लेख
04-Jul-2025
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छत्तीसगढ़ की राजनीति में नक्सलवाद एक बार फिर एक बड़े राजनीतिक विवाद का कारण बन गया है। कुरुद के विधायक और भारतीय जनता पार्टी के फायरब्रांड नेता अजय चंद्राकर ने हाल ही में कांग्रेस पर नक्सलियों को “दामाद” कहकर हमला बोला, जिसके बाद कांग्रेस की ओर से तीखा पलटवार करते हुए पूर्व मंत्री अमरजीत भगत ने पूंजीपतियों अदानी-अंबानी को “दामाद” बताकर भाजपा पर पलटवार किया। इस बयानबाज़ी ने न केवल प्रदेश की राजनीतिक बहस को गर्मा दिया, बल्कि एक बार फिर यह सवाल उठाया कि क्या नक्सलवाद को राजनीतिक हथियार की तरह इस्तेमाल किया जा रहा है? छत्तीसगढ़ विधानसभा में भाजपा के वरिष्ठ नेता अजय चंद्राकर ने कांग्रेस पर यह आरोप लगाया कि नक्सली “कांग्रेस के दामाद” हैं। उनके अनुसार, जब-जब नक्सली आए, कांग्रेस ने वैसा ही स्वागत किया जैसा कोई दामाद का करता है। उनका तर्क है कि 1980 के दशक में जब छत्तीसगढ़ (तत्कालीन मध्यप्रदेश का हिस्सा) पूरी तरह कांग्रेस के अधीन था, तब आदिवासी क्षेत्रों में कोई ठोस विकास कार्य नहीं हुआ, जिसके चलते वहां नक्सलियों की पैठ बनी। वे इसे कांग्रेस की “शोषणकारी राजनीति” का परिणाम बताते हैं। उनके बयान में यह भी संकेत था कि कांग्रेस की सरकारों ने नक्सल समस्या को गंभीरता से लेने की बजाय कभी-कभी उनके प्रति नरमी दिखाई, जिससे उनकी ताकत बढ़ी। चंद्राकर ने कांग्रेस को आदिवासी हितों का सबसे बड़ा शोषक करार देते हुए कहा कि अगर आज छत्तीसगढ़ में नक्सलवाद जिंदा है तो उसकी जड़ें कांग्रेस की नीतियों में हैं। अजय चंद्राकर के इस बयान पर कांग्रेस की ओर से तीखी प्रतिक्रिया आई। पूर्व मंत्री अमरजीत सिंह भगत ने कहा कि अजय चंद्राकर का बयान पूरी तरह से निराधार और असत्य है। भगत ने पलटवार करते हुए कहा कि वर्तमान सरकार (भाजपा) के संरक्षण में छत्तीसगढ़ के आदिवासी इलाकों में वनों की अंधाधुंध कटाई हो रही है और औद्योगिकरण के नाम पर जंगल उजाड़े जा रहे हैं। उन्होंने आरोप लगाया कि अदानी-अंबानी जैसे पूंजीपतियों का प्रदेश में दामाद की तरह स्वागत हो रहा है। अमरजीत भगत का तर्क था कि आज अगर बस्तर-संरगुजा में विस्थापन, वनाधिकार हनन और औद्योगिक शोषण हो रहा है तो उसकी ज़िम्मेदार भाजपा की आर्थिक नीतियाँ हैं, जिनके केंद्र में कॉर्पोरेट घरानों के हित हैं, न कि आदिवासियों के हक। छत्तीसगढ़ में नक्सलवाद कोई नई समस्या नहीं है। इसकी जड़ें 1970-80 के दशक में उस समय पड़ीं जब आदिवासी क्षेत्रों में भूमि, वन और खनिज संसाधनों की लूट शुरू हुई और राज्यतंत्र की पहुँच वहां नहीं थी। ये क्षेत्र लंबे समय तक विकास से वंचित रहे, स्वास्थ्य, शिक्षा, रोज़गार और मूलभूत सुविधाओं की भारी कमी थी। नक्सलवाद ने शुरू में एक “विरोध की आवाज़” के रूप में स्थान पाया। उसने स्थानीय आदिवासियों की ज़मीन, जंगल और अधिकारों की रक्षा के नाम पर समर्थन हासिल किया। लेकिन समय के साथ यह आंदोलन भी हिंसा, खून-खराबा और आतंक का पर्याय बन गया। अब यह सवाल उठने लगा है कि नक्सलवाद की पृष्ठभूमि में कौन ज़िम्मेदार है – शोषक सरकारें, कॉर्पोरेट-राजनीति गठजोड़ या आदिवासी हितों की अनदेखी? छत्तीसगढ़ में सत्ता पक्ष और विपक्ष दोनों ही समय-समय पर नक्सलवाद को अपने-अपने राजनीतिक लाभ के लिए इस्तेमाल करते रहे हैं। जब कांग्रेस सत्ता में थी तो भाजपा इसे नक्सलियों के प्रति नरम रवैया बताकर हमला करती थी। अब भाजपा सत्ता में है तो कांग्रेस भाजपा पर पूंजीपतियों के संरक्षण में जंगल उजाड़ने और आदिवासियों को बेदखल करने का आरोप लगा रही है। यह “दामाद” शब्द की राजनीति असल में