09-Sep-2025
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महोबा(ईएमएस)। उत्तर भारत के बुंदेलखंड में प्रचलित महबुलिया एक ऐसी अनूठी परंपरा है जिसमें घर के बुजुर्गों के स्थान पर छोटे-छोटे बच्चे पितृ पक्ष मे पूर्वजों के तर्पण की प्रक्रिया को सम्पादित करते हैं। यद्यपि अब यह परम्परा यहां गांवों तक ही सिमट चली है। बुंदेलखंड में लोक जीवन के विविध रंगों में पितृपक्ष पर पूर्वजों के प्रति श्रद्धा और समर्पण का भी अंदाज अलग है। पुरखों के तर्पण के लिए यहां पूजन,अनुष्ठान,श्राद्ध आदि के आयोजनों के अतिरिक्त बच्चों ,बालिकाओं की महबुलिया पूजा नई पीढ़ी को संस्कार सिखाने की वजह से बेहद ख़ास है। पूरे पंद्रह दिन तक चलने वाले इस कार्यक्रम में हर रोज गोधूलि वेला पर पितरों का आवाहन और विसर्जन के साथ इसका आयोजन होता है। इस दौरान यहां के गांवों की गलियां और चौबारों में बच्चों की मीठी तोतली आवाज में महबुलिया के पारम्परिक लोक गीत झंकृत हो उठते हैं। समूचे विंध्य क्षेत्र में लोकपर्व की मान्यता प्राप्त महबुलिया की पूजा का भी अपना अलग ही तरीका है। बच्चे कई समूहों में बंटकर इसका आयोजन करते हैं। महबुल को एक कांटेदार झाड़ में रंग बिरंगे फूलों और पत्तियों से सजाया जाता है और फिर विधिवत पूजन के उपरांत उक्त सजे हुए झाड़ को बच्चे गाते बजाते हुए गांव के किसी तालाब या पोखर में ले जाते हैं.जहां फूलों को कांटों से अलग कर पानी में विसर्जित कर दिया जाता है।महबुलिया के विसर्जन के उपरांत वापसी में यह बच्चे राहगीरों को भीगी हुई चने की दाल और लाई का प्रसाद बांटते हैं। ज्ञातव्य है की प्रसाद सभी बच्चे अपने घरों से अलग अलग लाते हैं। जगनिक शोध संस्थान के सचिव डॉ वीरेंद्र निर्झर बताते है कि महबुलिया को पूरे बुंदेलखंड में बालिकाओं द्वारा उत्सव के रूप में मनाया जाता है। हर रोज जब अलग अलग घरों में महबुलिया पूजा आयोजित होती है तो उसमें घर की एक वृद्ध महिला साथ बैठकर बच्चों को न सिर्फ पूजा के तौर तरीके सिखाती बल्कि पूर्वजों के विषय में जानकारी देती हैं। इसमें पूर्वजों के प्रति सम्मान प्रदर्शन के साथ सृजन का भाव निहित है। झाड़ में फूलों को पूर्वजों के प्रतीक के रूप में सजाया जाता है जिन्हें बाद में जल विसर्जन कराके तर्पण किया जाता है।दूसरे नजरिये से देखा जाए तो महबुलिया बच्चों के जीवन मे रंग भी भरती है। इसके माध्यम से मासूमों में धार्मिक एवं सामाजिक संस्कार पैदा होते हैं। उनको फूल पत्ती वनस्पतियों तथा रंगों से परिचित कराने के साथ साजसज्जा करना भी सिखाया जाता है। डा0 वीरेंद्र कहते है कि बुंदेली लोक जीवन के विविध रंगों में महबुलिया बिल्कुल अनूठी परंपरा है जो देश के अन्य हिस्सों से बिल्कुल अलग है। इसमें बेटियों के महत्व को प्रतिपादित किया गया है और उसे खुशियों का केंद्र बिंदु बनाया गया है। पितृपक्ष में बुजुर्ग जहां सादगी के साथ पुरखों के पूजन तर्पण आदि में व्यस्त रहते हैं और घर माहौल में सन्नाटा पसरा रहता है तब महबुलिया पूजन के लिए बालिकाओं की चहल पहल खामोशी तोड़ती है तथा वातावरण को खुशनुमा बनाती है। सरस्वती वर्मा ने कहा कि सदियों पूर्व से प्रचलित परम्परा की शुरुआत कब हुई इस बात का कहीं कोई उल्लेख नहीं है। मान्यता है कि पूर्व में कभी महबुलिया नाम की एक वृद्ध महिला थी जिसने इस विशेष पूजा की शुरुआत की थी। बाद में इसका नाम ही महबुलिया पड़ गया। उन्होंने कहा कि बदलते दौर में सांस्कृतिक मूल्यों के तेजी से ह्रास होने के कारण महबुलिया भी प्रायः विलुप्त हो चली है। सामाजिक कार्यकत्री सरस्वती वर्मा बताती है की मामुलिया के प्रथम चरण में बालक बालिकायें पूर्वाभिमुखी दीवार पर भित्ति आलेखन गोबर से करती हैं और आयत में थपियां लगाई जाती हैं, इसके बाद मामुलिया सजा कर ‘मामुलिया के आये लिवौआ, ठुमक चली मामुलिया’ गीत गाती हुई उसे किसी नदी, पोखर या तालाब में विसर्जित कर देती हैं। घर में प्रतिदिन आयत के अंदर एक और आयत की वृद्धि होती जाती है और दीवार पर आलेख में नदी, सूर्य, चंद्रमा, पहाड़ आदि के दृश्य बड़े ही सुघर तरीके से अंकित किये जाते हैं। यह पहला चरण एक पखवाड़े तक चलने के बाद गोबर निर्मित आकृतियां दीवार से उतार कर पानी में विसर्जित कर दी जाती हैं।लोकक्रीड़ा के इस पर्व का दूसरा चरण नवरात्र भर खेला जाता है जिसमें उसी दीवार पर मिट्टी से राक्षस की आकृति बनाई जाती है और उसमें रंग बिरंगे कंचों व कौड़ियों से अलंकृत किया जाता है। बच्चों की लोकक्रीड़ा का यह पर्व बुंदेलखंड की सांस्कृतिक धरोहर में शुमार है जिसे उत्तर प्रदेश के संस्कृति विभाग ने संरक्षित करने का भी प्रयास किया है। बुंदेलखंड के जाने माने लोक कला विशेषज्ञ अयोध्याप्रसाद गुप्त ‘कुमुद’ ने भी इस अनूठे विषय पर गहराई से शोध करके इसे विंध्य क्षेत्र की प्रमुख सांस्कृतिक पहचान बताया है। यह भी कहा जाता है कि पितृपक्ष में मनाया जाने वाला पखवारा, असमय काल कलवित हुए बच्चों की आत्माओं को प्रसन्न करने का उत्सव है। हरी कृष्ण पोद्दार