- हिन्दु त्यौहार ही बल्कि पूरे समाज का उत्सव दिवाली ना सिर्फ घर-आंगन को बल्कि हम हिन्दुस्तानियों के दिलों को भी रौशन करे यही दुआ है। यूं तो दिवाली मनाने के पीछे कई वजहें हैं और कई पौराणिक कथाएं हैं। जैसे जैसे साल गुजरते जा रहे हैं ये त्यौहार और भी भव्य-दिव्य होता जा रहा है। दीपावली का त्यौहार सदियों से मनाया जाता रहा है। स्कन्द, भविष्य तथा पद्म पुराण में दीपावली उत्सव का वर्णन है। ब्रह्म पुराण के अनुसार कार्तिक अमावस्या की इस अंधेरी रात्रि अर्थात अर्धरात्रि में महालक्ष्मी स्वयं भूलोक में आती हैं। इसके अलावा 7 वीं सदी में राजा हर्षवर्धन के नाटकों और 10वीं शताब्दी में राजशेखर के ‘काव्यमीमांसा’ में भी दीपोत्सव का उल्लेख मिलता है। 7 वीं शताब्दी के संस्कृत नाटक नागनंद में राजा हर्ष ने इसे दीपप्रति पादुत्सवः कहा है जिसमें दीये जलाये जाते थे और नव वर-बधू को उपहार दिए जाते थे। नौवीं शताब्दी में राजशेखर ने काव्य मीमांसा में इसे दीपमालिका कहा है। फारसी यात्री और इतिहासकार अल बेरुनी ने भारत पर अपने 11 वीं सदी के संस्मरण में, दीपावली को कार्तिक महीने में नये चंद्रमा के दिन पर हिंदुओं द्वारा मनाया जाने वाला त्यौहार कहा है। तुलसीदास रामचरितमानस में ‘विज्ञानदीप’ को प्रतीक स्वरूप प्रस्तुत किया। छांदोग्य उपनिषद के अनुसार प्रकृति का समस्त सर्वोत्तम प्रकाश रूप है। सूर्य प्रकृति का भाग हैं। कठोपनिषद मुंडकोपनिषद व श्वेताश्वतर उपनिषद में कहा गया है प्रकृति के केंद्र पर सूर्य प्रकाश नहीं, चंद्र किरणों का भी नहीं। न विद्युत है और न अग्नि, लेकिन उसी एक ज्योति केंद्र से यह सब प्रकाशित है। इसी तरह वृहदारण्यक उपनिषद में ‘तमसो मा ज्योतिर्गमय, असतो मा सद्गमय यानी अंधकार से प्रकाश व असत से सत की ओर चलने का संदेश है। ऋग्वेद के अनुसार, ‘जन-जन को प्रकाश से भरने के लिए ही अग्नि ने अमर सूर्य को आकाश में बिठाया है। लगभग 3500 वर्ष ईसा पूर्व कठोपनिषद में यम और नचिकेता के बीच प्रश्नोत्तरों की स्मृति को भी दीपपर्व से जोड़ा जाता है। शायद इस बात पर आपको यकीन ही ना हो लेकिन यदि इतिहासकारों की मानें, तो आज जिस धूमधाम के साथ दिवाली का उत्सव पूरा देश मनाता है उसकी शुरुआत मुगल काल में हुई थी। किसी भी पर्व या त्यौहार का महत्व तब और बढ़ जाता है जब वह मजहबी सीमाओं से परे चला जाता है। देशभर में आज जिस धूमधाम से दिवाली मनाई जाती है, उसकी शुरुआत मुगलों के शासनकाल में हुई थी। मुगल काल में सामाजिक सदभाव और पूरी शिद्दत के साथ दिवाली मनाई जाती थी। शाहजहाँ से लेकर बहादुर शाह जफर तक, हर मुगल शासक ने दिवाली को एक ऐसे त्यौहार का स्वरूप दिया जो साम्प्रदायिक सद्भाव को बढ़ावा देता था। मुगल काल में दिवाली केवल हिंदू त्योहार न होकर संपूर्ण समाज का उत्सव तो था ही साम्प्रदायिक सद्भाव और सांस्कृतिक मिलन का प्रतीक भी था। मुहम्मद बिन तुगलक, जिन्होंने सन 1324 से 1351 तक दिल्ली पर शासन किया, अपने दरबार के अंदर हिंदू त्योहार मनाने वाले पहले सम्राट बने। मुगल काल में दिवाली को जश्न-ए-चरागाँ भी कहा जाता था। पूरा लाल किला दीपों से जगमगाता जाता था। शाहजहाँ ने दिल्ली में आकाश दीया जलाने की परंपरा शुरू की थी, चालीस गज उंचे खंभे पर दिया जलाया जाता था जिसे आकाश दीया कहा जाता था। इसकी रौशनी मीलों दूर तक दिखाई देती थी। ये दीया रातभर जल सके इसके लिए एक सैनिक की तैनाती की जाती थी, जो सीढ़ी की मदद से रातभर दीये को रोशन रखने के लिए