पूर्वजो के प्रति श्रद्धाभाव अभिव्यक्त करने का एक पुनीत अवसर! डॉ श्रीगोपाल नारसन एडवोकेट श्राद्ध पक्ष पूर्वजों के प्रति नमन का है पुनीत अवसर पर जीवित उनके रहते हुए उन्हें भूले रहते हम अक्सर जीते जी सेवा बडो की खुश होकर करते जो जन वे सदा सुख ही भोगते तनाव मुक्त रहता उनका मन दिवंगत होने के बाद भी पितृ लोक से वे देते आशीष पर जिसने उनको कष्ट दिया उन्हें कभी नहीं मिलती बख्शीस माता पिता को जिसने देव माना श्राद्ध का भाव उसी ने जाना। पितृपक्ष भाद्रपद महीने के शुक्ल पक्ष की पूर्णिमा से लेकर अश्विन महीने के कृष्ण पक्ष की अमावस्या तिथि तक होता है। इस साल पितृ पक्ष की शुरुआत 7 सितंबर, 2025 से होगी और इसकी समाप्ति 21 सितंबर, 2025 को होगी। इस साल भाद्रपद महीने की पूर्णिमा तिथि 07 सितंबर को देर रात 01:41 बजे पर शुरू होगी, जबकि इसका समापन 07 सितंबर 2025 को ही रात 11:38 बजे पर होगा। इस बार श्राद्ध सूची निम्नप्रकार रहेगी, रविवार, 7 सितंबर 2025 - पूर्णिमा का श्राद्ध सोमवार, 8 सितंबर 2025,- प्रतिपदा का श्राद्ध मंगलवार, 9 सितंबर 2025- द्वितीय का श्राद्धबुधवार, 10 सितंबर 2025- तृतीया का श्राद्धबुधवार, 10 सितंबर 2025- चतुर्थी का श्राद्धगुरुवार, 11 सितंबर 2025- पंचमी का श्राद्धगुरुवार, 11 सितंबर 2025- महाभरणीशुक्रवार, 12 सितंबर 2025- षष्ठी का श्राद्धशनिवार, 13 सितंबर 2025- सप्तमी का श्राद्ध रविवार, 14 सितंबर 2025- अष्टमी का श्राद्ध सोमवार, 15 सितंबर 2025- नवमी का श्राद्ध मंगलवार, 16 सितंबर 2025- दशमी का श्राद्ध बुधवार, 17 सितंबर 2025- एकादशी का श्राद्ध गुरुुवार, 18 सितंबर 2025-द्वादशी का श्राद्ध शुक्रवार, 19 सितंबर 2025- त्रयोदशी श्राद्ध शुक्रवार, 19 सितंबर 2025- माघ श्रद्धा रविवार, 20 सितंबर 2025- चतुर्दशी का श्राद्धरविवार, 21 सितंबर 2025- सर्वपितृ अमावस्या पितृ पक्ष में सुबह और शाम के समय देवी-देवताओं की पूजा होती है, जबकि दोपहर का समय पितरों को समर्पित होता है। इसलिए श्राद्ध कर्म दोपहर 12:00 बजे किया जाता है। वहीं श्राद्ध कर्म के लिए कुतुप और रौहिण मुहूर्त सबसे शुभ माना जाता है।अगर आप पितृपक्ष में श्राद्ध कर्म करना चाहते हैं तो सुबह उठकर सबसे पहले स्नान करें।इसके बाद आप अपने पितरों का तर्पण करें। श्राद्ध के दिन कौवे, चींटी, गाय, देव, कुत्ते और पंचबलि को भोजन दें, साथ ही ब्राह्मणों को भी भोजन करवाएं। श्राद्ध पक्ष में ।।ऊॅं नमो भगवते वासुदेवाय।।मन्त्र का वाचन करना चाहिए। जिस दिन श्राद्ध हो उस दिन श्राद्ध की शुरूआत और समापन में ।।देवताभ्यः पितृभ्यश्च महायोगिभ्यन एव च। नमः स्वा्हायै स्व धायै नित्ययमेव भवन्युव त।।का वाचन करे। आश्विन कृष्ण पक्ष प्रतिपदा से पितृ पक्ष श्राद्ध आरंभ होता है। इस वर्ष 13 सितंबर से पूर्णिमा को ऋषि तर्पण और श्राद्ध शुरू हो रहा है। 