भिक्षु आख्यान का वर्णन महर्षि वसिष्ठजी कहते हैं- श्रीराम! मुनिवरों ने दो प्रकार से मुनि बतलाए हैं- एक काष्ठतपस्वी और दूसरा जीवन्मुक्त। परमात्मा की भावना से रहित शब्द क्रिया में बद्ध निश्चय और हठ से सम्पूर्ण इन्द्रियों को जीत रखने वाला मुनि काष्ठ मौनी कहा गया है। इस विनाशशील संसार के स्वरूप को यथार्थ रूप से जानकर जो विशुद्धात्मा और परमात्मा में स्थित ज्ञानी महात्मा बाहर न्याययुक्त लौकिक व्यवहार करता हुआ भी भीतर विज्ञानानन्दघन परमात्मा में तृप्त रहता है, वह जीवमुक्त मुनि कहा गया है। मौन को जानने वाले मुनियों ने मौन के चार भेद (प्रकार) बतलाए हैं- वाङ्मौन, इन्द्रिय मौन, काष्ठ मौन और सुषप्त मौन। वाणी का निरोध वाङ्मौन, इन्द्रिय मौन, काष्ठ मौन और सुषप्त मौन। वाणी का निरोध वाङ्मौन, हठपूर्वक विषयों से इन्द्रियों का निग्रह इन्द्रिय मौन और सम्पूर्ण चेष्टाओं का त्याग काष्ठ मौन कहलाता है। परमात्मा के स्वरूपानुभव में जीवन्मुक्त निरन्तर लगा रहता है, उसके मौन को सुषुप्तमौन कहते हैं। काष्ठ मौन में वाङ्मौन आदि तीनों मौनों का अन्तर्भाव है और सुषुप्त मौनावस्था में जो तुर्यावस्था है, वही जीवन्मुक्तों की स्थिति है। ऊपर जो तीन प्रकार का मौन कहा गया है वह प्रस्फुरित हुए चित्त का चलन ही है। अतएव ये तीनों मौन उपादेय नहीं वरं त्याज्य है। किन्तु इन तीनों से भिन्न चौथा जो सुषुप्त मौन है, वह जीवन्मुक्तों की स्थिति है। इसमें स्थित जीवात्मा का पुनर्जन्म नहीं होता। इसमें सम्पूर्ण इन्द्रियवृत्तियाँ अनुकूल में तो हर्षित नहीं होती और प्रतिकूल में घृणा नहीं करती। जो विभाग रहित अभ्यासरहित एवं आदि और अन्त से रहित है तथा जो ध्यान करते हुए या ध्यान न करते हुए सभी अवस्थाओं में स्वभाव से स्थित है, वही सुषुप्तमौन कही गई है, इस जगत में विकाररहित सर्वात्मक तथा सत्ता-सामान्य स्वरूप परमात्मा मैं ही हूँ- इस तरह की ज्ञानावस्था को सौषुप्तमौन कहते हैं। ब्रह्मभूत श्रीरामभद्र, जागृतवस्था में सब ओर भलिभाँति व्यवहार करता हुआ अथवा सम्पूर्ण व्यवहारों को छोड़कर समाधि में स्थित हुआ जीवन्मुक्त देहयुक्त होने पर भी सम्पूर्ण निर्मल शान्तिवृत्ति युक्त तुरीयवस्था में स्थित एवं विदेह स्वरूप ही है। ईएमएस / 17 नवम्बर 25