लेख
27-Oct-2025
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कहावत है -’ खेती पांती, बिनती और घोड़े की तंग/ अपने हाथ संभालिए तब जीने का ढंग।’ मैं अपने गांव में हूं, जहां पैदा हुआ और जहां पला। खेती मर रही है, लेकिन खेत की कीमत बढ़ रही है। पच्चीसों बीघे जमीन यों ही पड़े हैं। न धान है, न अन्य फसल। आसपास से जानकारी ली तो बताया गया कि कोई कैसे खेत करे? न मजदूर मिलता है, न मोरी उखाड़ने वाला और धान तैयार हो भी जाय तो उसे काटने वाला तक नहीं है। जो भी मजदूर थे, वे पांच किलो अनाज और हजार रुपए में मस्त हैं। वे अब खेतों में काम नहीं करना चाहते। जिसका परिवार पूरी तरह से खेती में लगा है, वही लोग खेती कर पा रहे हैं। शेष का कोई ठिकाना नहीं है। गांव में कोई कच्ची गलियां नहीं हैं। सब गली सिमेंटेड है। बारिश होती है, पानी सब गांव से बाहर है। यहां तक कि पानी की भी किल्लत होने लगी है। रेल लाइन के किनारे बसे इस गांव के दक्षिण में पहाड़ है, उत्तर में चौर, पूरब में ताड़ की श्रृंखला और पश्चिम में रेलवे स्टेशन और खेत। मैं जिस धरती को छोड़कर गया था, वह धरती अब नहीं है। धरती का स्वभाव बदल गया है, तो लोग भी बदल गये हैं। ज्यादातर घरों में बंटवारे को लेकर झंझट है। स्वार्थ की प्रबलता सिर चढ़ कर बोल रही है। गांव के बाहर के पीपल का पेड़ था, जो अब भी है। इतने वर्षों के झंझावात में वही निश्चल खड़ा है। गांव के पश्चिम में एक बरसाती नदी थी। उसके आस-पास खजूरबन्ना और ताड़ के पेड़ थे।‌उसके बड़े हिस्से को भर कर पक्की सड़क बना दी गई है। जहां भी टरूआ था यानी पानी के लिए निकास की जगह थी, उसे भी भर कर सड़क बनाई जा रही है। पानी कैसे निकलेगा या खेत तक पानी कैसे पहुंचेगा, इसकी जरा भी चिंता नहीं है। बरसात के दिनों में पहाड़ पर जो पानी बरसता था, वह बरसाती नदी से होकर गुजरता था। मैंने देखा नहीं, लोगों ने बताया कि पहाड़ के किनारे किनारे बांध जैसी चीज बनाई गई है जिसमें बरसात का पानी टिके और जंगली जानवरों को पानी पीने में असुविधा न हो। गांव की आबादी काफी बढ़ गई है और बहुत से नये घर बन गए हैं और बन रहे हैं। बाहर से गरीबी नहीं दिखती। मिट्टी के घर अब सपने बन गए हैं। जन्मभूमि है। मां- पिता के बिना घर घर नहीं लगता। ऊपर से बड़े भाई और भाभी का गुजर जाना। छठ पर्व है। दादी जब थी तो यह दुर्वह भार उनके कंधे पर था। उनके जाने के बाद भाभी ने जिम्मेदारी ली। उसके बाद छठ का सिरा छूट गया।‌झालरों से सजे कई घर शहर को भी मात देते हैं।‌गांव में दो बगीचे थे ।अब उनमें दो चार पेड़ बचे हैं।‌हां, अनेक नये पेड़ जरूर लगाये गये हैं।‌एक उजड़ा है तो दूसरा बसा भी है। लोगों से पूछा कि गांव में किस पार्टी का जोर है।‌उन्होंने कहा कि वैसे तो यहां सबको वोट मिलेगा। अभी महागठबंधन का जोर लगता है, मगर जो युवकों को खरीद लेगा, वोट उधर ज्यादा जायेगा। टिकट खरीदिए, फिर लोगों को खरीदिए। जनतंत्र के टेंटुए को धनतंत्र ने दबा दिया है। आसमान में उड़ते हेलिकॉप्टर लोगों के अंदर लालच तो पैदा करते ही हैं। गांव में एक बात देखी । जिसने पहचाना, उसने प्रणाम किया। भले मैं उनमें से कुछ को पहचाना, कुछ को नहीं।‌ अलबत्ता, यह देख कर सुकून मिलता है कि घरों की छतों पर अनेक तरह की चिड़िया आती- जाती रहती हैं। ईएमएस / 27 अक्टूबर 25