मुद्दों से भटकाव पैदा करती है। नक्सलवाद जैसे गंभीर और जटिल विषय को राजनीतिक तकरार का हिस्सा बनाकर दोनों ही दलों ने साबित किया है कि वे समस्या के समाधान में नहीं, उसे भुनाने में रुचि रखते हैं। छत्तीसगढ़ का बड़ा हिस्सा वन और खनिजों से समृद्ध है। बस्तर, सरगुजा, कांकेर, बीजापुर, दंतेवाड़ा जैसे इलाके अयस्क, कोयला, बॉक्साइट आदि से भरपूर हैं। पर यही संसाधन इन क्षेत्रों के लिए अभिशाप भी बन गए हैं। बड़े-बड़े खनन प्रोजेक्ट्स, स्टील प्लांट्स और औद्योगिक कॉरिडोरों के लिए आदिवासियों को उनकी भूमि से विस्थापित किया गया, वो भी नाममात्र के मुआवज़े पर। वनाधिकार अधिनियम 2006 के बावजूद आज भी हजारों आदिवासी परिवारों को उनके हक से वंचित रखा गया है। जंगल कट रहे हैं, नदियां सूख रही हैं, और इसके बदले स्थानीय लोगों को बेरोजगारी, पलायन और शोषण का सामना करना पड़ रहा है। कांग्रेस का आरोप है कि भाजपा सरकार कॉर्पोरेट घरानों के साथ खड़ी है। विशेष रूप से अदानी और अंबानी जैसे समूहों को खदानें, बिजली प्रोजेक्ट्स, ट्रांसपोर्ट कॉरिडोर और औद्योगिक पार्कों के ठेके मिल रहे हैं। इसके बदले आदिवासी क्षेत्रों को उजाड़ा जा रहा है। यहाँ ये सवाल उठता है – क्या विकास की कीमत आदिवासियों की संस्कृति, पहचान और अधिकारों की बलि देकर चुकाई जा रही है? क्या सरकारें केवल उन निवेशकों के लिए नीति बना रही हैं जो पूंजी लाते हैं, जबकि स्थानीय समुदायों को “विकास की बाधा” मानकर नज़रअंदाज़ कर दिया गया है? सरकारें नक्सलवाद को केवल कानून-व्यवस्था की समस्या मानती रही हैं, जबकि यह एक सामाजिक-आर्थिक विसंगति की उपज है। पुलिस और सेना की कार्रवाई, सड़क, बिजली और मोबाइल नेटवर्क जैसी सुविधाएं एक स्तर तक असरदार हो सकती हैं, पर जब तक मूलभूत हक जैसे भूमि का स्वामित्व, शिक्षा, रोज़गार और राजनीतिक भागीदारी सुनिश्चित नहीं की जाती, तब तक यह समस्या उभरती ही कौन किसका दामाद है? – यह सवाल सिर्फ एक राजनीतिक बयान नहीं, बल्कि हमारे लोकतांत्रिक विमर्श के पतन की निशानी है। नक्सलवाद, आदिवासी हित, औद्योगिकरण, विस्थापन – ये सब गंभीर विषय हैं, जिन पर ठोस नीति, विचार और बहस की जरूरत है। लेकिन दुर्भाग्यवश, यह सब मुद्दे अब बयानबाजी, आरोप-प्रत्यारोप और भावनात्मक प्रोपेगेंडा तक सीमित होकर रह गए हैं। छत्तीसगढ़ के लिए आगे की राह सिर्फ सुरक्षा बलों के भरोसे नहीं हो सकती। सरकार को चाहिए कि वह नक्सल प्रभावित क्षेत्रों में आदिवासियों के साथ भरोसे की साझेदारी बनाए। ग्राम सभा को अधिकार दें, वनाधिकार कानून को लागू करें, स्थानीय युवाओं को रोज़गार दें और शिक्षा-स्वास्थ्य की आधारभूत संरचना पर ज़ोर दें। साथ ही, राजनीतिक दलों को भी इस विषय पर जिम्मेदारी से बात करनी चाहिए। नक्सलवाद को सिर्फ एक “दामाद” की उपमा देकर उसका उपहास उड़ाना, या पूंजीपतियों को “दामाद” बताकर राजनीतिक अंक बटोरना – ये दोनों ही प्रवृत्तियाँ समाधान की नहीं, बल्कि समस्या को और गहरा करने वाली हैं। छत्तीसगढ़ में नक्सलवाद सिर्फ एक सुरक्षा समस्या नहीं है, यह सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक विफलताओं का समुच्चय है। जब तक आदिवासियों को उनके संसाधनों पर अधिकार, सम्मान और भागीदारी नहीं मिलेगी, तब तक यह समस्या जड़ से समाप्त नहीं होगी। अजय चंद्राकर और अमरजीत भगत के “दामाद” बयानों ने यह स्पष्ट कर दिया है कि राजनीति अब भी इस विषय को हल्के ढंग से ले रही है। यह समय है जब नक्सलवाद पर गंभीर विमर्श हो, वास्तविक समाधान तलाशे जाएं और राजनीतिक दल आरोप-प्रत्यारोप से ऊपर उठकर संवेदनशील और समावेशी विकास की दिशा में कदम बढ़ाएं। ईएमएस / 04 जुलाई 25