तेल डालता था। बादशाह अक्सर सोने-चाँदी से तौले जाते और यह धन गरीबों में बाँट दिया जाता था। इतिहासकारों की मानें तो शाही तौर और भव्य रूप से दिवाली मनाने की शुरूआत बादशाह अकबर के ज़माने में आगरा में हुई थी। आगरा के किले और फतेहपुर सीकरी में दिवाली पर भव्य उत्सव देखने को मिलता था। मुगल बादशाह शाहजहां, अकबर के दौर में उत्सव की भव्यता देखने लायक होती थी, औरंगजेब के दौर में तोहफे भेजे जाते थे। राजपूत घराने से मुगल दरबार में तोहफे भेजे जाते थे। जोधपुर के राजा जसवंत सिंह और जयपुर के राजा जय सिंह के यहां से मुगलों को तोहफे भेजे जाने की परंपरा थी। जब देश की राजधानी दिल्ली स्थानांतरित हुई तो लाल किले में दिवाली का भव्य आयोजन शाहजहां के दौर में हुआ करता था। मोहम्मद शाह रंगीला के शासनकाल में दिवाली को रंगीला की दिवाली कहा जाता था। जहांगीर के शासनकाल में दिवाली के अलग ही रंग थे। किताब ‘तुजुक-ए-जहांगीर’ के मुताबिक साल 1613 से लेकर 1626 तक जहांगीर ने हर साल अजमेर में दिवाली मनाई। वे अजमेर के एक तालाब के चारों किनारों पर दीपक की जगह हजारों मशालें प्रज्वलित करवाते थे। इस मौके पर शहंशाह जहांगीर, अपने हिन्दू सिपहसालारों को कीमती नजराने भेंट करते थे। इसके बाद फकीरों को नए कपड़े, मिठाइयां बांटी जातीं। दीपावली पर 71 तोपें दागी जातीं और बारूद से बने बड़े-बड़े पटाखे चलाये जाते। अंतिम मुगल सम्राट बहादुर शाह जफर के समय में भी दिवाली सामाजिक सदभाव के साथ मनाई जाती थी। 14वीं सदी में मुगल शासक मोहम्मद बिन तुगलक अपने अंतरमहल में दीवाली का जश्न मनाते थे। भव्य स्तर के भोज का आयोजन किया जाता था। हालांकि, उसके शासन काल में आतिशबाजी होने का जिक्र नहीं मिलता। 16वीं सदी के न्यायविद शेख अहमद सरहिंदी (1564-1624 ई.) ने अपनी किताब में मुस्लिम महिलाओं द्वारा दीवाली पर मिठाई और उपहार भेंट किए जाने का जिक्र किया है। 17वीं शताब्दी में भारत आने वाले फ्रांसीसी बहुभाषाविद जीन डे थेवेनोट ने दीवाली के भव्य उत्सव का वर्णन किया है। अबुल फजल ने आइन-ए-अकबरी में आकाश दीया या सूरजक्रांत का उपयोग करके आकाश का दीपक जलाने की अनूठी परंपरा का जिक्र किया है। दिवाली की शुरुआत शाही स्नान से होती थी, जिसके लिए सात पवित्र कुओं से पानी लाया जाता था और सम्राट को सुगंधित स्नान कराया जाता था। इस दौरान पंडित और मौलाना पवित्र भजन गाते थे। तब बादशाह मलमल के कपड़े पहनकर अपनी पत्नियों के हरम में जाता था। इसके बाद बादशाह दरबार पहुंचता था। यहां बादशाह अपने अधीनस्थों, मित्रों को दिवाली का नजराना या उपहार देता था। अधर्म पर धर्म और असत्य पर सत्य की विजय के साथ ही सांस्कृतिक, धार्मिक और आध्यात्मिक महत्व का त्यौहार है दीपावली। रामायण के अनुसार इस दिन जब भगवान राम, सीता जी और भाई लक्ष्मण के साथ 14 वर्ष का वनवास पूर्ण कर अयोध्या वापस लौटे थे। रावण वध और 14 साल का वनवास खत्म होने के बाद मर्यादा पुरुषोत्तम भगवान श्रीराम के अयोध्या वापस लौटने पर लोगों ने दीपमालिका सजाकर उनका स्वागत किया था। कार्तिक मास की अमावस्या तिथि को मां लक्ष्मी समुद्र मंथन द्वारा धरती पर प्रकट हुई थीं। इस पर्व को मां लक्ष्मी के स्वागत के रूप में मनाया जाता है। नरक चतुर्दशी को राक्षस नरकासुर पर विजय प्राप्त की थी। द्वापर युग में भगवान कृष्ण ने राक्षस नरकासुर का संहार किया था। इस नृशंस राक्षस के वध से खुश होकर लोगों ने घी के दीए जलाए। पांडवों के 12 वर्ष के निष्कासन के साथ साथ 1 वर्ष के अज्ञातवास से वापस घर आने के उपलक्ष्य में भी दीवाली मनाई जाती है। अश्विन महीने के कृष्ण पक्ष का अन्तिम दिन यानि दीवाली पर मारवाडी अपना नया साल मनाते हैं। गुजराती भी चन्द्र कैलेंडर (कार्तिक महीने में शुक्ल पक्ष के पहले दिन) के अनुसार दीवाली से एक दिन बाद अपना नया साल मनाते है। दीपावली को जैन धर्म में 527 ई.