लेख
29-Oct-2025
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जन्मभूमि आने के बाद समय की तुलना शुरू होती है। वह समय जो मैंने बिताया था और यह समय जहां मौजूद हूं। गांव - घर छोड़ देने के बाद मन तो वहीं ठहरा रहता है, लेकिन गांव तो आगे बढ़ चुका होता है। बड़ा सा समय का गैप और पसरा हुआ सन्नाटा रहता है। बहुत सारे सगे संबंधी जा चुके होते हैं और जो बचे होते हैं, वे थके हारे और रोगग्रस्त होते हैं। जीने की ख्वाहिशें मिट रही होती हैं। स्मृतियां भटकाती हैं और वह तेज - तेज चलती हैं। मन स्मृतियों की पटरी पर दौड़ती हैं और वह महाभारत की योद्धा की तरह डटता है और फिर बिंधता है। गांव आज भी मोहता है तो वह है उसका खुलापन, पहाड़, प्यारी हवा, चिड़ियों का गुनगुन , ताड़ और आम के पेड़। मेरे लिए समय बदल गया है, लेकिन जो पीढ़ी रह रही है, उसके लिए तो वही प्यारा गांव है। आधुनिक यंत्रों के कारण और समय के दबाव की वजह से सामूहिकता घटी है। बच्चों को समूह में खेलते नहीं देखा। हां, युवाओं की एक टोली को वालीबाल खेलते हुए जरूर देखा। दिल ढूंढता है, फिर वही फुर्सत के रात दिन। हाई स्कूल के सभी मित्र याद आते रहे। खैर। स्मृतियों का क्या है, आती- जाती रहेंगी। आइए, वर्तमान में। मैंने दो तीन पहले लिखा था कि बिहार के चुनाव अभी तक घुसपैठिए का प्रवेश नहीं हुआ। अंततः बिहार चुनाव में बीजेपी अध्यक्ष जे पी नड्डा ने बिहार में तीन सौ आतंकवादी को बुलाया और गृह मंत्री ने घुसपैठिए का प्रवेश कराया। शर्म भी कोई चीज होती है, लेकिन शर्म प्रूफ लोगों के लिए शर्म का कोई मतलब नहीं होता। ग्यारह वर्षों से केंद्र में राज कर रहे हैं और बीसों वर्षों से बिहार में, तब भी इन्हें चुनाव जीतने के लिए आतंकवादी और घुसपैठिए का सहारा चाहिए। अगर आतंकवादी और घुसपैठिए इतने फरार्टे के साथ बिहार में आ जा रहे हैं तो तुम क्या पाकिस्तान में शासन कर रहे हो? अगर आतंकवादी आ ही रहा है, घुसपैठिए घुस ही रहे हैं तो तुम गृह मंत्री काहे को हो? देश को झूठ और गलीज स्थिति में लाने के लिए तुम जिम्मेदार हो।‌आम लोग तुमसे सीख ले रहे हैं कि सच बोल कर धूल फांकने से अच्छा है, झूठ बोल कर कुर्सी प्राप्त करना। असल होती है कुर्सी, शेष तो आना जाना है। देश के लिए तुम्हारी शिक्षा बहुत महंगी पड़ रही है। कहां तो अच्छे दिन का वादा था और ले आये तुम बेशर्म दिन।‌पांच किलो अनाज और कुछ रुपए देकर जनता को मुफ्तखोरी की आदत लगा कर तुमने देश का बंटाधार कर दिया है। पूंजीपति तो तुम्हारे अति प्यारे हैं ही। उनके लिए सब कुछ खुला है। चाहे बैंक का पैसा हो या एल आई सी का - उसे दोनों हाथ से दे रहे हो। टैक्स पेयर परेशान है। हर जगह टैक्स। वेतन उठाते ही बाजार मुंह खोले रहता है। धूमिल ने कविता लिखी थी - एक आदमी रोटी बेलता है एक आदमी रोटी खाता है एक तीसरा आदमी भी है जो न रोटी बेलता है, न रोटी खाता है वह सिर्फ़ रोटी से खेलता है मैं पूछता हूँ— ‘यह तीसरा आदमी कौन है?’ मेरे देश की संसद मौन है। आज तीसरा आदमी रोटी से खेलता ही नहीं है, वह लोक और लोकतंत्र से खेल रहा है। संसद मौन नहीं है। उसे इस क्रूर खेल में फंसा लिया गया है। ईएमएस / 29 अक्टूबर 25