लेख
18-Nov-2025
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(इंदिरा गांधी जयंती (19 नवम्बर) पर विशेष) पं. जवाहरलाल नेहरू के घर 19 नवम्बर 1917 को जब प्रियदर्शिनी नामक कन्या ने जन्म लिया था तो किसे पता था कि यही कन्या आगे चलकर न केवल इस देश की बागडोर संभालेगी बल्कि अपनी दबंगता से पूरी दुनिया में मिसाल बन जाएगी। ऑक्सफोर्ड और स्विट्जरलैंड में उच्च शिक्षा प्राप्ति के पश्चात् इंदिरा गांधी ने उच्च पद पर नौकरी करने या कोई अन्य कार्य करने के बजाय अपना जीवन देशसेवा में समर्पित करने का निश्चय किया। देशभक्ति की भावना इंदिरा जी में बचपन से ही कूट-कूटकर भरी थी। विदेशी वस्तुओं के बहिष्कार के आव्हान से प्रेरित होकर बचपन में ही इन्होंने अपने घर के बाहर अपने कीमती कपड़ों की होली जलाकर न केवल अपनी इसी भावना का परिचय दिया था बल्कि उसके बाद इंदिरा जी से प्रेरणा लेकर इस आन्दोलन ने पूरे देश में जोर पकड़ा था। इंदिरा जी के स्कूली दिनों में एक दिन स्कूल में गांधी जी के आमरण अनशन को लेकर एक सभा का आयोजन था, जिसमें बच्चों को भी बोलने का अवसर दिया गया था। जब इंदिरा जी ने बोलना शुरू किया तो सभागार में सन्नाटा छा गया और सभी एकटक इंदिरा को निहारने लगे कि इतनी छोटी बालिका इतनी गूढ़ बातें कैसे कर रही है। उन्होंने कहा, ‘‘आखिर स्वर्ण अपने ही दलित भाईयों को गिरा हुआ, छूत और निकृष्ट क्यों समझते हैं तथा उनके साथ दुवर््यवहार और अत्याचार क्यों करते हैं? अगर हमने अपनी ही सेवा करने वालों का इस तरह से निरन्तर तिरस्कार न किया होता तो आज अंग्रेजों को इस प्रकार लाभ उठाने का अवसर न मिल रहा होता और न ही बापू को इस तरह से आमरण अनशन कर अपने प्राण दांव पर लगाने पड़ते।’’ इंदिरा जी की इन गूढ़ और तर्कसम्मत बातों के समक्ष सभी नतमस्तक थे और उनकी सराहना कर रहे थे। इंदिरा में बचपन से ही एक अच्छी राजनेता होने के तमाम गुण विद्यमान थे। 21 वर्ष की आयु में वह कांग्रेस में शामिल होकर सक्रिय राजनीति में कूद पड़ी। उसके बाद उन्होंने आजादी के आन्दोलन में बढ़-चढ़कर हिस्सा लिया। 1942 में उन्होंने फिरोज गांधी से प्रेम विवाह किया किन्तु 1960 में फिरोज गांधी का अकस्मात् निधन हो गया। पिता जवाहरलाल नेहरू के निधन के बाद देश की बागडोर संभालने की जिम्मेदारी इंदिरा के कंधों पर आई तो अपनी दृढ़ता, दबंगता, निडरता और वाकपटुता से उन्होंने दुनियाभर को अपना लोहा मानने को विवश कर दिया। अमेरिका और ब्रिटेन जैसे विकसित एवं प्रभावशाली देशों में भी उनकी तूती बोलती थी। 1966 से 1977 तक उन्होंने देश पर एकछत्र शासन किया और उनकी कार्यशैली तथा देश के प्रति उनका समर्पण भाव देखकर विरोधी भी उनकी सराहना किए बिना नहीं रह पाते थे। हालांकि लालबहादुर शास्त्री के बाद प्रधानमंत्री बनी इंदिरा को शुरूआती दौर में ‘गूंगी गुड़िया’ की उपाधि दी गई थी किन्तु बहुत ही कम समय में अपने साहसिक निर्णयों से इंदिरा ने साबित कर दिखाया था कि वो एक ‘गूंगी गुड़िया’ नहीं बल्कि ‘लौह महिला’ हैं। बैंकों के राष्ट्रीयकरण तथा 1971 के भारत-पाक युद्ध में भारत की शानदार जीत के बाद इंदिरा जी जनमानस की आंखों का तारा बन गई थी किन्तु 1975-77 के आपातकाल ने उनकी छवि पर ग्रहण लगाने में प्रमुख भूमिका निभाई और उस दौर ने उनकी छवि एक तानाशाह के रूप में स्थापित कर दी। यही वजह रही कि 1977 में इंदिरा को पहली बार हार का सामना करना पड़ा और सत्ता उनके हाथ से छिन गई किन्तु निराश होना तो जैसे उन्होंने सीखा ही नहीं था, इसलिए 1980 में एक बार फिर विशाल बहुमत के साथ वह सत्ता में लौटी। अपने शासनकाल में उन्होंने कभी अलगाववादी व साम्प्रदायिक आग भड़काने वाले तत्वों को नहीं पनपने दिया। ऐसे तत्वों को उन्होंने बेदर्दी से कुचलने में जरा भी देर नहीं लगाई। 