पू. महावीर स्वामी के मोक्ष या निर्वाण प्राप्ति के उपलक्ष्य में मनाया जाता है। आर्य समाज के लोग इसे शारदीय नव-शयष्टी के रुप में मनाते है। दीप पर्व की देवी श्रीलक्ष्मी हैं। कहा जाता है कि उन्होंने इसी रात पति रूप में विष्णु का वरण किया। इसी दिन उज्जैन के सम्राट विक्रमादित्य का राजतिलक हुआ था। इसी दिन गुप्त वंशीय राजा चंद्रगुप्त विक्रमादित्य ने ’विक्रम संवत’ की स्थापना की थी। अतः यह नए वर्ष का प्रथम दिन भी है। आज ही के दिन व्यापारी अपने बही-खाते बदलते हैं। मान्यता है कि इस दिन भगवान विष्णु ने राजा बलि को पाताल लोक का स्वामी बनाया था और इन्द्र ने स्वर्ग को सुरक्षित जानकर दीपावली मनाई थी। कहा जाता है कि भगवान विंष्णु ने नरसिंह रूप धारणकर हिरण्यकश्यप का वध किया था। इसी दिन समुद्र मंथन के पश्चात धन्वंतरि प्रकट हुए। इसी दिन समुद्र मंथन के समय क्षीरसागर से लक्ष्मीजी प्रकट हुई थीं और भगवान विष्णु को अपना पति स्वीकार किया था। एक पौराणिक कथा के अनुसार इस दिन भगवान विष्णु ने वामन अवतार लेकर राजा बलि से माता लक्ष्मी को मुक्त करवाया था। इसी दिन आर्यसमाज के संस्थापक महर्षि दयानंद सरस्वती का निर्वाण हुआ था। स्वामी दयानंद सरस्वती द्वारा आर्य समाज की स्थापना भी इसी दिन की गई थी। सिख धर्म के लिए भी दीपावली बहुत महत्वपूर्ण पर्व है। इस दिन को सिख धर्म के तीसरे गुरु अमरदास जी ने लाल पत्र दिवस के रूप में मनाया था जिसमें सभी श्रद्धालु गुरु से आशीर्वाद लेने पहुंचे थे। इसके अलावा सन् 1577 में अमृतसर के हरिमंदिर साहिब का शिलान्यास भी दीपावली के दिन ही किया गया था। बहरहाल, भारत मिली जुली संस्कृति का देश है। जितने मजहब, जितनी भाषा, जितनी बोलियां, जितने पारंपरिक तीज-त्यौहार यहां हैं उतने दुनिया के किसी भी देश नहीं। इस देश को एक सूत्र में पिरोए रखने की जिम्मेदारी भी हमारी ही है। हम अपने अधिकारों के लिए तो सड़क पर उतर आते हैं लेकिन कर्तव्यों को बिसार देते हैं। आज जरूरत है कि हम भगवान श्री राम की मर्यादा का एहतराम करें और ऐसी मिसाल पेश करें की दुनिया भारत को विश्व गुरु माने। भगवान श्रीराम शौर्य, सहनशीलता, सादगी, संस्कारों का प्रतीक हैं लेकिन शक्ति प्रदर्शन का नहीं। पांच दिनी दीपमालिका का पर्व आते ही मर्यादा पुरुषोत्तम भगवान श्रीराम का जीवन प्रसंग जहन में आ जाता है। इसके साथ ही रोशनी से जगमगाती समूची अयोध्या मानों नजरों के सामने घूमने लगती है। ये बात और है कि दीपावली का ताल्लुक सनातन धर्मावलंबियों के अलावा जैन, बौद्ध और सिख अनुयायियों से भी है। इसी तरह अयोध्या का इतिहास भी खासा गहरा है। वो अयोध्या जहां न सिर्फ भगवान श्रीराम का जन्म हुआ बल्कि तीर्थंकर आदिनाथ के चार अन्य तीर्थंकरों ने भी यहीं जन्म लिया, वो अयोध्या जो बुद्ध देव की तपस्या स्थली रही, वो अयोध्या जिसे बादशाह अकबर ने अवध सूबे की राजधानी बनाया। आइए, इस बार जब हम दीपावली मनाएं तो एक दीप भारत की समृद्धि, खुशहाली और सामाजिक सद्भाव के नाम भी जलाएं। (अधिवक्ता एवं लेखक- भोपाल, मप्र) ईएमएस / 18 अक्टूबर 25