भारत का लोकतंत्र अपने गर्वित स्वरूप में तभी संपूर्ण होगा है। जब 18 वर्ष से ऊपर के सभी नागरिक को मतदान का अधिकार सुरक्षित हो। बिहार में चल रहा, विशेष गहन पुनरीक्षण (SIR) अभियान इस अधिकार पर गहरी चोट कर रहा है। सुप्रीम कोर्ट में पेश होकर योगेंद्र यादव ने जिस तरह तथ्यों और तर्कों के साथ मतदाता के इस अधिकार पर हो रहे खतरे को उजागर किया है, उसने न केवल अदालत बल्कि पूरे देश को चौंका दिया है। सुप्रीम कोर्ट ने उन्हें धन्यवाद देते हुए माना उनकी दलील तथ्यात्मक और गंभीर हैं। सबसे बड़ा सवाल यह है कि 8 करोड़ मतदाताओं तक पहुँचने के बाद भी एक भी नया नाम चुनाव आयोग ने मतदाता सूची में क्यों नहीं जोड़ा। यह “जीरो एडिशन” और “मैसिव डिलीशन” का मामला है। 65 लाख नाम मतदाता सूची से हटाए गए हैं। जिनमें 31 लाख महिलाएं शामिल की गई हैं। महिलाएं कम पलायन करती हैं, पुरुषों की तुलना में अधिक समय तक जीवित रहती हैं। ऐसी स्थिति में इसे वास्तविक कटौती कैसे माना जा सकता है। यह किन कारणों से कैसे संभव हुई ? इसका जवाब चुनाव आयोग को देना चाहिए। मतदाता सूची में बीएलओ द्वारा नॉट रिकमंड नामक नई कैटेगरी बिना स्पष्ट मानदंड के बनाई गई है, जिसके आधार पर नाम काटे गए हैं । और तो और, जिंदा लोगों को मृत सूची में डालकर उनका मतदान का अधिकार खत्म कर दिया गया है। उनके नाम भी चुनाव आयोग उजागर नहीं कर रहा है। यह त्रुटियां नहीं, बल्कि प्रक्रिया में गहरी खामियों, साजिस और संभावित पूर्वाग्रह की ओर इशारा है। योगेंद्र यादव ने सुप्रीम कोर्ट में अपना पक्ष रखते हुए चेतावनी देते हुए कहा, वयस्क आबादी में मतदाता अनुपात 97% से गिरकर 88% पर आ गया है। सघन पुनरीक्षण के नाम पर 1 करोड़ मतदाताओं के नाम काटने की दिशा में चुनाव आयोग आगे बढ़ रहा है। जिस तरह से 19वीं सदी के अमेरिका मैं हुआ था उसी तरह से अब भारत में सार्वभौमिक मताधिकार को खत्म करने का सबसे बड़ा उदाहरण बनने जा रहा है। चुनाव आयोग, की संवैधानिक जिम्मेदारी में उसे नागरिक के मताधिकार का संरक्षक माना गया है। 6 माह से अधिक कोई भी नागरिक किसी भी राज्य में रह रहा हो। संविधान के अनुसार उसे मताधिकार सुनिश्चित करने की जिम्मेदारी केंद्रीय चुनाव आयोग की है। वर्तमान चुनाव आयोग नागरिक को अपनी नागरिकता साबित करने पर मजबूर कर रहा है। फॉर्म भरने और प्रमाण पत्र पेश करने के नाम पर गरीब और साधारण मतदाता का मताधिकार छीनने की कोशिश कर रहा है। यह आश्चर्यचकित करने वाली कार्यवाही है। यह केवल एक राज्य का मामला नहीं है। चुनाव आयोग की इस कार्रवाई से लोकतंत्र की जड़ों को कमजोर किया जा रहा है। अगर मतदाता सूची से इस बड़े पैमाने पर नाम काटे जाते रहे। तो यह न केवल चुनावी निष्पक्षता को खत्म करेगा। बल्कि नागरिकों के मन में यह डर बैठा देगा, उनका मत