1980 में पुनः देश का शासन संभालने के बाद पंजाब में अलगाववादी ताकतों ने खालिस्तान की मांग शुरू की और दूसरे देशों की शह पर अपने नापाक इरादों को सफल बनाने के लिए सिख अलगाववादियों ने भयानक नरसंहार का दौर शुरू किया तथा पंजाब में अवैध रूप से हथियारों के जखीरे इकट्ठा करने शुरू कर दिए। देश की जांबाज, निडर एवं साहसी नेता इंदिरा को भला यह कैसे सहन होता, इसलिए जैसे ही उन्हें खबर मिली कि सिख अलगाववादियों ने अमृतसर के स्वर्ण मंदिर जैसी पाक जगह में भी हथियारों का विशाल जखीरा इकट्ठा किया है तो उन्हें देश की एकता और अखंडता कायम रखने तथा अलगाववादियों के मंसूबों पर पानी फेरने के लिए इस पवित्र धर्मस्थल के भीतर न चाहते हुए भी ‘ऑपरेशन ब्लू स्टार’ के तहत पुलिस भेजने का सख्त निर्णय लेना पड़ा। हालांकि उस वक्त स्वर्ण मंदिर के भीतर पुलिस बल भेजने के उनके फैसले की बहुत आलोचना हुई किन्तु जब स्वर्ण मंदिर से हथियारों का बहुत बड़ा जखीरा बरामद हुआ और धार्मिक स्थल की आड़ में चल रही इस राष्ट्र विरोधी साजिश का भंडाफोड़ हुआ तो उन्हीं लोगों ने इंदिरा जी की सराहना भी की। उसके बाद इंदिरा ने जिस दिलेरी और दृढ़ता के साथ अलगाववादियों को रौंदा, वह एक मिसाल बन गया लेकिन अलगाववादियों के विरूद्ध चलाए गए उनके इसी ऑपरेशन की वजह से ही वह उनकी हिट लिस्ट में सबसे ऊपर आ गई, जिन्होंने हर हाल में उनकी हत्या कर उन्हें अपने मार्ग से हटाने की ठान ली। इंदिरा जी को स्वयं अपनी मौत का आभास पहले ही हो गया था लेकिन फिर भी वह अपने दृढ़ इरादों से टस से मस न हुई और अलगाववादियों के खिलाफ अपना अभियान पहले से भी तेज कर दिया। 30 अक्तूबर 1984 को भुवनेश्वर की एक विशाल जनसभा को संबोधित करते हुए इंदिरा ने अपनी हत्या का पूर्वाभास होने का स्पष्ट संकेत देते हुए कहा था, ‘‘देश की सेवा करते हुए यदि मेरी जान भी चली जाए तो मुझे गर्व होगा। मुझे भरोसा है कि मेरे खून की एक-एक बूंद देश के विकास में योगदान देगी और देश को मजबूत एवं गतिशील बनाएगी।’’ इंदिरा जी के इस भाषण के चंद घंटों बाद ही 31 अक्तूबर 1984 की सुबह करीब सवा नौ बजे उनके दो निजी अंगरक्षकों ने ही उन्हें उस वक्त गोलियों से छलनी कर दिया, जब वह अपने आवास से निकलकर विदेशी मीडिया को इंटरव्यू देने जा रही थी। उस हत्याकांड से जहां पूरे देश में शोक की लहर छा गई, वहीं दूसरी ओर इंदिरा जी का शहीदी रक्त रंग लाया और इस नृशंस हत्याकांड के बाद सिख अलगाववादियों को मदद मिलनी बंद हो गई तथा इंदिरा जी की शहादत के साथ ही खालिस्तान की मांग भी गहरे दफन हो गई। इंदिरा जी अक्सर कहा करती थी कि उन कायरों और बुजदिलों पर मातम करो, जो दुनिया के जुल्मों से घबराकर इस तरह आंखें बंद कर लेते हैं, जैसे कि कुछ हुआ ही न हो। (लेखक साढ़े तीन दशक से पत्रकारिता में निरंतर सक्रिय वरिष्ठ पत्रकार हैं) ईएमएस / 18 नवम्बर 25