भारतीय राजनीति की स्वर्णिम शिल्पकार थी इंदिरा गांधी (इंदिरा गांधी जयंती (19 नवम्बर) पर विशेष) भारतीय राजनीति के व्यापक क्षितिज पर यदि किसी नेता का व्यक्तित्व अद्भुत दृढ़ता, निर्भीक निर्णय क्षमता और असाधारण नेतृत्व का प्रतीक बनकर उभरा तो वह निसंदेह इंदिरा गांधी थी। वह केवल एक राजनेता नहीं थी बल्कि भारतीय जनमानस में विश्वास, सुरक्षा और सामाजिक संतुलन की प्रतिमूर्ति के रूप में प्रतिष्ठित थी। उनके भीतर एक ऐसी ज्वाला थी, जो कठिन से कठिन परिस्थितियों में भी उन्हें अडिग बनाए रखती थी। उनका पूरा जीवन इस बात की मिसाल है कि किसी राष्ट्र का नेतृत्व केवल राजनीतिक चातुर्य से नहीं बल्कि साहस, समर्पण और अदम्य इच्छाशक्ति से किया जाता है। इंदिरा गांधी का व्यक्तित्व जितना दृढ़ था, उतना ही संवेदनशील भी। अपने पारिवारिक जीवन से लेकर राष्ट्रीय राजनीति तक, उन्होंने उतने ही साहसिक निर्णय लिए, जितनी निर्भीकता से उन्होंने स्वयं को विपरीत परिस्थितियों में संभाला। भारत के स्वतंत्रता संघर्ष में बचपन से ही जुड़ने वाली इंदिरा ने महज 13 वर्ष की आयु में ‘वानरसेना’ का गठन कर अपनी नेतृत्व क्षमता और राष्ट्रप्रेम का परिचय दिया था। यह वही बालिका थी, जो आगे चलकर भारत की पहली और अभी तक की एकमात्र महिला प्रधानमंत्री बनी। 1966 में जब एक युवा और अपेक्षाकृत अनुभवहीन महिला प्रधानमंत्री के रूप में उन्होंने पद संभाला, तब विश्व की बड़ी शक्तियां भी हैरान थीं। कई लोगों ने उन्हें ‘गूंगी गुड़िया’ के रूप में कमतर आंका लेकिन यह वही इंदिरा थी, जिन्होंने कुछ वर्षों में ही अपनी ऐसी छवि बनाई कि दुनिया उन्हें ‘आयरन लेडी ऑफ इंडिया’ कहने लगी। अमेरिकी मीडिया ने जिस सम्मान और गंभीरता से उनकी पहली अमेरिका यात्रा को कवर किया, वह उस समय किसी भी भारतीय नेता के लिए अभूतपूर्व था। उनका आत्मविश्वास, तेजस्विता और राजनीतिक परिपक्वता शीघ्र ही भारत की राष्ट्रीय पहचान बन गई। इंदिरा गांधी के तीन निर्णय भारतीय राजनीति के इतिहास में स्थायी रूप से अंकित रहेंगे, 14 निजी बैंकों का राष्ट्रीयकरण, राजाओं के प्रिवीपर्स की समाप्ति और 1971 में पाकिस्तान पर निर्णायक विजय। इन तीन कदमों ने न केवल उनके अद्वितीय साहस का प्रमाण दिया बल्कि भारत को नए आर्थिक, सामाजिक और भू-राजनीतिक मार्ग पर आगे बढ़ाया। बैंकों के राष्ट्रीयकरण ने देश की अर्थव्यवस्था को आम लोगों के अधिकार में लाने की दिशा में ऐतिहासिक पहल की। प्रिवीपर्स की समाप्ति ने भारत के गणतांत्रिक चरित्र को मजबूत किया और 1971 का युद्ध भारत की सैन्य और कूटनीतिक क्षमता का वैश्विक ऐलान था। इंदिरा के नेतृत्व में जन्मा बांग्लादेश न केवल क्षेत्रीय भू-राजनीति का नया आयाम था बल्कि मानवता और जनचेतना का भी अन्यतम उदाहरण था। उनकी राजनीतिक शैली की सबसे दिलचस्प बात यह थी कि वह विपक्ष या अंतर्राष्ट्रीय दबावों से कभी नहीं घबराती थी। संसद में उन्हें घेरना आसान नहीं था। इंदिरा ने जीवन के हर मोड़ पर संघर्ष को अपना साथी बनाया। उनका निजी जीवन भी राजनीतिक जीवन की भांति रोमांचक और जटिल था। फिरोज गांधी से विवाह पर पिता की नाराजगी झेलने से लेकर वैवाहिक मतभेदों के बीच अपनी पहचान बनाए रखने तक, इंदिरा ने हमेशा अपने निर्णय स्वयं लिए। फिरोज गांधी की 1960 में अचानक मृत्यु ने उन्हें भीतर तक तोड़ दिया लेकिन इस आघात के बावजूद उन्होंने खुद को संभाला और देश की राजनीति में अग्रसर रही। यह वही दौर था, जब केवल 41 वर्ष की आयु में वे कांग्रेस की अध्यक्ष बनी और आगे चलकर देश की सत्ता का सबसे बड़ा दायित्व अपने हाथों में लिया। उनका जीवन केवल उपलब्धियों से भरा नहीं था, उसमें परीक्षाओं की लंबी श्रृंखला भी थी। 