लेख
14-Nov-2025
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-बिहार में क्यों नहीं चला तेजस्वी का नैरेटिव? बिहार की राजनीति एक बार फिर ऐसे मोड़ पर पहुंची है, जहां मतदाता ने अपनी पसंद को अभूतपूर्व स्पष्टता, दृढ़ता और राजनीतिक परिपक्वता के साथ दर्ज किया है। 2025 का बिहार विधानसभा चुनाव सामान्य जनादेश नहीं बल्कि एक गहरा राजनीतिक संदेश है, जहां नीतीश कुमार के सुशासन ने अविश्वास को पछाड़ दिया, स्थिरता ने प्रयोगधर्मिता को और सामाजिक सुरक्षा ने जातीय ध्रुवीकरण को दृढ़ता से मात दे दी। बिहार का यह जनादेश बताता है कि बिहार का मतदाता भावनात्मक राजनीति, जातिगत उत्तेजना और चुनावी वादों की चमक-दमक से परे निकल चुका है और वह केवल उसी नेतृत्व को स्वीकार करता है, जो उसके जीवन में वास्तविक बदलाव लाए, सुरक्षा दे, भरोसा कायम रखे और विकास को धरातल पर उतारे। इसी कसौटी पर यह समझना कठिन नहीं कि एनडीए को ऐतिहासिक जीत क्यों मिली और महागठबंधन क्यों धराशायी हो गया। 243 सीटों वाली विधानसभा में बहुमत का आंकड़ा 122 है पर चुनाव परिणामों ने स्पष्ट किया कि यह सीमा इस बार महज एक गणितीय संख्या बनकर रह गई। एनडीए बहुमत से कहीं आगे निकल गया जबकि महागठबंधन का प्रदर्शन तमाम पूर्वानुमानों से बहुत नीचे रह गया, जो 50 सीटें भी हासिल नहीं कर सका। तेजस्वी यादव, जो दो वर्षों से स्वयं को मुख्यमंत्री-इन-वेटिंग के रूप में प्रक्षेपित करते रहे, जनता द्वारा स्पष्ट तौर पर नकार दिए गए। यह हार केवल किसी एक नेता की नहीं बल्कि पूरी उस राजनीतिक रणनीति की असफलता है, जो जातीय समीकरणों, लुभावने लेकिन अवास्तविक वादों और सहयोगियों को हाशिये पर रखकर बनाई गई थी। 2020 में महज कुछ हजार वोटों से पीछे रहने वाली आरजेडी को इस बार उम्मीद थी कि वह आसानी से सत्ता के द्वार तक पहुंच जाएगी लेकिन 2025 ने उसका यह सपना ध्वस्त कर दिया। इस चुनाव में महागठबंधन की सबसे बड़ी गलती टिकट वितरण की रणनीति रही। आरजेडी ने 144 सीटों में से 52 यादव उम्मीदवार उतारे, जो कुल टिकटों का लगभग 36 प्रतिशत थे। यह संख्या 2020 के मुकाबले कहीं अधिक थी। तेजस्वी यादव का उद्देश्य भले ही अपने कोर वोट बैंक को मजबूत करना रहा हो लेकिन इसका परिणाम उलटा निकला। यादव बिहार की आबादी का मात्र 14 प्रतिशत हैं जबकि चुनाव का फैसला ईबीसी, महादलित, सवर्ण, युवा, महिलाएं, शहरी एवं आर्थिक रूप से कमजोर वर्गों पर निर्भर करता है। इतने अधिक यादव प्रत्याशी उतारने से यह संदेश गया कि आरजेडी सत्ता को फिर से एक जाति के हाथों में सौंपना चाहती है। एनडीए ने इसे चुनावी हथियार बनाकर ‘यादव राज-भाग 2’ का नैरेटिव चलाया, जो शहर से गांव तक गूंजता हुआ जनमत को प्रभावित करता गया। इसके विपरीत उत्तर प्रदेश में अखिलेश यादव ने 2024 में जातिगत संतुलन साधते हुए केवल 5 यादव प्रत्याशी उतारे थे, जिससे व्यापक सामाजिक आधार मिला। तेजस्वी इससे सीख नहीं ले सके और आरजेडी की छवि और भी यादव-केंद्रित बन गई, जिसका सीधा असर 10 से 15 प्रतिशत वोटों के खिसकने के रूप में सामने आया। दूसरी बड़ी गलती गठबंधन प्रबंधन की विफलता रही। महागठबंधन ऊपरी तौर पर भले ही मजबूत दिखता रहा लेकिन भीतर से बिखरा हुआ था। कांग्रेस से सीट-बंटवारे पर तकरार, वाम दलों को कमजोर सीटें देना और सहयोगियों को प्रचार में हाशिये पर रखना, इन सबने गठबंधन में असंतोष पैदा किया। सबसे बड़ा झटका तब लगा, जब महागठबंधन का घोषणापत्र ‘तेजस्वी प्रण’ के नाम से जारी किया गया। यह कदम साझेदारी की भावना को ठेस पहुंचाता था। कांग्रेस गारंटी मॉडल पर केंद्रित थी, वाम दल मजदूर-किसान मुद्दों को उभार रहे थे लेकिन तेजस्वी केवल नौकरियों के वादे पर टिके रहे। महागठबंधन एक साझा दृष्टि से वंचित रहा और चुनावों में एकजुट चेहरा न बन सका। तेजस्वी की तीसरी चूक उनके वादों के अविश्वसनीय स्वरूप में दिखी। उन्होंने हर घर में नौकरी, पेंशन, शराबबंदी की समीक्षा, महिलाओं की बड़ी आर्थिक मदद जैसे भारी-भरकम वादे तो किए पर