सुप्रीम कोर्ट के न्यायाधीश जस्टिस दीपांकर दत्ता की राहुल गांधी के बारे में हालिया टिप्पणीअगर आप सच्चे भारतीय होते तो ऐसा नहीं कहते। इस टिप्पणी ने सारे देश में तूफान खड़ा कर दिया है। न्याय पालिका और न्यायाधीशों की मर्यादा, सीमाओं पर गहरा विचार विमर्श होने लगा। यह टिप्पणी विपक्ष के नेता राहुल गांधी द्वारा भारत-चीन सीमा विवाद पर दिए गए बयान के संदर्भ में थी। उन्होंने कहा था,चीन ने भारत की भूमि पर कब्जा कर लिया है। उप्र में उनके बयां पर मानहानी का मुकदमा उप्र की कोर्ट में चल रहा हैा यह चिंता का विषय है, एक संवैधानिक संस्था, जो अपने विवेक, संतुलन और मौलिक अधिकारों की रक्षा के लिए संविधान द्वारा संरक्षित की गई है। वह एक राजनीतिक बयान को देशभक्ति की परीक्षा में बदल दे। भारतीय संविधान का अनुच्छेद 19(1)(a) मे नागरिकों को अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता देता है। ऐसे में विपक्षी नेता द्वारा सरकार से राष्ट्रीय सुरक्षा पर सवाल करना ना केवल उसका अधिकार है, बल्कि लोकतंत्र की आत्मा और संविधान के मौलिक अधिकारों में शामिल है। इस अधिकार को सुरक्षित रखने की जिम्मेदारी सुप्रीम कोर्ट की ही है। सुप्रीम कोर्ट से राहुल गांधी को राहत मिली। जस्टिस दत्ता ने जो टिप्पणी की उनके बाद देश भर में बवाल मच गया। गंभीर सवाल यह है, क्या अदालतें अब नागरिकों की भारतीयता का मूल्यांकन करेंगी? क्या सच्चा भारतीय होने का प्रमाण न्यायालय तय करेगा? यह प्रवृत्ति न केवल लोकतांत्रि शासन व्यवस्था विमर्श के लिए खतरनाक है, बल्कि न्यायिक निरपेक्षता पर भी गहरा आघात है। सत्ता पक्ष की आलोचना को देशद्रोह या राष्ट्र विरोध की परिभाषा में समेटना लोकतंत्र के लिए घातक है। जब सुप्रीम कोर्ट के एक जज ही इस तरह की टिप्पणी करें, उसके बाद संविधान प्रदत्त अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का कोई अर्थ नहीं रहेगा। राहुल गांधी पर टिप्पणी करने से पहले दत्ता को यह भी समझाना चाहिए था। उनकी टिप्पणी पर किस तरह की प्रतिकि्या होगी। राहुल के पहले भाजपा के अपने सांसद ने और एक वरिष्ठ नेता पूर्व सांसद सुब्रमण्यम स्वामी अतीत में वही बात कह चुके थे। उन पर कोई टिप्पणी किसी भी न्यायाधीश की नहीं आई। सुप्रीम कोर्ट के इस दोहरे मापदंड की देश भर में चर्चा होने लगी है। पिछले कुछ वर्षों में सुप्रीम कोर्ट और हाईकोर्ट के जजों में सुनवाई के दौरान टिप्पणी करने का चलन बढ़ गया है। जब आदेश आता है तो इन टिप्पणी का कोई वजूद आदेश में नहीं रहता है। सत्ता पक्ष कोर्ट द्वारा की गई टिप्पणी पर विपक्षियों पर हमला करने और अपने राजनीतिक हितों के लिए इस्तेमाल करता हैा न्यायालयों को अपनी लक्ष्मण रेखा नहीं भूलनी चाहिए। उनका कार्य फैसला देना है, उपदेश देना या टिप्पणी करना नहीं है। सच्चा भारतीय जैसे वाक्य अदालत की गरिमा और उसके कार्यक्षेत्र के अनुरूप नहीं हैं। इस तरह की टिप्पणी को लाभ पहुंचाने का एक राजनीतिक तौर तरीका बन गया हैा इस टिप्पणी ने न्यायपालिका, राजनीति और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के त्रिकोण में देश में एक नई बहस को जन्म दे दिया है। यह बहस केवल राहुल गांधी तक सीमित नहीं रही। यह देश के हर नागरिक की अभिव्यक्ति और अधिकार से जुड़ी टिप्पणी है। क्या लोकतंत्र में सरकार से सवाल पूछना, देशद्रोह और भारतीय नागरिकता पर संदेह का आधार बनेगा? सुप्रीम कोर्ट की इस टिप्पणी के बाद जिस तरह से भाजपा के मीडिया सेल बीजेपी के नेताओं तथा सरकार मैं बैठे हुए लोगों ने राहुल गांधी के खिलाफ मोर्चा खोलकर उनके उपर हमला किया है। यह राहुल गांधी अथवा विपक्षी दलों की सरकारें हैा वहां पहली बार नहीं हुआ है। इन दिनों केंद्र सरकार के मंत्री बार-बार कहते हैं।यदि सरकार से सहमत नहीं है, तो कोर्ट चले जाएं। जब कोर्ट जाते हैं, तब वहां से इस तरह की टिप्पणी विपक्षियों को उन्हें दोहरा नुकसान पहुंचती हैं। सुप्रीम कोर्ट और हाईकोर्ट से फैसला और आदेश नहीं मिलता हैं। हां सुनवाई के दौरान जजों द्वारा जो टिप्पणी की जाती हैं। वह सरकार और भाजपा के पक्ष में माहौल बनाने का काम करती हैं। न्यायालय के पीछे छुपकर सत्तापक्ष की राजनीति की जो नई बयार (क्रोनोलॉजी) बह रही है। उसे देश के विपक्षी राजनीतिक दलों,वरिष्ठ अधिवक्ताओं ने समझ लिया है। न्यायपालिका को लेकर यह धारणा बनने लगी है। सरकार जो चाहती है, उसी के अनुकूल फैसले होते हैं। पिछले कुछ समय से इसका विरोध अब दिखने लगा है। सुप्रीम कोर्ट और हाईकोर्ट जो टिप्पणी करती हैा फैसले उसके अनुरुप नहीं होते है। टिप्पणी जब फैसले का भाग नहीं बनती हैं तो इनका क्या औचित्य है। अब तो तारीख पर तारीख का नया खेल शुरू हो गया है। सरकार से जुड़े जनहित के मामलों की कोर्ट में कई महीनों और वर्षो तक सुनवाई नहीं होती है। राहुल गांधी के खिलाफ की गई टिप्पणी का यह मामला दिन प्रतिदिन तूल पकड़ता चला जा रहा है। सुप्रीम कोर्ट के वरिष्ठ अधिवक्ता कई बार कह चुके हैं। सरकार द्वारा जजों का डोजियर तैयार कराया जाता है। सरकार के एक ही विचारधारा को नियुक्ति कर रही है। भाजपा और संघ के नेताओं के साथ जजों की निकटता बढ़ रही है। सरकार जो चाहती है, वैसे ही फैसले हाई कोर्ट और सुप्रीम कोर्ट से होते हैं। यदि यह धारणा न्यायपालिका को लेकर बन गई है, तो भारतीय संविधान लोकतंत्र और न्यायपालिका का भगवान ही मालिक है। ईएमएस/06/08/2025