लोकतंत्र में नागरिक और सरकार के बीच भरोसा सबसे महत्वपूर्ण आधार होता है। यह भरोसा तभी कायम रह सकता है, जब सरकार नागरिकों की स्वतंत्रता और निजता की रक्षा करे। मतदान के जरिये नागरिक अपने अधिकार निर्वाचित प्रतिनिधि को देता है, निर्वाचित व्यक्ति संसद, विधानसभा एवं स्थानीय संस्थाओं में मतदाताओं के अधिकारों का उपयोग करते हुए नीतियां बनाने के लिए मतदान करता है। अपने मतदाताओं के हितों को ध्यान में रखते हुए बहुमत के आधार पर निर्णय लिए जाते हैं। हाल के समय में जिस तरह से कानून संसद और अनेक विधानसभाओं में पारित किए जा रहे हैं, वह हल्ले के बीच बिना चर्चा के कानून बना रहे हैं। यह स्थिति 75 वर्षों में सबसे चिंतनीय है। कानून में बदलाव कर सरकार को नागरिकों के निजी डेटा तक बिना अनुमति पहुंचने का अधिकार दिया गया है। उसने मतदाता के भरोसे को गहरी चोट पहुंचाई है। अब स्थिति यह है, सरकार आपकी अनुमति के बिना आपके ईमेल, सोशल मीडिया अकाउंट, बैंकिंग ऐप, मोबाइल चैट, क्लाउड स्टोरेज और व्यक्तिगत तस्वीरों एवं सभी निजी जानकारी तक सरकार और उसके नुमाइंदे पहुंच सकते हैं। यह केवल तकनीकी निगरानी नहीं है, बल्कि पासवर्ड और एन्क्रिप्शन तोड़ने का अधिकार भी सरकार और उनके अधिकारी, कर्मचारियों को मिल गया है। इसका सीधा मतलब है, नागरिक का निजी जीवन ओर निजता के जो संवेधानिक अधिकार हैं, अब वह सरकार के रहमों-करम पर रहेंगे। संविधान के अनुच्छेद 21 के तहत प्रत्येक नागरिक को अपनी इच्छा के अनुसार जीवन जीने और व्यक्तिगत स्वतंत्रता का अधिकार प्राप्त है। 2017 में भूता स्वामी बनाम भारत सरकार के ऐतिहासिक फैसले में सुप्रीम कोर्ट ने साफ कहा था, निजता नागरिकों के मौलिक अधिकार में शामिल है। इसके बावजूद, इस तरह का कानून पारित होना न केवल संवैधानिक मूल्यों के विपरीत है, बल्कि लोकतांत्रिक प्रक्रिया और नागरिकों के अधिकारों के लिए भी खतरे की घंटी है। इस प्रावधान का दायरा केवल कर चोरी रोकने तक सीमित नहीं रहेगा। इसका राजनीतिक उपयोग कर विपक्षी नेताओं, पत्रकारों और सामाजिक कार्यकर्ताओं को निशाना बनाने के लिए भी किया जा सकता है। इस अधिकार का दुरूपयोग भ्रष्टचार के लिए होगा। जब सरकार के पास किसी व्यक्ति के वित्तीय लेन-देन, निजी बातचीत और संवेदनशील दस्तावेजों की जानकारी होगी, तो चरित्र हनन और ब्लैकमेल की संभावनाएं भी बढ़ जाएंगी। सामाजिक एवं पारिवारिक अशांति का कारण भी बनेगा। डेटा सुरक्षा के मामले में हमारा रिकॉर्ड पहले ही कमजोर रहा है। 2018 में आधार डेटा लीक, उससे पहले व बाद में कई तरह के डेटा लीक होने की घटनाओं ने यह साबित किया है, कि सरकारी सिस्टम मजबूत नहीं हैं। डेटा लीक होने के बाद लापरवाही के लिए किसी को दंडित नही किया गया है। डेटा को खुलेआम बेचने के भी मामले सामने आये हैं। सरकार और उसकी एजेंसी संवेदनशील जानकारी की पूरी तरह रक्षा कर सकें, इसमें वे सक्षम नहीं हैं। ऐसे में नागरिकों की गोपनीय जानकारी पर असीमित और बिना न्यायिक अनुमति के अधिकार देना नागरिकों के अधिकारों और निजता के लिए एक गंभीर जोखिम हो गया है। संवैधानिक एवं लोकतान्त्रिक स्वतंत्रता केवल वोट देने के अधिकारों का नाम नहीं है। यह व्यक्ति की गरिमा, उसकी निजता और उसके जीवन की स्वायत्तता पर भी लागू है। यदि इन बुनियादी तत्वों को कमजोर किया जाता है, तो नागरिकों की यह आज़ादी धीरे-धीरे एक ऐसे स्वरूप में बदल सकती है। जहां नागरिक सरकार के भरोसे पर नहीं, बल्कि सरकार की मर्जी और कृपा पर जीवन बिताने को विवश होते हैं। इसे ही गुलामी कहा जाता है। वर्तमान में हर नागरिक को इस मुद्दे पर जागरूक और सजग रहना होगा। पहले हम राजा, महराजाओं के उसके बाद मुग़लों, ईस्ट इंडिया कंपनी और अंग्रेजों के गुलाम रहे। स्वतंत्रता के पश्चात भारत के सभी नागरिकों को बिना किसी भेदभाव के मानव जीवन के जो अधिकार मिले थे, उस पर सरकार का निंयत्रण वैसे ही बढ़ता जा रहा है। जो गुलामी के समय था। अब ऐसा लगने लगा है, मानों हम लोकतंत्र को छोड़कर एक बार फिर राजतंत्र की ओर ले जाए जा रहे हैं। ईएमएस / 16 अगस्त 25