रयासों की सफलता इस बात का प्रमाण है कि जब सरकारी प्रयासों के साथ सामाजिक चेतना और जनभागीदारी जुड़ती है, तो बाल श्रम जैसी गहरी जड़ें जमाई हुई समस्या को भी जड़ से उखाड़ा जा सकता है। बाल श्रम जैसी सामाजिक कुरीति के उन्मूलन में मीडिया की भूमिका निर्णायक हो सकती है। प्रिंट मीडिया, टेलीविजन, रेडियो और डिजिटल प्लेटफॉर्म जैसे माध्यम समाज में चेतना उत्पन्न करने और जनमत तैयार करने में प्रभावी भूमिका निभाते हैं। जब किसी समाचार पत्र में किसी बाल मजदूर की पीड़ा या रेस्क्यू ऑपरेशन की खबर छपती है, तो वह केवल एक घटना नहीं रह जाती, बल्कि सामाजिक चेतना का माध्यम बन जाती है। मीडिया न केवल घटनाओं की रिपोर्टिंग करता है, बल्कि समाधानपरक बहस, जन-संवाद और बच्चों के अधिकारों पर केंद्रित अभियान भी चलाता है। उदाहरणस्वरूप NDTV, BBC, The Hindu, Dainik Jagran जैसे मीडिया संस्थानों ने समय-समय पर बाल श्रम पर विशेष श्रृंखलाएं और कार्यक्रम प्रस्तुत किए हैं। सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म जैसे ट्विटर, इंस्टाग्राम, फेसबुक पर हैशटैग अभियान (#EndChildLabour, #StopChildSlavery) भी युवाओं को जोड़ने में सहायक हुए हैं। इसके अलावा, रेडियो नाटक, नुक्कड़ प्रदर्शन, शॉर्ट फिल्म्स और वृत्तचित्रों के माध्यम से दूरदराज़ के इलाकों में रहने वाले लोगों को इस समस्या से अवगत कराया जा सकता है। खासकर इंटरनेट युग में यूट्यूब और पॉडकास्ट जैसे माध्यमों से बाल श्रम के विरुद्ध सशक्त जनमत बनाया जा सकता है। जागरूक नागरिक जब किसी कार्यशाला, गोष्ठी या पब्लिक मीटिंग में भाग लेते हैं और इस विषय पर विचार विमर्श करते हैं, तब वे स्वयं इस परिवर्तन का हिस्सा बनते हैं। किसी भी सामाजिक आंदोलन की सफलता केवल सरकारी प्रयासों या कानूनों पर निर्भर नहीं होती, बल्कि उसमें आम नागरिकों की भागीदारी निर्णायक भूमिका निभाती है। बाल श्रम के खिलाफ लड़ाई में हर व्यक्ति की जिम्मेदारी है कि वह इस सामाजिक शोषण के विरुद्ध आवाज उठाए। जब कोई ग्राहक किसी दुकान पर छोटे बच्चे को काम करते हुए देखता है और उसे सामान्य मानकर अनदेखा कर देता है, तो वह भी परोक्ष रूप से इस शोषण का सहभागी बनता है। समाज को यह समझने की आवश्यकता है कि बाल श्रम केवल एक आर्थिक असंतुलन का परिणाम नहीं है, बल्कि यह सामाजिक नैतिकता की विफलता भी है। हमें अपने आसपास के समुदायों में यह संदेश फैलाना होगा कि बच्चों की जगह स्कूल है, न कि काम करने की जगह। हर माता-पिता को यह प्रेरणा दी जानी चाहिए कि वे अपने बच्चों को शिक्षा दें, न कि काम पर भेजें। स्थानीय स्तर पर बाल पंचायतों, महिला मंडलों और युवक समितियों को इस दिशा में पहल करनी चाहिए। अगर हम एक जिम्मेदार नागरिक के रूप में बाल श्रम की घटना की सूचना संबंधित विभाग या NGO को देते हैं, तो यह हमारी नैतिक प्रतिबद्धता होगी। बाल श्रम की समाप्ति का संघर्ष किसी एक व्यक्ति या संस्था का नहीं, बल्कि पूरे समाज की चेतना का मामला है। जब हर नागरिक यह मानने लगेगा कि हर बच्चा मेरा बच्चा है, तभी हम एक बेहतर और बाल-अनुकूल भारत की कल्पना कर सकते हैं। बाल श्रम का उन्मूलन केवल एक सामाजिक आवश्यकता नहीं, बल्कि नैतिक, आर्थिक और संवैधानिक उत्तरदायित्व भी है। यह समझना आवश्यक है कि जब एक बच्चा बाल्यावस्था में ही श्रम के लिए बाध्य होता है, तो वह न केवल अपनी शिक्षा, खेल, स्वास्थ्य और स्वाभाविक विकास से वंचित होता है, बल्कि समाज भी उसकी संभावनाओं से वंचित हो जाता है। बाल श्रम केवल गरीबी