बिहार की राजनीति में अपराध, जाति और सत्ता का त्रिकोण लंबे समय से निर्णायक भूमिका निभाता आया है।जंगल राज’ शब्द का पहली बार प्रयोग 1997 में हुआ था, और उसका संदर्भ आज के राजनीतिक अर्थ से बिल्कुल अलग था। उस समय चारा घोटाले में फंसे लालू प्रसाद यादव ने मुख्यमंत्री पद से इस्तीफा दिया था और राबड़ी देवी ने शपथ ली थी। पटना उच्च न्यायालय ने जलभराव और खराब जल निकासी से जुड़ी एक याचिका पर सुनवाई के दौरान मौखिक टिप्पणी में कहा था कि “पटना की स्थिति जंगल राज से भी बदतर है।”विपक्षी पार्टियों ने “जंगल राज” को राजनीतिक हथियार की तरह इस्तेमाल किया, विशेषकर राष्ट्रीय जनता दल (राजद) शासन की आलोचना के लिए। राजद और उनके समर्थक वर्ग इसे सामाजिक न्याय और वंचित वर्गों की सशक्तिकरण प्रक्रिया का परिणाम बताते हैं, जिसे “वर्चस्वशाली वर्ग” ने “जंगल राज” कहकर बदनाम किया है। 1970 से 80 तक बिहार में सामाजिक और राजनीतिक उथल-पुथल का दौर था। भूमि-संघर्ष, जातीय हिंसा, और आर्थिक असमानता ने कई आपराधिक समूहों को जन्म दिया। 1990 के बाद से सामाजिक न्याय की राजनीति के उदय के साथ, पिछड़े और दलित वर्ग सत्ता में आए, परंतु इसी दौर में अपराधी-राजनीति गठजोड़ मजबूत हुआ। बिहार की राजनीति में अपराध, जाति और सत्ता का त्रिकोण लंबे समय से निर्णायक भूमिका निभाता आया है।बिहार में राजनीति और अपराध के बीच की रेखा धीरे-धीरे धुंधली होती गई। ‘बाहुबली’ उम्मीदवारों ने जातीय समर्थन और धनबल के बल पर चुनाव जीतने की रणनीति अपनाई।बिहार की राजनीति में अपराध और ‘जंगल राज’ की अवधारणा केवल कानून-व्यवस्था का मुद्दा नहीं, बल्कि सामाजिक परिवर्तन, वर्ग संघर्ष और राजनीतिक वैचारिकता की जटिल कहानी है। भविष्य के लिए चुनौती यही है कि सामाजिक न्याय के साथ सुशासन और सुरक्षा का संतुलन कायम किया जाए, ताकि लोकतंत्र की साख और जनता का विश्वास दोनों मजबूत बने रहें।बिहार में सामाजिक न्याय की राजनीति ने राजनीतिक प्रतिनिधित्व को बदल दिया, परंतु शासन-प्रणाली में जवाबदेही और पारदर्शिता की कमी बनी रही। आज के चुनावों में मतदाता केवल जातीय पहचान नहीं, बल्कि रोजगार, शिक्षा, कानून-व्यवस्था और भ्रष्टाचार जैसे मुद्दों पर भी विचार करने लगे हैं। बिहार की लगभग 60 फिसदी जनसंख्या 35 वर्ष से कम उम्र की है, यानी राज्य की राजनीति में युवाओं की भूमिका निर्णायक है। आज का युवा सिर्फ जाति या परंपरागत नारे नहीं, बल्कि रोजगार, शिक्षा, अवसर और सुशासन की ठोस गारंटी चाहता है।बिहार सबसे अधिक गरीबी वाले राज्यों की सूची में सबसे ऊपर है, जहां 33.76 प्रतिशत जनसंख्या गरीबी रेखा से नीचे है। विधानसभा में पेश किए गये आर्थिक सर्वेक्षण रिपोर्ट 2023-24 बताता है कि राज्य में बेरोजगारी की स्थिति देश के औसत से अधिक है. इस रिपोर्ट के अनुसार राज्य में बेरोजगारी दर 4.3 प्रतिशत है जो राष्ट्रीय औसत 3.4 प्रतिशत से 0.9 प्रतिशत से अधिक है।बिहार देशभर में पलायन करने वाले मजदूरों वाला राज्य में अग्रणी है। बिहार चुनाव के केंद्र में इस बार फिर रोजगार का मुद्दा है और विपक्ष के नेता तेजस्वी यादव ने इसे अपने अभियान की धुरी बना दिया है। “सरकारी नौकरी” का वादा उनकी राजनीति की पहचान बन चुका है, जो सीधे राज्य के युवाओं की भावनाओं से जुड़ा है। सवाल है कि क्या यह वादा इस बार जनता के विश्वास में बदलेगा? बिहार के वर्तमान चुनाव में तेजस्वी यादव ने एक बार फिर युवाओं को साधने के लिए सरकारी नौकरी देने का वादा किया है। यह मुद्दा बिहार की राजनीति में न केवल भावनात्मक बल्कि अत्यधिक व्यावहारिक महत्व भी रखता है।हर साल लाखों युवा प्रतियोगी परीक्षाओं की तैयारी में सालों खर्च करते हैं लेकिन नियुक्ति प्रक्रिया लंबी और भ्रष्टाचार ग्रस्ति मानी जाती है।पिछले वर्षों में कई भर्तियां अटकी रहीं या न्यायालय में चली गईं। ऐसे माहौल में “नौकरी” का वादा सीधे युवाओं की भावनाओं से जुड़ता है। 2020 विधानसभा चुनाव में तेजस्वी यादव ने 10 लाख सरकारी नौकरियां देने का वादा किया था, जिसने युवाओं में भारी उत्साह पैदा किया। 2025 के चुनाव में उन्होंने फिर से रोजगार को मुख्य एजेंडा बनाया है।तेजस्वी यादव का सरकारी नौकरी का वादा बिहार के युवाओं के बीच राजनीतिक रूप से अत्यंत प्रभावशाली मुद्दा है, लेकिन उसकी सफलता इस पर निर्भर करेगी कि वह इसे विश्वसनीय, वित्तीय रूप से व्यावहारिक और समयबद्ध योजना के रूप में प्रस्तुत कर पाते हैं या नहीं। अगर ऐसा हुआ, तो यह वादा वास्तव में बिहार चुनाव का गेम-चेंजर साबित हो सकता है।बिहार का युवा अब वादे नहीं, परिणाम चाहता है। जो नेता यह अंतर समझ जाएगा, वही पटना की गद्दी तक पहुंचेगा। (लेखक बरगी बांध विस्थापित एवं प्रभावित संघ से जुड़े हैं) ईएमएस / 04 नवम्बर 25