देने का अधिकार कभी भी छीना जा सकता है। सुप्रीम कोर्ट की निगरानी में चुनाव आयोग द्वारा सघन पुनरीक्षण की जो प्रक्रिया शुरू की गई है। इसकी तुरंत समीक्षा होनी चाहिए। चुनाव आयोग द्वारा जिस तरह से बिहार में मतदाता सूची से लोगों के नाम हटाए गये। चुनाव आयोग को नागरिकता तय करने का अधिकार नहीं है भारत सरकार ने अभी तक नागरिक रजिस्टर तैयार नहीं किया है। भारत सरकार जब आधार लेकर आई थी तब दावा किया गया था इससे नागरिकों की पहचान सुनिश्चित होगी। आंखों की पुतलियां चेहरा और हाथ की रेखाएं यह सुनिश्चित करेंगी, कि वह भारत के नागरिक हैं। उसमें सभी आधुनिक तकनीकी पक्ष का ध्यान रखा गया था अब यह कहा जा रहा है, डुप्लीकेट आधार कार्ड हैं। तो यह तकनीकी और सरकार की नाकामी है। भारत में नकली बनाना सबसे आसान काम है। नकली नोट बड़े पैमाने पर भारत में चलते हैं। नकली सर्टिफिकेट तैयार किए जाते हैं यदि नकली आधार भी है तो यह सरकार की सबसे बड़ी नाकामी है। जब सरकार ही जनता से सबूत मांगने लगे। सरकार खुद ही अपनी जिम्मेदारी से बचकर नागरिकों को मोहरा बनाने लगे। ऐसी स्थिति में भारतीय संविधान और लोकतंत्र का कोई मायना नहीं रह जाएगा। सभी संवैधानिक संस्थाओं राजतंत्र के इशारे पर काम कर रही हैं। अप्रत्यक्ष रूप से राजतंत्र के लक्षण भारत में देखने को मिल रहे है। भारत की संवैधानिक संस्थाएं निर्णय स्वयं नहीं कर पा रही हैं, यही वर्तमान का सत्य है। अब तो लोग न्यायपालिका के ऊपर भी अविश्वास कर रहे हैं। आम नागरिक खुले आम कहने लगा है न्यायालय का फैसला चुनाव आयोग और सरकार के पक्ष में होगा। सरकार जो चाहती है वही फैसला न्यायालय से आता है। ऐसी स्थिति में अब संविधान और लोकतंत्र को बचाने के लिए, जनता की अदालत में जाने की बात नेता और राजनीतिक दल करने लगे हैं यह सबसे चिंताजनक स्थिति है बिहार के सघन मतदाता पुनरीक्षण के लिए जिस तरह की मनमर्जी केंद्रीय चुनाव आयोग द्वारा की जा रही है। सुप्रीम कोर्ट के निर्देशों की अवहेलना करते हुए जिस तरह से सुप्रीम कोर्ट में चुनाव आयोग अपना पक्ष रख रहा है। उसको देखकर ऐसा लगता है चुनाव आयोग के अधीन सुप्रीम कोर्ट काम कर रहा है ? सुप्रीम कोर्ट जिसके ऊपर संविधान और लोकतंत्र की रक्षा करने की जिम्मेदारी है। सुप्रीम कोर्ट से यदि न्याय संविधान के पक्ष में नहीं आया। नियम कानून का ध्यान नहीं रखा गया ऐसी स्थिति में भारत के चुनावी इतिहास एवं लोकतंत्र का सबसे काला अध्याय माना जाएगा। जनतंत्र के स्थान पर राजतंत्र की कल्पना की जाने लगी है। जिस संविधान ने भारत के प्रत्येक नागरिक को बिना किसी भेदभाव के समान अधिकार दिए है। उसमें सबसे बड़ा अधिकार मताधिकार का है। अब यदि वही खत्म हो जाएगा तो राजतंत्र आने में ज्यादा समय नहीं लगेगा, यही कहा जा सकता है। ईएमएस/14/08/2025