क्षेत्रीय
13-Jul-2025
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गुना (ईएमएस)। जो कुछ आंखों से दिख रहा है, उत्पन्न हुआ है वह नियम से नष्ट होने वाला है। श्रावक को हमेशा दान देने रहना चाहिए। श्रावक देने से कीर्ति एवं यश को प्राप्त होता है। जब वह मुनिराज को आहार दान देता है तब उसका हाथ ऊपर रहता है और आहार लेने वाले मुनिराज, आचार्यों का हाथ नीचे रहता है। यह दान की ही महिमा है। इसके प्रभाव से वह भोग भूमि में सुख भोगता है। अत: श्रावक को अपने छह आवश्यक देव पूजा, गुरु उपासना, स्वाध्याय, संयम, तप और दान करते रहना चाहिए। उक्त धर्मोपदेश चौधरी मोहल्ला स्थित महावीर भवन में कार्तिकेनुप्रेक्षा नाम ग्रंथ की चौथी गाथा का स्वाध्याय कराते हुए निर्यापक मुनिश्री योग सागरजी महाराज के संघस्थ मुनिश्री निर्लोभ सागरजी महाराज ने दिए। मुनिश्री ने कहा कि जब भी कोई संकट या कर्मों का उदय आए तो उन बुरे समय में हमें बारह भावनाओं को बार-बार चिंतन करना चाहिए। भगवान पाश्र्वनाथ, सुकोशल मुनिराज, गजकुमार मुनिराज सहित कई महापुरूषों ने मुनि अवस्था में कर्मों का उदय आने पर इन्हीं बारह भावनाओं का चिंतन करके केवल्य ज्ञान की प्राप्त की। हमारे जीवन में भी जब परेशानी आए, कर्मों का उदय हो उस समय हमें बारह भावनाओं का बार-बार चिंतन करना चाहिए। मगर आज थोड़ी सी प्रतिकूल परिस्थितियां आने पर टेंशन होने पर हम धर्म को भूलकर दूसरा मार्ग पकड़ लेते हैं। उस समय हम महापुरूषों के जीवन चरित्र को पढक़र अपने आप को धर्म में स्थिर कर सकते हें। मुनिश्री ने अनित्य भावना को समझाते हुए कहा कि यह बारह भावनाओं में सबसे पहली भावना है। अनंतकाल से चार गति चौरासी लाख योनियों में भटकता हुआ यह जीव जब सत्य से परिचित हो जाता है कि हमारा वास्तविक स्वरूप क्या है। इन भावनाओं को बार-बार चिंतन करने से शरीर और आत्मा की भिन्नता ज्ञात होने लगती है। वह संसारी प्राणी राग, द्वेष से भिन्न अपनी शुद्धात्मा का ध्यान में ध्येय बनाकर जो आजतक नहीं किया वह करना आरंभ कर देता है। साधु संत अपने आप को समझकर राग, द्वेष, मोह से हटकर निर्मोही बन जाते हैं। आचार्यश्री ने तो एक बार जिनेश्वरी दीक्षा दे दी है अब मुनिराजों का कर्तव्य है कि वह समय पर सामायिक, प्रतिक्रमण, आहार, भक्ति वंदना करके जैसे सर्वज्ञ देव ने कहा कि वैसे करें। उसी मार्ग पर गुरु आज्ञा से चले। एक न एक दिन वह भी सिद्धों जैसे बन जाएंगे। इस मौके पर मुनिश्री ने संस्मरण सुनाते हुए कहा कि वर्ष 2017 में आचार्यश्री विद्या सागरजी महाराज ने उक्त ग्रंथ को उन्हें समझाया था। जितनी बार भी आचार्यश्री समझाते थे हर बार नया-नया चिंतन रहता था। - सीताराम नाटानी (ईएमएस)