का कारण नहीं, बल्कि उसके परिणामों को और अधिक विकराल बनाने वाला एक कारक है। एक राष्ट्र की प्रगति इस बात पर निर्भर करती है कि वह अपने बच्चों को कितनी सुरक्षा, शिक्षा और अवसर प्रदान करता है। विश्व बाल श्रम निषेध दिवस हमें यह याद दिलाता है कि यह केवल एक दिन का आयोजन नहीं, बल्कि सतत संघर्ष और समाज की जिम्मेदारी का प्रतीक है। भारत जैसे विशाल और विविधतापूर्ण देश में यह आवश्यक है कि केंद्र और राज्य सरकारें, न्यायिक संस्थाएं, गैर-सरकारी संगठन, शिक्षा संस्थान, मीडिया और आम जनता सभी मिलकर एक सशक्त और सतत प्रयास करें। यह भी आवश्यक है कि सभी सरकारी योजनाएं केवल कागजों और घोषणाओं तक सीमित न रहें, बल्कि उन तक वास्तव में पहुँच बनाई जाए, जहाँ आवश्यकता सबसे अधिक है — गाँवों, झुग्गियों, शहरी मलिन बस्तियों और गरीब समुदायों में। साथ ही, यह सुनिश्चित किया जाए कि बाल श्रमिकों का पुनर्वास केवल राहत के रूप में न हो, बल्कि उन्हें गुणवत्तापूर्ण शिक्षा, मानसिक परामर्श, स्वास्थ्य सेवाएं और सामाजिक सहयोग प्रदान किया जाए, जिससे वे आत्मनिर्भर और सम्मानजनक जीवन जी सकें। सम्भावनाएँ और सिफारिशें : क्या किया जा सकता है आगे? शिक्षा की पहुंच और गुणवत्ता को प्राथमिकता — सरकार को ऐसी शिक्षा नीति बनानी चाहिए जो स्कूली शिक्षा को न केवल अनिवार्य बनाए, बल्कि आकर्षक और व्यावहारिक भी बनाए। विद्यालयों में बुनियादी सुविधाएं, अच्छे शिक्षक, डिजिटल उपकरण और मिड-डे मील जैसी योजनाओं की गुणवत्ता में सुधार लाकर बच्चों को स्कूल की ओर प्रेरित किया जा सकता है। गरीबी उन्मूलन योजनाओं को बाल अधिकारों से जोड़ना — मनरेगा, पीएम-किसान, जनधन योजना, उज्ज्वला योजना जैसे गरीबी उन्मूलन कार्यक्रमों के साथ बाल श्रम उन्मूलन के लक्ष्य को जोड़ना होगा। यदि परिवारों को आर्थिक सहायता और स्थायी आजीविका मिलेगी, तो वे बच्चों को काम पर भेजने की आवश्यकता महसूस नहीं करेंगे। कानूनों का कठोर और पारदर्शी पालन — बाल श्रम निषेध कानून का अनुपालन सख्ती से होना चाहिए। कारखानों, होटलों, दुकानों और निर्माण स्थलों पर नियमित निरीक्षण हो। जो मालिक या अभिभावक बच्चों से श्रम कराते हैं, उन पर दंडात्मक कार्यवाही की जाए। डेटा-संग्रह और ट्रैकिंग प्रणाली को मजबूत बनाना — भारत में बाल श्रम से जुड़े आँकड़ों की अद्यतन और पारदर्शी जानकारी उपलब्ध नहीं है। एक सशक्त डेटा सिस्टम, GIS आधारित निगरानी और डिजिटल ट्रैकिंग पोर्टल स्थापित किए जाने चाहिए, जिससे पुनर्वास और शिक्षा योजनाओं को प्रभावी बनाया जा सके। सामाजिक चेतना और नैतिक शिक्षा को बढ़ावा — विद्यालयों, पंचायतों और मीडिया माध्यमों के द्वारा बाल अधिकारों, शिक्षा और शोषण के विरुद्ध संदेश फैलाने के लिए जन-जागरूकता अभियान चलाए जाने चाहिए। बच्चों को उनके अधिकारों के बारे में शिक्षित किया जाए, ताकि वे स्वयं असहमति जता सकें और अपने हित की रक्षा कर सकें। बाल श्रमिकों के लिए विशेष शिक्षा और कौशल कार्यक्रम — जो बच्चे पूर्व में श्रमिक रह चुके हैं, उनके लिए विशेष ब्रिज कोर्स, व्यावसायिक प्रशिक्षण और कौशल विकास कार्यक्रमों की आवश्यकता है। इससे वे आगे चलकर आत्मनिर्भर और सम्मानजनक जीवन जी सकें। स्थानीय समुदायों की भागीदारी — ग्राम सभा, मोहल्ला समितियाँ, स्कूल प्रबंधन समितियाँ और स्वयंसेवकों की टीमें इस कार्य में अहम भूमिका निभा सकती हैं। हर समुदाय को बाल श्रम मुक्त क्षेत्र घोषित करने का प्रयास करना चाहिए और इसके लिए प्रमाणन प्रक्रिया होनी चाहिए। ईएमएस/11/06/2025