लेख
17-Nov-2025
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बिहार विधानसभा चुनाव 2025 ने भारतीय चुनावी राजनीति को एक नया सबक दिया है। यह कि वैज्ञानिक तरीके से किया गया एग्ज़िट पोल न केवल संभावनाओं का अनुमान होता है, यह लोकतांत्रिक व्यवहार को समझने का विश्वसनीय उपकरण भी बन सकता है। यह वही बिहार है जिसे अक्सर विश्लेषकों की परीक्षा लेने वाला प्रदेश कहा जाता है। 2015 में जहाँ एग्ज़िट पोल की भविष्यवाणियाँ औंधे मुँह गिरीं और 2020 में भी कई एजेंसियाँ ठीक निशाने पर नहीं बैठ पाईं, वहीं 2025 का चुनाव अलग कहानी कहता है। इस बार डेटा ने राजनीति को पीछे नहीं छोड़ा, बल्कि राजनीति ने डेटा की समझ को सम्मान दिया। सबसे पहले बात करते हैं कामख्या एनालिटिक्स की। इस एजेंसी ने एनडीए को 167–187 सीटों की रेंज दी थी और आखिरकार असल नतीजे इसी दायरे में आ टिके। यह महज़ किस्मत नहीं थी, यह था गहरे रिसर्च का, बारीक सैंपलिंग का और ज़मीन की नब्ज़ पकड़ने की कला का परिणाम। बिहार जैसा समाज जहाँ जाति, क्षेत्र, स्थानीय मुद्दे और नेतृत्व की धारणा एक साथ वोटर की पसन्द को आकार देते है। वहाँ किसी भी सर्वे में सटीक अनुमान लगाना आसान नहीं होता। लेकिन कामख्या की कड़ी डेटा-मॉडलिंग ने दिखा दिया कि जब शोध ईमानदार हो तो अनुमान भी वास्तविकता के करीब पहुँच जाते हैं। मेट्राइज़ और टुडेज़ चाणक्य ने भी एनडीए को आरामदायक बहुमत दिया था—147–167 और 148–172 की रेंज के साथ। दोनों के अनुमानों का केन्द्र-बिन्दु लगभग वही रहा, जो बाद में ईवीएम के आंकड़ों में नज़र आया। खासकर चाणक्य की बात जिसकी एग्ज़िट पोल मॉडलिंग लंबे समय से उच्च सटीकता के लिए जानी जाती है। इस बार भी अपनी प्रतिष्ठा पर खरी उतरी। महागठबंधन (एमजीबी) के लिए इन एजेंसियों ने जो सीट-रेंज दी थी—कामख्या का 54–74, मेट्राइज़ का 70–90 और चाणक्य का 65–89 वह भी अंतिम परिणामों से मेल खाती दिखी। इससे स्पष्ट होता है कि इस बार किसी एजेंसी ने अतिशयोक्ति नहीं की, सबने दोनों पक्षों की ताकत-दुर्बलता को तटस्थता से समझा। छोटे दलों की सीटों का अनुमान लगाना आमतौर पर सबसे कठिन काम होता है। इनके वोट अक्सर बिखरे होते हैं, बोथ पोलिंग बूथ पर छोटे-छोटे उतार-चढ़ाव इनके प्रदर्शन को बदल सकते हैं। फिर भी मेट्राइज़ ने जेएसपी/जेएसयूपी को ठीक 5 सीटें दीं और एक्सिस माय इंडिया ने 0–2 की रेंज। वास्तविक नतीजे भी लगभग इन्हीं अनुमानों के आसपास रहे। यह चुनाव-सर्वेक्षण की विश्वसनीयता के लिए एक मजबूत संकेत है कि छोटे दलों की भविष्यवाणी भी अब ‘अनिश्चित’ नहीं, ‘संभव’ होने लगी है। पीपल्स पल्स ने एनडीए के लिए 133–159 और एमजीबी के लिए 75–101 जैसी व्यापक रेंज दी थी। रेंज भले ही बड़ी थी, पर दिशा सही थी। भास्कर एग्ज़िट पोल ने भी राज्य में बहुमत की हवा को बिना ज्यादा विचलन के समझा 145–160 / 73–91 के आँकड़ों के साथ। दूसरी एजेंसियाँ पी-मार्क, पोलस्ट्रैट, पीपुल्स इनसाइटस चाहे बड़े दायरे में आँकड़े दिए