* तकनीक को साधन बनाएँ साध्य नहीं हम एक ऐसी दुनिया में जी रहे हैं जहाँ तकनीक प्रत्येक पल और हर कदम पर हमारे साथ है। स्मार्टफोन, जो कभी सुविधा का प्रतीक हुआ करता था, आज हमारी दिनचर्या का केंद्र बन चुका है। यह उपकरण जो कभी केवल कॉल, मैसेज और अलार्म तक सीमित था, अब हमारे संवाद, मनोरंजन, सूचनाओं और यहां तक कि भावनाओं तक का माध्यम बन गया है। पर क्या कभी हमने यह सोचने की ज़हमत उठाई है कि जिस फोन को हम अपनी सबसे बड़ी ताकत समझते हैं, वह कहीं हमारी मानसिक शांति और एकाग्रता को खत्म करने का माध्यम तो नहीं बन गया? आज अधिकांश लोग सुबह की शुरुआत मोबाइल के अलार्म से नहीं, बल्कि इंस्टाग्राम, व्हाट्सऐप या मेल चेक करने से करते है। दिन भर काम के बीच में भी हर कुछ मिनट पर फोन की स्क्रीन अनायास देखी जाती है—कोई नया नोटिफिकेशन आया क्या? कोई नई पोस्ट, नया वीडियो, या कोई अपडेट तो नहीं? यह सब इतना सामान्य हो चुका है कि हमें अब इसमें असामान्यता का कोई संकेत नहीं दिखता। लेकिन यहीं से शुरू होता है असली नुकसान—धीरे-धीरे और गहराई से। एक तरफ मोबाइल ने हमें दुनिया से जोड़ दिया, वहीं इसने हमारी खुद से दूरी बढ़ा दी है। विशेषज्ञ मानते हैं कि मोबाइल पर अत्यधिक निर्भरता न केवल मानसिक एकाग्रता को प्रभावित करती है, बल्कि यह हमारी सोचने-समझने की क्षमता, हमारी रचनात्मकता और रिश्तों की गहराई को भी प्रभावित करती है। डोपामिन, जो हमारे मस्तिष्क को खुशी का अनुभव कराता है, वह हर एक ‘लाइक’, ‘कमेंट’, और ‘नोटिफिकेशन’ से उत्तेजित होता है। यह तात्कालिक आनंद तो देता है, पर दीर्घकालीन दृष्टि से यह हमें थका देता है, बेचैन करता है और चिड़चिड़ापन पैदा करता है। हमारे जीवन से वह शांति और स्थिरता धीरे-धीरे खोती जा रही है जो कभी एकांत में बैठने, किताबें पढ़ने या प्रकृति से जुड़ने से मिलती थी। आजकल हम बस में सफर करते समय, कैफ़े में बैठे हुए या परिवार के बीच में होते हुए भी अपने फोन की स्क्रीन में डूबे रहते हैं। अब खाली वक्त को सहने की आदत नहीं रही। हर विराम, हर शून्यता को तुरंत भरने के लिए स्क्रीन मौजूद रहती है। और सबसे खतरनाक बात यह है कि यह लत अब बच्चों में भी साफ़ देखी जा सकती है। 5 साल का बच्चा भी खाना तभी खाता है जब उसके सामने मोबाइल चल रहा हो। किशोर अब अपने मन की बात दोस्तों से नहीं, बल्कि सोशल मीडिया पोस्ट्स से ज़ाहिर करते हैं। रिश्ते धीरे-धीरे भावनाओं से नहीं, रील्स और रिएक्शन से जुड़ने लगे हैं। इस परिस्थिति से निकलने का पहला कदम है *डिजिटल अवेयरनेस*—यानि यह समझना कि मोबाइल का अत्यधिक उपयोग कब नुकसानदायक बन रहा है। उसके बाद आता है *डिजिटल डिटॉक्स*—कुछ घंटे, कुछ दिन या कुछ समय के लिए फोन से दूरी बनाना। शुरुआत आसान नहीं होगी, लेकिन धीरे-धीरे जब हम देखेंगे कि हमारे भीतर फिर से ध्यान टिकने लगा है, रिश्ते गहराने लगे हैं और मन हल्का महसूस करता है—तब हम समझेंगे कि असली सुख कहां छिपा था। हमें मोबाइल को साधन की तरह उपयोग करना होगा, साध्य की तरह नहीं। तकनीक हमारे जीवन को आसान बनाने के लिए है, उसे जीने का आधार नहीं बनाना चाहिए। कोई भी टेक्नोलॉजी तब तक वरदान है, जब तक वह हमारी स्वतंत्रता में बाधा न बने। अब समय है कि हम स्क्रीन से नजर हटाकर अपने भीतर झाँकें। आत्म-निरीक्षण करें कि क्या वाकई हम समय को जी रहे हैं, या बस सोशल मीडिया की रफ्तार में बह रहे हैं। शायद वही खोई हुई मानसिक शांति, वही पुरानी स्थिरता और वो गहराई हमें फिर से महसूस हो—बस हमें थोड़ा ठहरना होगा। ईएमएस/06/08/2025