14 सितंबर से पितृ पक्ष श्राद्ध आरंभ होकर 28 सितंबर तक चलेगा। पितृ पक्ष पितरों को याद करने का समय माना जाता है। पितर 2 प्रकार के होते हैं एक दिव्य पितर और दूसरे पूर्वज पितर। दिव्य पितर ब्रह्मा के पुत्र मनु से उत्पन्न हुए ऋषि हैं। पितरों में सबसे प्रमुख अर्यमा हैं जिनके बारे में गीता में श्रीकृष्ण ने कहा है कि पितरों में प्रधान अर्यमा वे स्वयं हैं। दूसरे प्रकार के पितर पूर्वज होते हैं। पितृपक्ष में अपने इन्हीं पितरों को लोग याद करते हैं और इनके नाम से पिंडदान, श्राद्ध और ब्राह्मण भोजन करवाते हैं। कठोपनिषद्, गरुड़ पुराण, मार्कण्डेय पुराण के अनुसार पितर अपने परिजनों के पास पितृपक्ष श्राद्ध के समय आते हैं और अन्न जल एवं आदर की अपेक्षा करते हैं। जिन परिवार के लोग पितृ पक्ष के दौरान पितरों के नाम से अन्न जल दान नहीं करते। श्राद्ध कर्म नहीं करते हैं। उनके पितर भूखे-प्यासे धरती से लौट जाते हैं। इससे परिवार के लोगों को पितृ दोष लगता है। इसे पितृ शाप भी कहते हैं। इससे संतान प्राप्ति में बाधा आती है। परिवार में रोग और कष्ट बढ जाता है। पितृ पक्ष में जिन तिथियों में पूर्वज यानी पिता, दादा, परिवार के लोगों की मृत्यु हुई होती है उस तिथि को उनका श्राद्ध किया जाता है। श्राद्ध का नियम है कि दिन के समय पितरों के नाम से श्राद्ध और ब्राह्मण भोजन करवाना चाहिए। देवताओं की पूजा सुबह में और पितरों की दोपहर में होती है। पूर्वाह्णे मातृकं श्राद्धमराह्णे तु पैतृकम। एकोदि्दष्टं तु मध्याह्णे प्रातर्वृद्धि निमित्तकम्।। तर्पण विधि - सर्वप्रथम अपने पास शुद्ध जल, बैठने का आसन (कुशा का हो), बड़ी थाली या ताम्रण (ताम्बे की प्लेट), कच्चा दूध, गुलाब के फूल, फूल-माला, कुशा, सुपारी, जौ, काली तिल, जनेऊ आदि पास में रखे। आसन पर बैठकर तीन बार आचमन करें। ॐ केशवाय नम:, ॐ माधवाय नम:, ॐ गोविन्दाय नम: बोलें। आचमन के बाद हाथ धोकर अपने ऊपर जल छिड़के अर्थात् पवित्र होवें, फिर गायत्री मंत्र से शिखा बांधकर तिलक लगाकर कुशे की पवित्री (अंगूठी बनाकर) अनामिका अंगुली में पहन कर हाथ में जल, सुपारी, सिक्का, फूल लेकर निम्न संकल्प लें। अपना नाम एवं गोत्र उच्चारण करें फिर बोले अथ् श्रुतिस्मृतिपुराणोक्तफलप्राप्त्यर्थ देवर्षिमनुष्यपितृतर्पणम करिष्ये।। फिर थाली या ताम्र पात्र में जल, कच्चा दूध, गुलाब की पंखुड़ी डाले, फिर हाथ में चावल लेकर देवता एवं ऋषियों का आह्वान करें। स्वयं पूर्व मुख करके बैठें, जनेऊ को रखें। कुशा के अग्रभाग को पूर्व की ओर रखें, देवतीर्थ से अर्थात् दाएं हाथ की अंगुलियों के अग्रभाग से तर्पण दें, इसी प्रकार ऋषियों को तर्पण दें। फिर उत्तर मुख करके जनेऊ को कंठी करके (माला जैसी) पहने एवं पालकी लगाकर बैठे एवं दोनों हथेलियों के बीच से जल गिराकर दिव्य मनुष्य को तर्पण दें, इसके बाद दक्षिण मुख बैठकर, जनेऊ को दाहिने कंधे पर रखकर बाएं हाथ के नीचे ले जाए, थाली या ताम्र