उनके क्रियान्वयन, वित्तीय स्रोत या समय सीमा पर कोई विश्वसनीय उत्तर नहीं दे सके। हर मंच से वे कहते रहे कि ब्लूप्रिंट जल्दी आ जाएगा लेकिन चुनाव समाप्त होने तक वह ब्लूप्रिंट नहीं आया। इससे उनकी विश्वसनीयता पर गहरा आघात हुआ, खासकर युवाओं और शहरी मतदाताओं में। महागठबंधन की मुस्लिम परस्त छवि ने नुकसान को और बढ़ाया। मुस्लिम बहुल सीटों पर तो लाभ मिला पर पूरे राज्य में यह छवि प्रतिकूल साबित हुई। वक्फ बिल को लागू न करने की तेजस्वी की घोषणा और कई संवेदनशील बयानों ने यादव समुदाय के एक वर्ग को भी असहज कर दिया। एनडीए ने इसे भुनाया और लालू यादव के संसद में दिए भाषणों को वायरल कर जनमत को प्रभावित किया। गैर-मुस्लिम और गैर-यादव वोटों ने निर्णायक मोड़ पर महागठबंधन को छोड़ दिया। तेजस्वी यादव की सबसे जटिल रणनीतिक गलती उनके पिता लालू प्रसाद यादव को लेकर उनकी दोहरी राजनीति रही। उन्होंने लालू की विरासत का सहारा भी लिया और उससे दूरी भी बनाए रखी। पोस्टरों में पिता की तस्वीर छोटी रखी गई जबकि मंचों पर उनके नाम का राजनीतिक इस्तेमाल किया गया। यह दोहरापन मतदाता को भ्रमित करता रहा। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी द्वारा तेजस्वी पर ‘लालू के पाप छिपाने’ का आरोप लगाना इस उलझन को और गहरा कर गया। इसके विपरीत एनडीए ठोस काम और प्रामाणिक शासन मॉडल के साथ मैदान में उतरा। नीतीश कुमार ने पिछले 20 वर्षों में महिला-सशक्तिकरण और सामाजिक सुरक्षा की जो नींव रखी थी, वही इस चुनाव में निर्णायक बनी। 2006 में शुरू हुई साइकिल योजना, किताब-धन, पोशाक-धन, छात्रवृत्ति, जीविका समूहों का विस्तार, इन सबने महिला मतदाताओं के मन में एक स्थायी भरोसा पैदा किया। 2025 के चुनाव में महिलाओं का मतदान पुरुषों से 9 प्रतिशत अधिक रहा, जो स्पष्ट संकेत था कि महिला मतदाता एनडीए के साथ खड़ी हैं। जीविका समूहों से जुड़ी एक करोड़ से अधिक महिलाओं पर आर्थिक सशक्तिकरण का प्रभाव सीधा मतदान व्यवहार पर पड़ा। 10,000 रुपये की सहायता और 2 लाख रुपये तक की उद्यम सहायता ने इन्हें राजनीतिक रूप से और भी सक्रिय बनाया। दलित और अति पिछड़ी महिलाओं का समर्थन भी निर्णायक रहा। महागठबंधन की ऊंची-ऊंची घोषणाओं के विपरीत एनडीए की योजनाएं उनके जीवन में ठोस बदलाव ला रही थी, जिससे जातीय ध्रुवीकरण की संभावित रणनीति भी ध्वस्त हो गई। सबसे महत्वपूर्ण मुद्दा कानून-व्यवस्था का रहा। बिहार 2005 से पहले जिस बदहाल सुरक्षा व्यवस्था से गुजर रहा था, उसे नीतीश कुमार के शासन ने बदल दिया। अपराध में आई गिरावट, सड़क-बिजली में सुधार, स्वास्थ्य सेवाओं का विस्तार और रात में भी महिलाओं की सुरक्षित आवाजाही, ये सब बातें बिहार के सामाजिक मानस में गहराई से दर्ज हैं। एनडीए ने इसका चुनावी लाभ उठाया और जनता ने इसे स्वीकार किया। 2025 का चुनाव इस सबसे महत्वपूर्ण सबक को दोहराता है कि लोकतंत्र में सिर्फ मुद्दे नहीं बल्कि नेतृत्व की विश्वसनीयता मायने रखती है। तेजस्वी युवा और ऊर्जावान हैं लेकिन वे अभी उस परिपक्वता, ठोस दृष्टि और स्थिरता वाले नेतृत्व का विकल्प नहीं बन पाए, जिसकी उम्मीद बिहार का मतदाता करता है। आरजेडी का जाति-केंद्रित चुनाव, महागठबंधन की विफल रणनीति और तेजस्वी की नीतियों का धुंधलापन, इन सबने मिलकर परिणाम तय कर दिए। कुल मिलाकर, यह जनादेश केवल एनडीए की जीत नहीं बल्कि बिहार के मतदाता की राजनीतिक परिपक्वता का प्रमाण है। यहां जनता ने स्पष्ट संकेत दिया है कि वह सिर्फ सरकार नहीं, विश्वास चुनती है। वह सिर्फ घोषणाओं से नहीं, स्थिरता और सुशासन से प्रभावित होती है और 2025 में यह विश्वास एक बार फिर नीतीश कुमार पर जा टिका है, जो कठिन परिस्थितियों में भी व्यवस्था को थामे रहने वाले दीर्घदृष्टि वाले नेता साबित हुए हैं। यह परिणाम तेजस्वी की हार नहीं, रणनीति की हार है। यह महागठबंधन का पतन नहीं, एनडीए की मजबूती है और यह चुनाव नहीं, बिहार की परिपक्व लोकतांत्रिक चेतना का प्रमाण है। ईएमएस/14नवंबर2025