हों, लेकिन सामूहिक रूप से सबकी सूई एक ही दिशा में घूम रही थी एनडीए की ओर। चुनाव विश्लेषण में इसे ‘डेटा-संगति’ यानी प्रवृत्ति की स्थिरता कहा जाता है, और 2025 ने इसे नए स्तर पर प्रमाणित किया। इस बार सबसे उल्लेखनीय बात यह रही कि लगभग सभी गंभीर एजेंसियों ने सैंपलिंग को सिर्फ संख्याओं का खेल नहीं माना, सामाजिक यथार्थ से जोड़कर देखा। बूथ चयन पहले की तुलना में अधिक संतुलित रहा। ग्रामीण, शहरी, अर्ध-शहरी और माइग्रेशन-प्रधान इलाकों का व्यवस्थित कवरेज किया गया। डेमोग्राफिक मैपिंग को भी अधिक वैज्ञानिक बनाया गया। जाति आधारित व्यवहार, महिला मतदाताओं की प्राथमिकताएँ, युवा वोटरों की झुकाव, और स्थानीय मुद्दों की तीव्रता; यह सभी कारक विश्लेषण का हिस्सा बने। यही वह कारण है कि इस बार एग्ज़िट पोल्स में विचलन कम और सटीकता अधिक दिखाई दी। चुनाव परिणाम आने के बाद एक और रोचक बात सामने आई। कुछ राजनीतिक हलकों द्वारा फैलाया गया “फेक एग्ज़िट पोल” नैरेटिव स्वतः ही ध्वस्त हो गया। जब नतीजे स्क्रीन पर आने शुरू हुए और वे उन्हीं अनुमानों की तरह सामने आने लगे जिन्हें सर्वे एजेंसियों ने पहले ही बता दिया था, तब यह स्पष्ट हो गया कि इस बार डेटा से छेड़छाड़ का आरोप न केवल निराधार था, या चुनावी मानस को भटकाने का प्रयास भर था। जनता ने भी देखा कि अनुमान और वास्तविकता, दोनों एक-दूसरे के समानांतर चलते नजर आए। एग्ज़िट पोल कोई जादू नहीं होते। वे गणित, समाजशास्त्र, मनोविज्ञान, सांख्यिकी और मानव व्यवहार के जटिल संयोग से तैयार होते हैं। उनमें हमेशा एक त्रुटि-सीमा होती है, हमेशा एक अनिश्चितता छिपी होती है। लेकिन अगर वेटेज सही है, सैंपल वास्तविक जनसंख्या का प्रतिनिधित्व करता है, और डेटा बिना पूर्वग्रह के एकत्रित किया गया है तो एग्ज़िट पोल न सिर्फ संकेत देते हैं बल्कि राजनीतिक व्यवहार को समझने के ठोस आधार भी बन जाते हैं। 2025 के बिहार चुनाव ने साबित कर दिया कि भारतीय मतदाता अब “अनपेक्षित” नहीं रहा। उसकी पसंद में पैटर्न है, उसकी राजनीतिक स्मृति गहरी है, और उसके मतदान व्यवहार में निरंतरता दिखाई देती है। यह चुनाव विश्लेषकों के लिए भी संकेत है कि भारत का लोकतंत्र अब भावना और वास्तविकता, दोनों को साथ लेकर आगे बढ़ रहा है। अंततः, यह कहना गलत नहीं होगा कि 2025 का बिहार सिर्फ एक चुनाव नहीं था। यह डेटा और लोकतंत्र की साझेदारी का सबसे परिपक्व उदाहरण बनकर सामने आया। इसने यह विश्वास मज़बूत किया है कि अगर मॉडलिंग वैज्ञानिक हो, सैंपलिंग प्रतिनिधिक हो, और डेटा ईमानदार हो, तो एग्ज़िट पोल केवल अनुमान नहीं, लोकतांत्रिक समझ का भरोसेमंद आईना बन सकते हैं। और शायद यही भारत के भविष्य के राजनीतिक विश्लेषण की दिशा भी है। जहाँ भावनाएँ अपनी जगह होंगी, पर तथ्यों की रोशनी उन्हें समझने का रास्ता दिखाएगी। (स्वतंत्र लेखिका एवं शोधार्थी) (यह ले‎खिका के व्य‎‎‎क्तिगत ‎विचार हैं इससे संपादक का सहमत होना अ‎निवार्य नहीं है) .../ 17 नवम्बर/2025