लेख
08-Sep-2025
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वंशजों और पूर्वजों को मिलता है सभी बाधाओं से छुटकारा अपने पूर्वजों के प्रति श्रद्धा का भाव रखने वाले वंशजों के लिए यह एक शुभ समाचार ही है, कि आश्विन माह कृष्ण पक्ष की प्रतिपदा के साथ ही पितृपक्ष की शुरुआत होने जा रही है। जाहिर है प्रतिपदा से लेकर सर्व पितृ मोक्ष अमावस्या तक पूरे 15 दिन का यह महोत्सव आस्था का महापर्व है। कुछ लोग इस पखवाड़े को अशुभ बताते हैं, इस तर्क के साथ कि इन दिनों कोई शुभ कार्य करना ही नहीं चाहिए अथवा शुभ कार्य नहीं किया जाता। यहां एक बात जानने योग्य है, वह यह कि किसी भी ग्रंथ में यह नहीं लिखा है कि कनागतों में शुभ कार्य वर्जित हैं या फिर यह पक्ष अशुभकारी है। बल्कि वर्तमान पीढ़ी से अपेक्षा यह की गई है कि कम से कम इन 15 दिनों तक तो हम अपने पितरों के प्रति समर्पित बने रहें । यही वह विचार है जो स्थापित करता है कि काम धंधे और अन्य लाभ हानि के प्रसंग तो साल भर चलते ही रहेंगे। लेकिन पितरों के हिस्से में तो साल के केवल 15 दिन ही आते हैं। अतः इन दिनों उनके प्रति समर्पित रहें।यही वजह है कि अन्य कार्यों की अपेक्षा आस्थावान लोग श्राद्ध पक्ष में पितरों के पिंडदान, तर्पण, दान पुण्य आदि कार्यों में संलग्न रहना ही उपयुक्त समझते हैं। यह इसलिए भी आवश्यक है, क्योंकि हमारे धार्मिक ग्रंथो के अनुसार इन 15 दिनों तक पितरों को मृत्यु लोक में आवागमन की छूट रहती है। यह इस ईश्वरीय सुविधा का लाभ उठाते हुए अपने वंशजों के बीच पहुंचते हैं तथा अपेक्षा करते हैं कि वह पितरों के निमित्त दान पुण्य करें, भूखों को भोजन कराएं, पिंडदान एवं तर्पण जैसे कार्यों को प्राथमिकता दें। यह अपेक्षा इसलिए भी रहती है, क्योंकि इस दौरान वंशजों द्वारा जो त्याग किया जाता है, वह पितरों को आगामी ऊर्जा के रूप में उपलब्ध बना रहता है। इस प्रकार वे पूर्वज जिन्हें कोई देह नहीं मिली है और नरक, स्वर्ग, मृत्यु लोक से विलग हैं तथा पितृ लोक में स्थान पाए हुए हैं। वे साल भर संतुष्ट रहते हैं। ऐसा होने पर पितरों का आशीर्वाद वंशजों को प्राप्त होता है। फल स्वरुप वर्तमान पीढ़ी के सभी प्रकार के पितृ दोष नष्ट हो जाते हैं। इसके जो परिणाम देखने को मिलते हैं वह इस सत्य को प्रतिपादित भी करते हैं कि पूर्वजों को नियमित पानी देने वाले वंशज दैविक एवं पैशाचिक बाधाओं से उबरने लगे हैं। हिंदू धर्म में एक भ्रामक जानकारी यह भी है कि पितरों का श्राद्ध कर्म केवल पुरुष वंशजों द्वारा ही किया जा सकता है। यह धारणा पूरी तरह से गलत है। इसका प्रमाण त्रेता युग में सीता जी द्वारा अपने पिता राजा श्री शीलध्वज यानि कि जनक जी का पिंडदान करने के प्रसंग से मिलता है। ग्रंथ बताते हैं कि धर्म ने पुत्री सीता द्वारा दिए गए पिंडदान को इतना महत्व दिया कि स्वयं राजा जनक को पिंड प्राप्त करने सीता जी के समक्ष सशरीर उपस्थित होना पड़ गया। श्राद्ध एवं पितृ पूजन कितना जरूरी है यह भी जानने योग्य है। दानवीर कर्ण को मृत्यु उपरांत मोक्ष की प्राप्ति केवल इसलिए नहीं हुई, क्योंकि उन्होंने कभी भी अपने पूर्वजों का तर्पण किया ही नहीं था। किंतु पुण्यों का प्रारब्ध अर्जित था, इसलिए पुनः मृत्यु लोक में आने की पात्रता मिली। इन्हीं श्राद्ध पक्ष के दौरान दानवीर कर्ण पृथ्वी पर आए और पूरे 15 दिनों तक अपने समस्त पूर्वजों के सम्मुख हुए। उन्होंने अपने श्रम से अर्जित धन-धान्य से पूर्वजों के नाम पर दान पुण्य किए। इससे पितृ लोक में मौजूद पूर्वज प्रसन्न हुए। उनके आशीर्वाद प्राप्त होने पर कर्ण को मोक्ष प्राप्ति का मार्ग प्रशस्त हो पाया। इन प्रसंगों से हम सीख सकते हैं कि आश्विन माह के कृष्ण पक्ष में प्रत्यक्ष रहने वाले श्राद्ध पक्ष हर दृष्टि से मंगलो के मूल ही हैं। इन्हें किसी भी हाल में अशुभ नहीं माना जाना चाहिए। जो भी वंशज इस दौरान श्रद्धा भाव के साथ अपने पितृ लोक में स्थापित पूर्वजों के प्रति श्रद्धा का भाव रखते हैं, उन्हें जल एवं भोज्य पदार्थ अर्पण करते हैं, भूखों को भोजन कराते हैं, श्रेष्ठ और पात्र ब्राह्मणों को दान देते हैं, वे पितरों का आशीर्वाद पाते हैं। इससे पितरों को तो ऊर्जा प्राप्त होती ही है, स्वयं आस्थावान वंशजों को सभी प्रकार की दैविक और पैशाचिक बाधाओं से हमेशा के लिए मुक्ति मिल जाती है। लेखक-स्व्तंत्र पत्रकार है, ईएमएस, 08 सितम्बर, 2025