1975 का आपातकाल उनके राजनीतिक जीवन का सबसे विवादास्पद अध्याय रहा। जयप्रकाश नारायण के आंदोलन ने जब सत्ता को चुनौती दी, तब उन्होंने प्रेस पर सेंसरशिप लगाई, नागरिक अधिकार सीमित किए और कई विपक्षी नेताओं को गिरफ्तार करवा दिया। यह निर्णय आज भी भारतीय लोकतंत्र में बहस का विषय है और इसे लोकतंत्र के काले अध्याय के रूप में स्मरण किया जाता है। 1977 में उन्हें चुनावों में करारी हार का सामना करना पड़ा लेकिन वह हार मानने वालों में से नहीं थी। तीन वर्ष बाद ही 1980 के चुनावों में उन्होंने अप्रत्याशित रूप से सत्ता में वापसी की और साबित कर दिया कि जनता का विश्वास पुनः अर्जित करना असंभव नहीं। उनके जीवन का अंतिम अध्याय अत्यंत मार्मिक और दार्शनिक प्रतीत होता है। 30 अक्तूबर 1984 को भुवनेश्वर में उन्होंने जो भाषण दिया, वह मानो अपने भविष्य की पूर्वसूचना थी, ‘मैं आज यहां हूं, कल शायद यहां न रहूं, मेरे खून का एक-एक कतरा भारत को मजबूत करेगा’ यह वाक्य उनकी अटूट आस्था और बलिदान की भावना को दर्शाता है। इस भाषण को सुनकर वहां मौजूद लोग स्तब्ध रह गए थे। जैसे उनकी आत्मा उन्हें आने वाले अनिष्ट का संकेत दे रही थी। अगली ही सुबह 31 अक्तूबर 1984 को अपने निवास के बाहर उन्होंने जीवन की अंतिम यात्रा तय कर ली। ऑपरेशन ब्लू स्टार के प्रतिशोध में अपने ही अंगरक्षकों द्वारा चलाई गई गोलियों की बौछार ने उन्हें राष्ट्रमाता से अमरत्व की ओर पहुंचा दिया। उनकी मृत्यु केवल एक प्रधानमंत्री का अंत नहीं थी बल्कि एक युग का अवसान था। भारत ने उस दिन केवल एक नेता नहीं खोया बल्कि वह शक्ति खो दी, जिसने भारत को वैश्विक मंच पर दृढ़ता, संकल्प और गरिमा से परिचित कराया था। इंदिरा गांधी के व्यक्तित्व का एक और महत्वपूर्ण पहलू था उनका विश्व दृष्टिकोण। उन्होंने तीसरी दुनिया के देशों की आवाज को मजबूती दी, गुटनिरपेक्ष आंदोलन को नई दिशा दी और वैश्विक मंचों पर भारत के आत्मसम्मान को सशक्त रूप से स्थापित किया। वह विकासशील देशों की आकांक्षाओं का प्रतिनिधित्व करती थी। अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर उन्हें जितना सम्मान मिला, उतना ही सम्मान भारत के आम नागरिकों के हृदय में भी वे अर्जित करती रही। उनके भीतर का दृढ़ राष्ट्रवाद, सामाजिक सामरसता के प्रति प्रतिबद्धता और महिलाओं के सशक्तिकरण की प्रेरणा लाखों लोगों में आज भी जीवित है। उनका जीवन यही संदेश देता है कि बड़े पद और शक्तियां भी मनुष्य को कमजोर बना सकती हैं परंतु दृढ़ संकल्प, निडरता और नैतिकता ही किसी नेतृत्व की सच्ची कसौटी होती है। इंदिरा गांधी इसी कसौटी पर पूरी तरह खरी उतरी। इसीलिए उन्हें केवल भारत की नहीं बल्कि विश्व राजनीति की महानतम नेताओं की श्रेणी में रखा जाता है। उनकी संपूर्ण जीवन यात्रा ने उन्हें भारत की लौह-स्तंभ बना दिया। इंदिरा गांधी का जीवन विरोधाभासों और अद्भुतताओं से भरी एक ऐसी महागाथा, जो संघर्ष से शुरू होकर शौर्य पर समाप्त होती है लेकिन अपने पीछे प्रेरणा की अमर छाप छोड़ जाती है। आज उनकी जयंती पर जब हम उन्हें स्मरण करते हैं तो उनकी राजनीतिक विरासत, उनकी दृढ़ता, उनका त्याग और राष्ट्र के लिए उनका अटूट समर्पण हमें पुनः याद दिलाता है कि सच्चा नेतृत्व वही है, जो स्वयं को नहीं बल्कि अपने राष्ट्र को सर्वोपरि रखता है। (लेखिका डेढ़ दशक से अधिक समय से शिक्षण क्षेत्र में सक्रिय शिक्षाविद हैं) ईएमएस / 18 नवम्बर 25