पात्र में काली तिल छोड़े फिर काली तिल हाथ में लेकर अपने पितरों का आह्वान करें। ॐ आगच्छन्तु में पितर इमम ग्रहन्तु जलान्जलिम फिर पितृ तीर्थ से अर्थात् अंगूठे और तर्जनी के मध्य भाग से तर्पण दें। जो स्वजन अपने शरीर को छोड़कर चले गए हैं चाहे वे किसी भी रूप में अथवा किसी भी लोक में हों, उनकी तृप्ति और उन्नति के लिए श्रद्धा के साथ जो शुभ संकल्प और तर्पण किया जाता है, वह श्राद्ध है। माना जाता है कि सावन की पूर्णिमा से ही पितर मृत्यु लोक में आ जाते हैं और नवांकुरित कुशा की नोकों पर विराजमान हो जाते हैं। ऐसी मान्यता है कि पितृ पक्ष में हम जो भी पितरों के नाम का निकालते हैं, उसे वे सूक्ष्म रूप में आकर ग्रहण करते हैं। केवल तीन पीढ़ियों का श्राद्ध और पिंड दान करने का ही विधान है। कहा जाता है कि मृत्यु के देवता यमराज श्राद्ध पक्ष में जीव को मुक्त कर देते हैं, ताकि वे स्वजनों के यहां जाकर तर्पण ग्रहण कर सकें। श्राद्ध पक्ष में मांसाहार पूरी तरह वर्जित माना गया है। श्राद्ध पक्ष का माहात्म्य उत्तर व उत्तर-पूर्व भारत में ज्यादा है। तमिलनाडु में आदि अमावसाई, केरल में करिकडा वावुबली और महाराष्ट्र में इसे पितृ पंधरवडा नाम से जानते हैं। श्राद्ध स्त्री या पुरुष, कोई भी कर सकता है। श्रद्धा से कराया गया भोजन और पवित्रता से जल का तर्पण ही श्राद्ध का आधार है। श्राद्ध का अनुष्ठान करते समय दिवंगत पूर्वज का नाम और उसके गोत्र का उच्चारण किया जाता है। हाथों में कुश की पैंती (उंगली में पहनने के लिए कुश का अंगूठी जैसा आकार बनाना) डालकर काले तिल से मिले हुए जल से पितरों को तर्पण किया जाता है। मान्यता है कि एक तिल का दान बत्तीस सेर स्वर्ण तिलों के बराबर है। परिवार का उत्तराधिकारी या ज्येष्ठ पुत्र ही श्राद्ध करता है। जिसके घर में कोई पुरुष न हो, वहां स्त्रियां ही इस परम्परा को निभाती हैं। परिवार का अंतिम पुरुष सदस्य अपना श्राद्ध जीते जी करने के लिए स्वतंत्र माना गया है। संन्यासी वर्ग अपना श्राद्ध अपने जीवन में कर ही लेते हैं।कहते है कि जब महाभारत के युद्ध में कर्ण का निधन हो गया था और उनकी आत्मा स्वर्ग पहुंच गई, तो उन्हें रोजाना भोजन की बजाय खाने के लिए सोना और गहने दिए गए। इस बात से निराश होकर कर्ण की आत्मा ने इंद्र देव से इसका कारण पूछा। तब इंद्र ने कर्ण को बताया कि आपने अपने पूरे जीवन में सोने के आभूषणों को दूसरों को तो दान किया, लेकिन कभी भी अपने पूर्वजों को दान नहीं दिया। तब कर्ण ने उत्तर दिया कि वह अपने पूर्वजों के बारे में नहीं जानता है और उसे सुनने के बाद, भगवान इंद्र ने उसे 15 दिनों की अवधि के लिए पृथ्वी पर वापस जाने की अनुमति दी ताकि वह अपने पूर्वजों को भोजन दान कर सके। तब से इसी 15 दिन की अवधि को पितृ पक्ष के रूप में जाना जाता है। (लेखक आध्यात्मिक चिंतक व वरिष्ठ पत्रकार है) ईएमएस / 06 सितम्बर 25